"कराधान के सिद्धान्त": अवतरणों में अंतर
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# एडम स्मिथ
# जे एस मिल
# कौटिल्य
कराधान के सिद्धांत विषय पर लिखित पुस्तक में लेखक डॉ मनीष चौबे ने कराधान के विभिन्न सिद्धान्तों उनकी प्रयोज्यता का विस्तार से वर्णन किया है।*▼
कराधान के सिद्धांत रीगल पब्लिकेशन नई दिल्ली वर्ष 2012▼
इसकी निम्नलिखित प्रकार से व्याख्या की जा सकती हैः
1. '''समानता का सिद्धान्त'
2. '''निश्चितता का सिद्धान्त''' : प्रत्येक व्यक्ति द्वारा दिया जाने वाला कर निश्चित होना चाहिए तथा उसमें कुछ भी असंगत नहीं होना चाहिए। प्रत्येक करदाता का भुगतान का समय, भुगतान की राशि भुगतान का तरीका, भुगतान का स्थान, जिस अधिकारी को कर देना है, वह भी निश्चित होना चाहिए। निश्चितता का सिद्धान्त करदाताओं व सरकार दोनों के लिए जरूरी है।
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7. '''विविधता का सिद्धान्त''' : इसके अनुसार देश की कर व्यवस्था में विविधता होनी चाहिए। कर का बोझ विभिन्न वर्ग के लोगों पर वितरित होना चाहिए।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, कराधान प्रणाली को वास्तविक, व्यापक और सुनियोजित व्यवस्था प्रदान की गई। जब मौर्य साम्राज्य की ख्याति वास्तव में अपने चरम पर थी, उस समय में, प्रसिद्ध ग्रन्थ 'राज्य शिल्प' को 300 ईसा पूर्व के आस पास लिख गया ताकि उस समय की सभ्यता का गहन अध्ययन किया जा सके और सुझाव प्राप्त हो सके, ताकि इनके आधार पर कोई राजा अपनी शासन व्यवस्था को कुशलतम तथा उपयोगी तरीके से चला सके। अर्थशास्त्र का बहुत बड़ा भाग कौटिल्य द्वारा वित्तीय प्रशासन सहित वित्तीय मामलों को समर्पित है। प्रसिद्ध राजनीति विशेषज्ञों के अनुसार, मौर्यकालीन प्रणाली में, जहां तक कृषि का संबंध है, भूमि का स्वामित्व एक प्रकार से राज्य के पास था और भू-राजस्व की वसूली, राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत थी। राज्य द्वारा कृषि उत्पादन के एक हिस्से को, जोकि आम-तौर पर कृषि उपज का छठा हिस्सा था, ही वसूल नहीं किया जाता था अपितु जल कर, चुंगी कर, टोल तथा सीमा शुल्कों को भी लगाया जाता था। वानिक उपज तथा धातुओं आदि के खनन से भी करों की वसूली की जाती थी। नमक कर भी राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत था तथा इसकी वसूली, इसकी निकासी के स्थान पर की जाती थी।
▲कराधान के सिद्धांत विषय पर लिखित पुस्तक में लेखक डॉ मनीष चौबे ने कराधान के विभिन्न सिद्धान्तों उनकी प्रयोज्यता का विस्तार से वर्णन किया है।*
▲कराधान के सिद्धांत रीगल पब्लिकेशन नई दिल्ली वर्ष 2012
कौटिल्य ने दूसरे देशों के साथ किए जा रहे व्यापार और वाणिज्य पर विस्तार से चर्चा की है और ऐसे व्यापार को बढ़ावा देने को मौर्य साम्राज्य की सक्रिय रुचि में बताया है। माल को चीन, श्रीलंका और अन्य देशों से आयात किया जाता था और देश में आयातित समस्त विदेशी माल पर वर्तनम के नाम से लेवी ली जाती थी। विदेशी माल का आयात करने वाले संबंधित व्यापारी द्वारा दर्वोदय नामक अन्य लेवी का भुगतान करना होता था। इसके अतिरिक्त, कर वसूली को बढ़ाने के लिए, सभी प्रकार की नौकाओं पर शुल्क लगाया गया था।
आयकर संग्रह प्रणाली सुनियोजित थी और राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इससे आता था। इसका एक बड़ा भाग नर्तकों, संगीतकारों, अभिनेताओं और नाचने वाली लड़कियों आदि से आयकर के रूप में एकत्र किया जाता था। यह कराधान अस्थिर आय के प्रति प्रगामी न होकर, आय में उतार-चढ़ाव के समानुपाती था। अतिरिक्त लाभ कर को भी एकत्र किया जाता था। बिक्रियों पर सामान्य बिक्री कर भी लगाया जाता था। इमारतों की बिक्री तथा खरीद भी कर के अधीन थी। यहां तक कि जूआबाजी का संचालन भी केंद्रीकृत था और इन कार्यों पर भी कर की वसूली की जाती थी। तीर्थ यात्रियों पर भी यात्रावेतन नाम से कर लगाया हुआ था। यद्यपि, राजस्व सभी संभव स्रोतों से एकत्र किया जाता था परंतु, इसमें अन्तर्निहित धारणा लोगों का शोषण करना या अधिक कर थोपना नहीं था, अपितु, प्रजा के साथ-साथ शासन और राजा को बाहरी तथा आंतरिक खतरों के प्रतिरक्षा प्रदान करना था। इस तरीके से एकत्र राजस्व को सड़कें बनाने, शिक्षण संस्थानों की स्थापना, नए गांव बसाने और समुदाय के लिए लाभप्रद अन्य गतिविधियों जैसी सामाजिक सेवाओं पर खर्च किया जाता था।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सार्वजनिक वित्त और कराधान प्रणाली को इतना महत्व क्यों दिया, इसका कारण तलाश करने के लिए ज्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। उसके अनुसार, सरकार की सत्ता, उसके राजकोष की मजबूती पर निर्भर करता है। उसके अनुसार "- सरकार के पास सत्ता राजकोष से आती है और पृथ्वी का आभूषण खजाना है जिसे राजकोष और सेना के माध्यम से अर्जित किया जाता है"। हालांकि, उसने राजस्व तथा करों को, शासन के द्वारा अपने व्यक्तियों को दी जा रही सेवाओं और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, शासक के लिए एक आय बताया गया है। कौटिल्य ने इस बात पर बल दिया कि भूमि का ट्रस्टी केवल राजा ही था और इसे बचाने तथा इसे अधिक से अधिक उपजाऊ बनाने का कर्तव्य राजा का है ताकि राज्य के आय के मुख्य स्रोत के रूप में भू-राजस्व एकत्रित किया जा सके। उसके अनुसार, कर का भुगतान, प्रजा द्वारा शासक को किया जाने वाला अनिवार्य योगदान नहीं था, परंतु यह संबंध धर्म पर आधारित था और एकत्र किए गए कर के मद्देनजर अपने नागरिकों की रक्षा करना, राजा का पवित्र कर्तव्य था और यदि राजा अपना कर्तव्य पूरा करने में विफल रहता है तो प्रजा को अधिकार है कि वह करों का भुगतान बंद कर दे और यहां तक कि भुगतान किए गए करों की वापसी की मांग करने का अधिकार था।
कौटिल्य ने मौर्य साम्राज्य में कर प्रशासन की प्रणाली का वर्णन भी काफी विस्तार से किया है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में प्रचलित कर प्रणाली, मौटे-तौर पर, आज से लगभग 2300 वर्ष पहले प्रचलित कराधान प्रणाली के समान ही है। अर्थशास्त्र में दिए गए अनुसार, प्रत्येक कर निर्दिष्ट था और मोल-भाव की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रत्येक भुगतान की अनुसूची में स्पष्टता थी और इसका समय, तरीका और मात्रा आदि सभी पूर्व निर्धारित थे। भू-राजस्व, उपज का छठा हिस्सा नियत था और आयात व निर्यात शुल्क यथामूल्य आधार पर निर्धारित था। विदेशी माल पर आयात शुल्क, उनके मूल्य का लगभग 20 प्रतिशत था। इसी तरह से टोल, सड़क उपकर, नौका-शुल्क और अन्य लेवी आदि सभी तय थे। कौटिल्य के कराधान की अवधारणा, कराधान की आधुनिक प्रणाली के लगभग समान थी। इस प्रणाली में कराधान में समानता और न्याय पर बल दिया गया था। अमीर व्यक्तियों को कम अमीर व्यक्तियों की तुलना में उच्च करों का भुगतान करना होता था। बीमारियों से पीड़ित व्यक्तियों या नाबालिगों और छात्रों को करों से छूट प्राप्त थी या उपयुक्त से छूट दी गई थी। राजस्व संग्रहकों द्वारा संग्रहण और छूट के अद्यतन रिकॉर्ड तैयार किए गए थे। राज्य के कुल राजस्व को, ऊपर दिए गए अनुसार, अनेक स्रोतों से एकत्र किया जाता था। अन्य स्रोतों से एकत्रित किए जाने वाले अन्य कर भी थे जिनमें टिकाउ भूमि से (सीता), धार्मिक कर (बाली) और नकद प्रदत्त कर (कार) शामिल थे। सड़कों और यातायात पर टोल कर के रूप में प्राप्त आय वणिकपथ भी था।
उसने भू-राजस्व और वाणिज्य पर करों को कर राजस्व के तहत रखा। ये कर नियत थे और इन में भद्र, पडिक तथा वसन्तिका छमाही कर शामिल थे। सीमा शुल्क और बिक्री कर, व्यापार और व्यवसाय पर कर तथा प्रत्यक्ष कर, वाणिज्य पर करों में शामिल थे। बोई गई भूमि की उपज, तेल, गन्ना और पेय पदार्थों के निर्माण से होने वाला राज्य का लाभ और शासन द्वारा किए जाने वाले अन्य लेनदेन, गैर-कर राजस्व में शामिल थे। शादी के मौकों पर उपयोग की गई वस्तुओं, बलि समारोहों के लिए आवश्यक वस्तुओं और विशेष प्रकार के उपहारों पर कराधान से छूट प्राप्त थी। सभी प्रकार की शराब पर 5 प्रतिशत टोल लगाया जाता था। कर चोरों और अन्य अपराधियों पर 600 पणों तक का जुर्माना किया जाता था।
कौटिल्य ने यह भी निर्धारित किया था युद्ध या अकाल या बाढ़ आदि जैसी आपात स्थिति में, कराधान प्रणाली को और अधिक कड़ा किया जाना चाहिए और राजा भी युद्ध हेतु ऋण ले सकता है। आपात स्थिति के दौरान भू-राजस्व को छठे हिस्से से बढ़ाकर चौथे हिस्से तक किया जा सकता है। युद्ध के लिए, वाणिज्य में लगे लोगों को अधिक राशि का भुगतान करना होता था।
समग्र दृष्टिकोण पर विचार करने के बाद कहा जा सकता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, इस देश में सार्वजनिक वित्त, प्रशासन और राजकोषीय कानूनों पर पहली बार आधिकारिक रूप से विषय वस्तु, बिना किसी विरोधाभास के प्रस्तुत की गई थी। कर-राजस्व और कर-राजस्व की उसकी अवधारणा, कर प्रशासन के क्षेत्र में एक अद्वितीय योगदान थी। यह कौटिल्य ही था जिसने शासन को चलाने में कर राजस्व को उचित स्थान दिया और साम्राज्य की समृद्धि और स्थिरता के लिए दूरगामी योगदान को प्रस्तुत किया।
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