"विद्युत": अवतरणों में अंतर

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ईसा से लगभग ६०० वर्ष पूर्व यूनान निवासी [[थेलीज़]] इस बात से परिचित थे कि कुछ वस्तुएँ रगड़ने के पश्चात हलकी वस्तुओं को आकर्षित करती हैं। इसका उल्लेख [[थीआफ्रैस्टस]] (Theophrastus) ने ३२१ ई.पू. में तथा प्लिनि (Pliny) ने सन् ७० में किया था। इस आकर्षण शक्ति का अध्ययन १६ वीं शताब्दी में [[विलियम गिलबर्ट]] (१५४०-१६०३ ई.) द्वारा हुआ तथा उन्होंने इसे 'इलेक्ट्रिक' कहा। आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग [[यूनानी भाषा]] में [[अंबर]] के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् १६५० में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय [[राबर्ट बायल]] (१६२७-१६९१ ई.) ने पता लगाया कि आवेशित वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है। सन् १७२९ में स्टीफ़न ग्रे (Stephen Gray, सन् १६९६-१७३६) ने अपने प्रयोगों के आधार पर कहा कि यह आकर्षण शक्ति किसी वस्तु के एक भाग से दूसरे भाग को संचारित की जा सकती है। ऐसी वस्तुओं को देसाग्युलियर्स (Desaguliers, १६८३-१७४४) ने 'चालक' (Conductor) कहा। सभी प्रकार की [[धातु]]एँ इस श्रेणी में आती हैं। वे वस्तुएँ जिनमें इस शक्ति को संचारित नहीं किया जा सकता, विद्युतरोधी (Insulator) कहलाती हैं। इस श्रेणी में अंबर, मोम, सूखी हवा, सूखा काँच, रबर, लाख इत्यादि हैं।
 
वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे। सन् १७३७ में डूफे (Du Fay, १६९९-१७३९) ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं। १७४५ में क्लाइस्ट (Kleist) ने क्यूमिन (Kummin) में, मसेनब्रूक (Musschen brock) ने लाइडेन (Leyden) में, तथा विलियम वाटसन (William Watson) ने [[लंदन]] में कहा कि विद्युत का संचय भी किया जा सकता है, इनके प्रयोगों तथा विचारों ने प्रसिद्ध संचायक लीडेन जार (Leydenjar) को जन्म दिया। लगभग इसी समय विद्युत को पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करने के प्रयत्न भी जारी थे तथा विभिन्न प्रकार के विद्युत यंत्रों का आविष्कार हुआ। विलिय वटसन का विचार था कि विद्युत एक प्रकार का प्रत्यास्थ तरल (Elastic fluid) होती है जो प्रत्येक वस्तु में विद्यमान होती है। आवेशविहीन वस्तुओं में यह साधारण मात्रा में होती है अत: इसका निरीक्षण नहीं किया जा सकता। वाटसन के तरल सिद्धांत के अनुसार विद्युत एक वस्तु से दूसरी वस्तु में चली जाती है। अमरीकी वैज्ञानिक तथा राजनीतिज्ञ [[बेंजामिन फ्रैंकलिन]] (Benjamin Franklin, सन् १७०६-१७९०) ने इस सिद्धांत का समर्थन कर, विस्तार किया। फ्रैंकलिन ने कहा कि विद्युत न तो उत्पन्न की जा सकती है, न नष्ट ही। फ्रैंकलिन ने लीडेन जार का अध्ययन कर उसकी क्रिया को समझाने की चेष्टा की। पर फ्रैंकलिन का सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण वह प्रयोग था, सिसमेंजिसमें उन्होंने सिद्ध किया कि [[बादल|मेघों]] से मेघगर्जन के समय विद्युत तथा साधारण विद्युत के गुण समान हैं। उन्होंने यह भी कहा कि विद्युत के कण एक दूसरे पर बल डालते हैं।
 
फ्रैंकलिन के पश्चात एपीनुस (Aepinus, सन् १७२४-१८०२) ने इन विचारों को लिया तथा इसका आभास दिया कि दो वस्तुओं का बल उनके बीच की दूरी बढ़ाने पर घट जाता है। इस सिद्धांत का विस्तार जाजेफ प्रीस्टलि (Joseph Priestley, सन् १७३३-१८०४) तथा हेनरी कैवेंडिश (Hernry Cavendish, सन् १७३१-१८१०) ने किया। फिर कूलॉम (Coulomb, सन् १७३६-१८०६) ने खोज की कि दो आवेशों के बीच का बल, उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युतक्रमानुपाती तथा आवेशों के गुणनफल के समानुपाती होता है। विद्युत का यह मूल नियम अब भी 'कूलॉम का बलनियम' कहा जाता है। सन् १८३७ में [[माइकल फैराडे]] (Faraday, सन् १७९१-१८६७) ने किन्हीं दो आवेशित वस्तुओं के बीच के विद्युत बल पर माध्यम के प्रभाव का अध्ययन किया तथा पता लगाया कि यदि माध्यम हवा के स्थान पर कोई और विद्युतरोधी हो तो विद्युत बल घट जाता है, विद्युत रोधी के इस गुण को उन्होंने 'विशिष्ट पारवैद्युतता' (Specific Inductive capacity) अथवा पराविद्युत (Dielectric) कहा। उन्होंने अपने बर्फ के बरतनवाले प्रसिद्ध प्रयोग (icepile experiment) द्वारा दर्शाया कि यदि किसी आवेशित चालक का एक बरतन में लाया जाए, तो बरतन के अंदर की ओर विजातीय आवेश प्रेरित होता है तथा बाहर की ओर सजातीय अवेश। फैराडे ने पराविद्युत का गहन अध्ययन किया तथा उनके विभिन्न प्रभावों को समझाने के लिए विद्युत बल रेखाओं का विचार उपस्थित किया तथा आवेशित वस्तुओं के बीच के खाली स्थान को 'क्षेत्र' कहा। फैराडे के क्षेत्र सिद्धांत को गणित की सहायता से गाउस (Gauss) ने आगे बढ़ाया।