"कजली तीज": अवतरणों में अंतर

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[[श्रेणी:भारत के त्योहार]]
[[श्रेणी:हिंदू त्योहार]]
KAJALI TEEJ KA ITIHASH
 
मेले की बात भी निराली है। है और इसका इतिहास रहा है।
 
बूंदी में तीज मेला प्रारम्भ होने की भी एक आकर्षक घटना है। बूंदी रियासत में गोठडा के ठाकुर बलवंत सिंह पसेस इरादे वाले जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। एक बार अपने किसी मित्र के कहने पर की जयपुर में तीज भव्य सवारी निकलती है, अगर अपने यहाँ भी निकले तो शान की बात रही। कहने वाले साथी ने तो यह बात सहज में कह दी पर ठाकुर बलवंत सिंह के दिल में टीस-सी लग गई। उन्होंने जयपुर की उसी तीज को जीत कर लाने का मन बना लिया। ठाकुर अपनेवेन विश्वनीय जांबाज सैनिक को लेकर सावन की तीज पर जयपुराइडिंग स्थल पहुंच गए।
 
निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए और तभी से तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।
 
सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।
 
दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने वालों की भीड़ उमड़ती थी।
 
स्वतन्त्रता के बाद भी तीज की सवारी निकालने की परम्परा बनी हुई है। अब दो दिव्य तीज सवारी निकालने का दायित्व नगर परिषद उठा रहा है। राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा को नगरपालिका को नहीं दिए जाने से तीज की दूसरी प्रतिमा निर्मित करा कर प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की तृतीया को तीज सवारी निकालने की स्वस्थ सांस्कृतिक परम्परा बनी हुई है।
 
यघपि कुछ समय तक राजघराने की तीज भी राजमहलों के अंदर ही निकलती रही है लेकिन कालांतर में सीमित दायरे में तीज की सवारी का निकलना बंद हो गया है। केवल नगर परिषद द्वारा निकाली जा रही तीज माता की सवारी ही आम जनता के दर्शनार्थ निकली जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से जिला प्रशासन के विशेष अनुरोध और आश्वासन के बाद राजघराने की तीज भी अब तीजड़ों में निकाली जा रही है।
 
सभी को पार्वतीजी स्वरूप कजली तीज माता का आशीर्वाद मिलता रहा।
 
श्रेणियाँ: संस्कृति , फोटो , टोंक विशेष , न्यूज़
 
टैग्स: राजस्थान , राजस्थान में इतिहास KAJLI TEEJ
 
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की बात भी निराली है। है और इसका इतिहास रहा है।
 
बूंदी में तीज मेला प्रारम्भ होने की भी एक आकर्षक घटना है। बूंदी रियासत में गोठडा के ठाकुर बलवंत सिंह पसेस इरादे वाले जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत थे। एक बार अपने किसी मित्र के कहने पर की जयपुर में तीज भव्य सवारी निकलती है, अगर अपने यहाँ भी निकले तो शान की बात रही। कहने वाले साथी ने तो यह बात सहज में कह दी पर ठाकुर बलवंत सिंह के दिल में टीस-सी लग गई। उन्होंने जयपुर की उसी तीज को जीत कर लाने का मन बना लिया। ठाकुर अपनेवेन विश्वनीय जांबाज सैनिक को लेकर सावन की तीज पर जयपुराइडिंग स्थल पहुंच गए।
 
निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जयपुर के चहल-पहल वाले मैदान से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीकों से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए और तभी से तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी। ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और केवल से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिए शाही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया गया था।
 
सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झील के सुंदरघाट से तीजाइड प्रमुख रेस्तरां से होती हुई रानी जी की बावड़ी तक जाती थी। वहाँ पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएँ अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानित किया जाता था और प्रशिक्षण का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।
 
दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने वालों की भीड़ उमड़ती थी।
 
स्वतन्त्रता के बाद भी तीज की सवारी निकालने की परम्परा बनी हुई है। अब दो दिव्य तीज सवारी निकालने का दायित्व नगर परिषद उठा रहा है। राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा को नगरपालिका को नहीं दिए जाने से तीज की दूसरी प्रतिमा निर्मित करा कर प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की तृतीया को तीज सवारी निकालने की स्वस्थ सांस्कृतिक परम्परा बनी हुई है।
 
यघपि कुछ समय तक राजघराने की तीज भी राजमहलों के अंदर ही निकलती रही है लेकिन कालांतर में सीमित दायरे में तीज की सवारी का निकलना बंद हो गया है। केवल नगर परिषद द्वारा निकाली जा रही तीज माता की सवारी ही आम जनता के दर्शनार्थ निकली जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से जिला प्रशासन के विशेष अनुरोध और आश्वासन के बाद राजघराने की तीज भी अब तीजड़ों में निकाली जा रही है।
 
सभी को पार्वतीजी स्वरूप कजली तीज माता का आशीर्वाद मिलता रहा।
 
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टैग्स: राजस्थान , राजस्थान में इतिहास KAJLI TEEJमेले की बात भी निराली है। है और इसका इतिहास रहा है।[https://web.archive.org/web/20190818131904/http://www.khabarplus.in/tag/rajasthan/]
 
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