"देवदासी": अवतरणों में अंतर

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{{विकिफ़ाइ|date=दिसम्बर 2015देवदासी प्रथा का सच2015}}
अजेष्ठ त्रिपाठी
18 NOV 2017
कुछ प्रथाओं को लेकर जनमानस के मन मे ऐसा मतिभ्रम उत्पन्न कर दिया गया है कि, विधर्मियो के सवाल पे वो जानकारी न होने पे चुप्पी साध जाते हैं, और हिंदुत्व को लेकर उनके मन मे एक कुंठा व्याप्त हो जाती है ऐसी ही एक प्रथा है – देवदासी प्रथा.
 
ये ‘देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा है। भारत के कुछ क्षेत्रों में खास कर दक्षिण भारत में महिलाओं को धर्म और आस्था के नाम पर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेला गया। सामाजिक-पारिवारिक दबाव के चलते ये महिलाएं इस धार्मिक कुरीति का हिस्सा बनने को मजबूर हुर्इं। देवदासी प्रथा के अंतर्गत कोई भी महिला मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गर्इं। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। देवदासी प्रथा को लेकर कई गैर-सरकारी संगठन अपना विरोध दर्ज कराते रहे। सामान्य सामाजिक अवधारणा में देवदासी ऐसी स्त्रियों को कहते हैं, जिनका विवाह मंदिर या अन्य किसी धार्मिक प्रतिष्ठान से कर दिया जाता है। उनका काम मंदिरों की देखभाल तथा नृत्य तथा संगीत सीखना होता है। पहले समाज में इनका उच्च स्थान प्राप्त होता था, बाद में हालात बदतर हो गये। इन्हें मनोरंजन की एक वस्तु समझा जाने लगा। देवदासियां परंपरागत रूप से वे ब्रह्मचारी होती हैं, पर अब उन्हे पुरुषों से संभोग का अधिकार भी रहता है। यह एक अनुचित और गलत सामाजिक प्रथा है। इसका प्रचलन दक्षिण भारत में प्रधान रूप से था। बीसवीं सदी में देवदासियों की स्थिति में कुछ परिवर्तन आया। अँगरेज़ ने देवदासी प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की तो लोगों ने इसका विरोध किया। इसलिए शायद भारतभूमि पर हुए अनेक विद्वान एवं बुद्धिजीवी जातिवाद के कट्टर विरोधी रहे है जिनमे डॉ आंबेडकर जैसे महान समाजवादी भी शामिल हैं। भारत को अपने इतिहास से बहुत कुछ सिखने की जरूरत है।
माना जाता है कि ये प्रथा छठी सदी में शुरू हुई थी. इस प्रथा के तहत कुंवारी लड़कियों को धर्म के नाम पर ईश्वर के साथ ब्याह कराकर मंदिरों को दान कर दिया जाता था.
 
माता-पिता अपनी बेटी का विवाह देवता या मंदिर के साथ कर देते थे. परिवारों द्वारा कोई मुराद पूरी होने के बाद ऐसा किया जाता था.
 
देवता से ब्याही इन महिलाओं को ही देवदासी कहा जाता है. उन्हें जीवनभर इसी तरह रहना पड़ता था.
 
मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी देवदासी का उल्लेख मिलता है. देवदासी यानी ‘सर्वेंट ऑफ़ गॉड’.
 
देवदासियां मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ की तैयारी, मंदिरों में नृत्य आदि के लिए थीं. कालिदास के ‘मेघदूतम्’ में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंवारी कन्याओं की चर्चा की है. संभवत: इन्हें देवदासियां ही माना जाता है.
 
देवदासी प्रथा का सच
ऐसा माना जाता रहा है कि ये प्रथा व्यभिचार का कारण बन गयी, और मंदिर के पुजारी इन देवदासियों का शोषण करते थे, और सिर्फ वही नहीं अन्य लोग जो विशेष अतिथि होते थे या मंदिर से जुड़े होते थे वो भी इन देवदासियों का शारीरिक शोषण करते थे.
 
लेकिन ऐसा नही है, कैसे और क्यों आइये आपको अवगत कराते हैं —
 
देवदासियों का मुख्य कार्य था मंदिर की साफ सफाई, उसका रख रखाव दीप प्रज्वलन, पवित्र ढंग से रहते हुए मंदिर के सभी कर्म करना. इनका वर्गीकरण होता था और प्राचीन हिन्दू वैदिक शास्त्रों के अनुसार इन्हें 7 वर्ग में विभाजित किया गया है —
 
1.दत्ता – जो मंदिर में भक्ति हेतु स्वतः अर्पित हो जाती थी. इन्हें देवी का दर्जा दिया जाता था और इन्हें मंदिर के सभी मुख्य कर्म करने की अनुमति होती थी.
 
2. विक्रिता – जो खुद को सेवा के लिए मंदिर प्रशासन को बेच देता था, इन्हें सेवा के लिए लिया जाता था अतः इनका काम साफ सफाई आदि का होता था. ये पूजनीय नहीं होती थीं, ये बस मंदिर की श्रमिक होती थीं.
 
3. भृत्या – जो खुद के परिवार के भरण पोषण के लिए मंदिर में दासी का कार्य करती थीं. इनका कार्य नृत्य आदि करके अपना पालन पोषण करना होता था.
 
4. भक्ता – जो सेवा भाव में पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भी मंदिर में देवदासी का कार्य करती थीं. ये मंदिर के समस्त कर्मों को करने के लिए होती थीं.
 
5. हृता – जिनका दूसरे राज्यों से हरण करके मंदिर को दान कर दिया जाता था. इनको मंदिर प्रशासन अपनी सुविधा अनुसार कर्म कराता था इनकी गणना थी तो देवदासियों में परंतु वास्तव में ये गुलाम थे.
 
6. अलंकारा – राजा और प्रभावशाली लोग जिन कन्याओ को इसके योग्य समझते थे उसे मंदिर प्रशासन को देवदासी बना कर दे देते थे. ये उन राजाओं और प्रभावशाली व्यक्तिओं का मंदिर को दिया गया उपहार होती थीं.
 
7. नागरी – ये मुख्यतः विधवाओं, वैश्याओं और दोषी होते थे जो मंदिर की शरण में आ जाते थे. जिन्हें बस मंदिर से भोजन और आश्रय की जरूरत थी बदले में ये मंदिर प्रशासन का दिया कोई भी कार्य कर देते थे.
 
मुख्यतः दत्ता, भक्ता और अलंकारा ही मंदिर की देवदासियां होती थीं जबकि नागरी, हृता, बिक्रीता और भृत्या अपने स्वार्थ के लिए मंदिर से जुड़ती थी और जहाँ मुख्य देवदासियों को श्रद्धा और भक्ति से देखा जाता था वहीं इन चारों को हेय दृष्टि से.
 
मुख्य देवदासियां (दत्ता, भक्ता, अलंकारा) को खाने आदि की कमी नहीं होती थीं तो इन्हें कोई गलत कर्म नहीं करना पड़ता था जबकि गौड़ देवदासियों को अपने जीवन यापन के लिए अन्य कर्म भी करने पड़ते थे जिसमें गलत कर्म (वेश्यावृत्ति) भी थे.
 
गौड़ देवदासियों के इन्हीं व्यवहार को प्रचारित किया गया और ये कहा गया कि सभी देवदासियों का शोषण होता है जिसका मंदिर प्रशासन ये पुजारी फायदा उठाते हैं जबकि ये गौड़ दासियों द्वारा स्वार्थ के लिए मजबूर किया जाता था.
 
कहीं कहीं उल्लेख मिलता है कि राजा इन देवदासियों का इस्तेमाल दूसरे राज्य के राजाओं की हत्या में भी इतेमाल करते थे । ये कर्म हृता द्वारा किया जाता था(कौटिल्य अर्थशास्त्र)
 
मुगलकाल में ज्यादातर लोग अपनी कन्याओं को मंदिर में दान करने लगे और जब राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गयी (मुख्य तीनों को छोड़कर) जिन्हें अपने पालन पोषण के लिए वैश्यावृत्ति तक करनी पड़ी. और यही प्रचारित और प्रसारित किया गया.
 
विशेष
अक्सर आपने कथित दलित मसीहाओं को ये कहते हुए सुना होगा कि देवदासी प्रथा में दलितों का शोषण होता आया है. उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि देवदासी प्रथा के अंतर्गत ऊंची जाति की महिलाएं ही मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं. इसमें दलितों के शोषण की बात भ्रामक है.
 
फिलहाल ये प्रथाएं बंद हो चुकी है मैं इन प्रथाओं का विरोध करता हूँ, इन प्रथाओं की आड़ में किसी के धर्म का मजाक उड़ाना (जबकि इसकी सत्यता तक आपको नहीं पता) कहाँ तक उचित है.
 
#Sources – Parker, M. Kunal. July, 1998. “A Corporation of Superior Prostitutes’ Anglo- Indian Legal Conceptions of Temple Dancing Girls, 1800- 1914.”. Modern Asian Studies. Vol. 32. No. 3. p. 559.
2. Saskia C. Kersenboom- Story. 1987. . Nityasumangali. Delhi: Motilal Banarsidas. p. XV.
3. Tarachand, K.C. 1991. Devadasi Custom: Rural Social Structure and Flesh Markets. New Delhi: Reliance Publishing House. p. 1.
4. Ibid.,
5. Singh, A.K. 1990. Devadasis System in Ancient India. Delhi: H.K. Publishers and Distributors. p. 13.
6. Orr, Leslie. C. 2000. Donors, Devotees and Daughters of God: Temple Women in Medieval Tamilnadu. Oxford: Oxford University Press. p. 5.
7. Farquhar, J.N. 1914 (Rpt. 1967). Modern Religious Movements in India. New Delhi: Munshiram Manoharlal. pp. 408- 409.
8. Thurston, Edgar and K, Rangachari. 1987 (Rpt. 1909). Castes and Tribes of Southern India. Vol. II- C to J. New Delhi: Asian Educational Services. pp. 125- 126.}}
 
ये ‘देवदासी’ एक हिन्दू धर्म की प्राचीन प्रथा है। देवदासी प्रथा के अंतर्गत कोई भी महिला मंदिर में खुद को समर्पित करके देवता की सेवा करती थीं। देवता को खुश करने के लिए मंदिरों में नाचती थीं। यह समर्पण एक पोट्टुकट्टु समारोह में हुआ जो कुछ हद तक एक विवाह समारोह के समान था। मंदिर की देखभाल करने और अनुष्ठान करने के अलावा, इन महिलाओं ने भरतनाट्यम, कुचिपुड़ी और ओडिसी नृत्य जैसी शास्त्रीय भारतीय कलात्मक परंपराओं को भी सीखा और अभ्यास किया। उनकी सामाजिक स्थिति उच्च थी क्योंकि नृत्य और संगीत मंदिर पूजा का एक अनिवार्य हिस्सा थे। देवदासियाँ बनने के बाद, युवा महिलाएँ धार्मिक संस्कार, अनुष्ठान और नृत्य सीखने में अपना समय बिताती हैं। वे कभी-कभी उच्च अधिकारियों या पुजारियों के साथ बच्चे होते थे जो उन्हें संगीत और नृत्य में निर्देश देते थे। देवदासी समुदाय के जाने-माने लोगों में भारत रत्न प्राप्तकर्ता एम एस सुब्बालक्ष्मी और पद्म विभूषण प्राप्तकर्ता बालासरस्वती शामिल हैं। इस प्रथा में शामिल महिलाओं के साथ मंदिर के पुजारियों ने यह कहकर शारीरिक संबंध बनाने शुरू कर दिए कि इससे उनके और भगवान के बीच संपर्क स्थापित होता है। धीरे-धीरे यह उनका अधिकार बन गया, जिसको सामाजिक स्वीकायर्ता भी मिल गई। उसके बाद राजाओं ने अपने महलों में देवदासियां रखने का चलन शुरू किया। मुगलकाल में, जबकि राजाओं ने महसूस किया कि इतनी संख्या में देवदासियों का पालन-पोषण करना उनके वश में नहीं है, तो देवदासियां सार्वजनिक संपत्ति बन गई। कर्नाटक के 10 और आंध्र प्रदेश के 14 जिलों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है, जबकि देवदासी प्रणाली को 1988 में पूरे भारत में औपचारिक रूप से रद्द कर दिया गया था।
देवदासियाँ बनने के बाद, युवा महिलाएँ धार्मिक संस्कार, अनुष्ठान और नृत्य सीखने में अपना समय बिताती हैं। वे कभी-कभी उच्च अधिकारियों या पुजारियों के साथ बच्चे होते थे जो उन्हें संगीत और नृत्य में निर्देश देते थे। देवदासी समुदाय के जाने-माने लोगों में भारत रत्न प्राप्तकर्ता एम एस सुब्बालक्ष्मी और पद्म विभूषण प्राप्तकर्ता बालासरस्वती शामिल हैं।
 
=== <big>इतिहास</big> ===
 
मंदिर की पूजा के नियम, या (आगम) के अनुसार, नृत्य और संगीत मंदिर के देवताओं के लिए दैनिक पूजा की आवश्यक सामग्री है। देवदासियों को विभिन्न स्थानीय शब्दों से जाना जाता है जैसे कर्नाटक में बसिवी, महाराष्ट्र में मातंगी, और गोवा में भाविन और कलावंतिन। देवदासियों को जोगिनी, वेंकटासनी, नेलिस, मुरली और थेरडियन के रूप में भी जाना जाता था। भरतनाट्यम करने वाले अय्यर समुदायों के देवदासी भी थे। "देवदासी के अनुसार स्वयं एक देवदासी 'जीवन जीने का तरीका' या 'पेशेवर नैतिकता' है, लेकिन देवदासी जाति (उपजाति) नहीं है। बाद में, देवदासी का कार्य वंशानुगत हो गया, लेकिन इसने उसे सम्मानित नहीं किया।
 
== <big>प्राचीन और मध्यकाल</big> ==
 
देवदासी प्रथा की निश्चित उत्पत्ति अज्ञात है। देवदासी का पहला ज्ञात उल्लेख आम्रपाली नाम की एक लड़की का है, जिसे बुद्ध के समय राजा द्वारा नगरवधू घोषित किया गया था। अल्तेकर कहते हैं कि, "मंदिरों में लड़कियों के साथ नृत्य करने की परंपरा जातक साहित्य के लिए अज्ञात है। ग्रीक लेखकों द्वारा इसका उल्लेख नहीं किया गया है
कहा जाता है कि मंदिरों में लड़कियों के नाचने की परंपरा तीसरी शताब्दी ईस्वी के दौरान विकसित हुई थी। गुप्ता साम्राज्य के एक शास्त्रीय कवि और संस्कृत लेखक, कालिदास की मेघदत्ता में नाचने वाली लड़कियों का उल्लेख मिलता है। 11 वीं शताब्दी के एक शिलालेख से पता चलता है कि दक्षिण भारत के तंजौर मंदिर से 400 देवदासी जुड़ी थीं। इसी तरह, गुजरात के सोमेश्वर मंदिर में 500 देवदासी थीं। 6 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच, देवदासी समाज में एक उच्च पद और प्रतिष्ठा थी और असाधारण रूप से संपन्न थे क्योंकि उन्हें संगीत और नृत्य के रक्षक के रूप में देखा जाता था। इस अवधि के दौरान शाही संरक्षकों ने उन्हें भूमि, संपत्ति और आभूषण के उपहार प्रदान किए।