"त्रिजटा": अवतरणों में अंतर

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श्री रामचरित मानस के छोटे-से-छोटे पात्र भी विशेषता संपन्न है। इसके स्त्री पात्रों में त्रिजटा एक लधु स्त्रीपात्र है । यह पात्र आकार में जितना ही छोटा है, महिमा में उतना की गौरावमण्डित है।
 
सम्पूर्ण ‘मानस’ में केवल सुन्दरकाण्ड और लंका काण्डमेंकाण्ड में सीता-त्रिजटा संवाद के रूपमें त्रिजटा का वर्णन आया है, परंतु इन लघु संवादो में ही त्रिजटा के चरित्र की भारी विशेषताएँ निखर उठी हैं।
 
छोटेसे वार्ताप्रसङ्गमें भी सम्पूर्ण चरित्र को समासरूप से उद्भासित करने की क्षमता पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदासजी की विशेषता है । मानस के सुन्दरकाण्ड की एक चौपाईं में त्रिजटा का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है :
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सम्भवत: इन्ही तीन गुणों के समाहार के कारण उसका नाम त्रिजटा रखा गया हो । संत कहते है इनके सिर पर ज्ञान,भक्ति और वैराग्य रुपी तीन जटाएं है अतः इनका नाम त्रिजटा है।
 
त्रिजटा रामभक्त बिभीषणजीविभीषणजी की पुत्री है। इनकी माता का नाम शरमा है। वह राबणरावण की भ्रातृजा है। राक्षसी उसका वंशगुण है और रामभक्ति उसका पैतृक गुण । लंका की अशोक वाटिका में सीताजी के पहरेपर अथवा सहचरी के रूपमें रावणद्वारा जिस स्त्री-दल की नियुक्ति होती है, त्रिजटा उसमें से एक है।
 
अपने सम्पूर्ण चरित्र में सीताके लिये इसने परामर्शदात्री एवं प्राणरक्षिका का काम किया है । यही कारण है कि विरहाकुला और त्रासिता सीताने त्रिज़टा के सम्बोधन में माता शब्द का प्रयोग किया है।
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ऐसी शुभेच्छुका के लिये मा शब्द कितना समीचीन है ।
 
त्रिज़टा की रति राम-चरण में है । रामभक्त पिताकीपिता की पुत्री होनेकेहोने के कारण इसका यह अनुराग पैतृक सम्पत्ति है और स्वाभाविक है । त्रिजटा के घर में निरंतर रामकथा होती है । अभी माता सीता से मिलने के थोडी देर पहले वह घरसे आयी है, जहाँ हनुमान जी जैसे परम संत श्री बिभीषणजीविभीषणजी से रामकथा कह रहे थे ।
 
*तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।*
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सीता जी का विरह जब असह्य हो चला तब मरणातुर सीताजी आत्मत्याग के लिये जब त्रिजटा से अग्नि की याचना करती हैं , सीताजी त्रिजटा से कहती है के चिता बनाकर सजा दे और उसमे आग लगा दे, तो इस अनुरोंध को वह बुद्धिमान राम भक्ता यह कहकर टाल देती है कि रात्रि के समय अग्नि नहीं मिलेगी और सीताजी के प्रबोधके लिये वह राम यश गुणगान का सहारा लेती है ।
 
ज्ञान गुणसागर हनुमान जी ने भी जब अशोकवाटिका में सीटा जी की विपत्ति देखी तो उनके प्रबोधके लिये उन्हें कोई उपाय सूझा ही नहीं । वे सीताजी के रूप और स्वभाव दोनोंहीदोनों ही से अपरिचित थे ।
 
उन्होंने त्रिजटा प्रयुक्त विधिका ही अनुसरण किया । रावण त्रासिता सीताजी को राम सुयश सुनने से ही सांत्वना मिली थी, यह हनुमान् जी ऊपर पल्लवोंमें छिपे बैठे देख रहे थे।
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त्रिजटाके चले जानेके बाद सीताजी और भी व्याकुल हो उठी । तब उनकी परिशान्ति के लिये हनुमान जी ने भी श्रीराम गुणगान सुनाये ।
 
दानवी होनेकेहोने के कारण त्रिजटा में दानव मनोविज्ञान का ज्ञान तो था ही । दानवोंका अधिक विश्वास दैहिक शक्तिमेशक्ति मे है और इसीलिये उन्हें कार्यविरत करनेमें भय अधिक कारगर होता है।
 
सीताजी को वशीभूत करने के लिये रावणने भय और त्रासका सहारा लिया था और तदनुसार राक्षसियों को ऐसा ही अनुदेश करके यह चला गया था । सीताजीका दुख दूना हो गया, क्योंकि राक्षसियाँ नाना भाँति बह्यंकर रूप बना बनाकर उन्हें डराने धमकाने लगी ।
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त्रिजटा ने उन राक्षसियों से कहा की मैंने एक स्वप्न देखा है। स्वप्नमे मैंने देखा कि एक बंदर ने लंका जला दी । राक्षसों की सारी सेना मार डाली गयी । रावण नंगा है और गधे पर सवार है । उसके सिर मुँड़े हुए हैं बीसो भुजाएँ कटी हुई है ।
 
इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका बिभीषणविभीषण ने पायी है। लंका में श्री रामचंद्र जी की दुहाई फिर गयी । तब प्रभुने सीताजीकोसीताजी को बुलावा भेजा।
 
पुकारकर (निश्चय के साथ ) कहती हूहूँ कि यह स्वप्न चार ( कुछ ही) दिनों में सत्य होकर रहेगा । उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गयी और जानकी जी के चरणों पर गिर पड़ी।
 
इस स्वप्न वार्तासे एक ओर जहाँ त्रिज़टा का भविष्य दर्शिनी होना सिद्ध होता है, वहीं दूसरी ओर उसका व्यवहार-निपुणा और विवेकिनी होना भी उद्धाटित होता है।
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भय दिखाकर दूसरे को वशीभूत करनेवाली मण्डलि को उसने भावी भयकी सूचना देकर मनोनुकूल बना लिया । प्रत्यक्ष वर्जन मे तो राजकोप का डर था, अनिष्ट की सम्भावना थी । उसने उन राक्षसियों को साक्षात भक्तिरूपा सीता जी के चरणों में डाल दिया । यही तो भक्तो संतो का स्वभाव है।
 
लंका काण्डके युद्ध- प्रसंग में त्रिज़टा की चातुरीका एक और विलक्षण उदाहरण मिलता है । राम रावण युद्ध चरम सीमापर है । रावण छोर युद्ध कर रहा है । उसके सिर कट-कट करके भी पुन: जुट जाते हैं । भुजाओ को खोकर भी वह नवीन भुजावाला बन जाता है और श्रीराम के मारे भी नहीं मरता । अशोक वाटिका में त्रिज़टा के मुँहसे यह प्रसङ्ग सुनकर सीताजी व्याकुल हो जाती हैं । श्री रामचंद्र के बाणों से भी नहीं मरने वाले रावण के बन्धन से वह अब मुक्त होने की आशा त्याग देने को हो जाती हैं।
 
भी वह नवीन भुजावाला बन जाता है और श्रीराम के मारे भी नहीं मरता । अशोक वाटिका में त्रिज़टा के मुँहसे यह प्रसङ्ग सुनकर सीताजी व्याकुल हो जाती हैं । श्री रामचंद्र के बाणों से भी नहीं मरनेवाले रावणके बन्धनसे वह अब मुक्त होनेकी आशा त्याग देनेको हो जाती हैं।
 
त्रिजटा को परिस्थितिवश अनुभव होता है । वह सीताजी की मनोदशा को देखकर फिर प्रभु श्रीरामके बलका वर्णन करती है और सीता को श्रीराम की विजय का विश्वास दिलाती है।
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भगवान् संसार की बड़ी से बड़ी वास्तु और भोग प्रदान कर अपना पीछा छुडा लेते है ,परंतु अपने चरणों की अविचल भक्ति नहीं देते ।नारी भक्ताओ का चरित्र हमेशा ही सर्वश्रेष्ठ रहा है, लंका में सर्वश्रेष्ठ भक्ता त्रिजटा है ऐसा संतो का मत है।
 
इस प्रकार त्रिजटाचरित्रत्रिजटा चरित्र भक्ति, विवेक और व्यवहारकुशलताव्यवहार कुशलता का एक मणिकाञ्चन योग है।
 
शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।