"संस्कृत के प्राचीन एवं मध्यकालीन शब्दकोश": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) नया पृष्ठ: ==निघंटु : आर्यभाषा का प्रथम शब्दकोश == संस्कृत के पुरातनतम उपलब्... |
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
||
पंक्ति 39:
यह कोशग्रंथ मुख्यतः पर्यायवाची ही है । फिर भी तृतीय कांड के द्वार, जिसे हम आधुनिक पदावली में परिशिष्टांश कह सकते हैं, इस कोश की पूर्ण और व्यापक तथा उपयोगी बनाया गया है ।
==अमरकोशपरवर्ती काल के संस्कृत कोश==
अमरपरवर्ती काल में संस्कृत कोशों की अनेक विधाएँ लक्षित होती हैं -
*कुछ कोश मुख्यतः केवल नानार्थ कोश के रूप में हमारे सामने आते है,
*कुछ को समानार्थक शब्दकोश और
*कुछ को अशंतः पर्यायवाची कोश कह सकते हैं ।
इन विधाओं के अतिरिक्त ऐसे कोश भी मिलते हैं जिनमें क्रमशः एकाक्षर, द्वायक्षर, त्यक्षर और नानाक्षर शब्दों का योजनाबद्ध रूप से संकलन हुआ है । 'द्विरूप' कोश भी बने है ।
Line 47 ⟶ 52:
'अमरसिंह' के अनंतर कोशकारों और कोशग्रंथों पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है । पर्यायवाची कोश बहुत कुछ अमरकोश से प्रभाव ग्रहण कर लिखे गए । 'नानार्थ' या 'अनेकार्थ' कोश भी अमरकोश के नानार्थ वर्ग के आधार पर प्रायः बहुमुखी विस्तारमात्र रहे हैं । 'विश्वप्रकाश' कोश में अवश्य कुछ अधिक वैशिष्ट दिखाई देत है । वह विलक्षण 'नानार्थकोश' है जो अनेक अध्ययों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में एकाक्षर, द्वयक्षर आदि क्रम से सप्ताक्षर शब्दों तक का संकलन है । 'कैकक', 'कद्विक', आदि भी अध्यायों के नाम हैं । 'अमरकोश' की तरह ही शब्द के अंतिम वर्णानुसार कांत, खांत आदि रूप में शब्दों का अनुक्रम है । उनका 'शब्द—भेद—प्रकाशिका' नामक ग्रंथ भी वस्तुतः इसी का अन्य परिशिष्ट है । इसके चार अध्यायों में क्रमशः 'शब्दभेद', 'वकारभेद', 'ऊष्मभेद' और 'लिंगभेद' नामक चार विभिन्न भेद हैं । ऐतिहासिक क्रम से संस्कृत कोशों का निर्देश नीचे किया रहा हैः
शाश्वत का अनेकार्थसमुच्चय नामक नानार्थ कोश है । समय पूर्णतः निश्चित न होने पर भी ६०० ई० के आसपास के काल में इसकी रचना मानी जाती है । इसी को 'शाश्वतकोश' भी कहते हैं । 'अमरकोश' के संक्षिप्त नानार्थ वर्ग का यह विस्तार जान पड़ता है । ८०० अनुष्टुप' छंदों के इस कोश को छह भागो में विभक्त किया गया है । आद्य तीन भागों में क्रमबद्ध रूप से शब्द के अर्थ क्रम से चार चरणों (पूरे श्लोक), दो चरणों (आधे श्लोक), और एक चरण में दिए गए हैं ।
चौथे भाग में एक
[[भट्ठ हलायुध]] (समय लगभग १० वीं० शताब्धी ई०) के कोश का नाम 'अभिधानरत्नमाला' है, पर 'हलायुधकोश' नाम से यह अधिक प्रसिद्ध है । इसके पाँच कांड (स्वर, भूमि, पाताल, सामान्य और अनेकार्थ) हैं । प्रथम चार पर्यायवाची कांड हैं, पंचम में अनेकार्थक तथा अव्ययशब्द संगृहीत है । इसमें पूर्वकोशकारों के रूप में अमरदत्त, वरुरुचि, भागुरि और वोपालित के नाम उद्धृत है । रूपभेद से लिंग- बोधन की प्रक्रिया अपनाई गई है । ९०० श्लोकों के इस ग्रंथ पर अमरकोश का पर्याप्त प्रभाव जान पड़ता है । 'पिंगलसूत्र' की टीका के अतिरिक्त 'कविरहस्य' भी इनका रचित है जिसमें 'हलायुध' ने धातुओं के लट्लकार के भिन्न भिन्न रूपों का विशदीकरण भी किया है ।
[[यादवप्रकाश]] (समय १०५५ से १३३७ के मध्य) का वैजयंती
'''महेश्वर''' (११११ ई०) के दो कोश (१) विश्वप्रकाश और (२) शब्दभेदप्रकाश हैं । प्रथम नानार्थकोश है । जिसकी शब्दक्रम- यौजना अमरकोश के समान 'अंत्याक्षरानुसारी है । इसके अध्यायों में एकाक्षर से लेकर 'सप्ताक्षर' तक के शब्दों का क्रमिक संग्रह है । तदनसार 'कैकक' आदि अध्याय भी है । अंत में अव्यय भी संगृहीत हैं । 'स्त्री', 'पुम्' आदि शब्दों के द्वारों नहीं अपितु शब्दों की पुनरुक्ति द्वारा लिंगनिर्देश किया गया है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कोशकारों के नाम— भोगींद्र, कात्यायन, साहसांक, वाचस्पति, व्याडि, विश्वरूप, अमर, मंगल, शुभांग, शुभांक, गोपालित (वोपालित) और भागुरि—निर्दिष्ट हैं । इस कोश की प्रसिद्ध, अत्यंत शीघ्र हो गई थी क्योंकि 'सर्वानंद'और 'हेमचंद्र' ने इनका उल्लेख किया है । इसे 'विश्वकोश' भी अधिकतः कहा जाता हैं । शब्दभेदप्रकाशिका वस्तुतः विश्वप्रकाश का परिशिष्ट है जिसमें शब्दभेद, बकारभेद, लिंगभेद आदि हैं ।
मंख पंडित (१२ वीं शती ई०) का अनेकार्थ—१००७ श्लोकों का है और अमरकोश एवं विश्वरूपकोश के अनुकरण पर बना है । 'भागुरि', अमर, हलायुध, शाश्वत' और 'ध्नवंतरि के आधारग्रहण का उसमें संकेत है । शब्दक्रमयोजना अंत्याक्षरानुसारी है ।
'''अजयपाल''' (लगभग १२ वीं—१३ वी शती के बीच) के नानार्थसंग्रह नामक कोश में १७३० श्लोक हैं । से देखने से जान पड़ता है कि शाश्वतकोश या अनेकार्थसमुच्चय के आधार पर इसकी रचना की गई है । उन्हीं का अनुकरण भी उसमें आभासता है । प्रत्येक अध्याय के अंत में अव्यय शब्द है । धनंजय (ई० १२ वी० शताब्दी उत्तरार्ध के आसपास अनुमानित) की नाममाला नामक कोशकृति है । यह लगउकोश है । नाममाल नाम के अनेक कोशग्रंथ मिलते हैं । इसमें केवल २०० श्लोक हैं । कुछ पांडुलिपियों में नानार्थ शब्द नहीं है पर एक में तत्सबंद्ध ५० श्लोक हैं ।
'''पुरुषोत्तमदेव''' (समय ११५९ ई० के पूर्व) — संस्कृत में पाँच कोंशों के निर्माता माने गए हैं ।—(१) त्रिकांडकोश, (२) हारावली, (३) वर्णदेशन, (३) एकाक्षरकोश और (५) द्विरूपकोश । 'अमरोकश' के टीकाकार 'सर्वानद' ने अपनी टीका में इनके चार कोशों के वचन उदधृत किए हैं जिससे इनका महत्वपूर्ण कोशकर्तृत्व प्रकट हैं । ये बौद्ध वैयाकरण थे । 'भाषावृत्ति' इवकी प्रसिद्ध रचना है । इन्होंने 'वाचस्पति' के 'शब्दार्णव' 'व्याडि' की 'उत्पलिनी' 'विक्रमादित्य' के 'संसारवर्त' को अपना आधार घोषित किया है । 'आफ्रेक्त ग्रंथसूची में नौ अन्य (ब्याकरण और कोश के) ग्रंथों का पुरूषोत्तमदेव के नाम से संकेत मिलता है । इनकात्रिकांडकोश'—नाम से ही 'अमरकोश' का परिशिष्ट प्रतीत होता है । फलतः वहाँ अप्राप्त शब्दों का इसमें संकलन है । ('अमरकोश' से पूर्व का भी एक 'त्रीकांडकोश') बताया जाता है । पर उससे इसका संबंध नहीं जान पडता ।) इसमें अनेक छंद हैं और इसकी टीका भी हुई है । हारावली में पर्याय शब्दों और नानार्थ शब्दों के दो विभाग गै । श्लोकसंख्या २७० है । पर्यायवाची विभाग का तीन अध्यायों—(१) एकश्लोकात्मक (२) अर्धश्लोकात्मक तथा (३) पादात्मक—में उपविभाजन हुआ है । नानार्थ विभाग में भी—(१) अर्धश्लोक, (२) पादश्लोक और एक शब्द में दिए गए हैं । इसमें प्रायः विरलप्रयोग और अप्रसिद्ध शब्द हैं जबकि त्रिकांडकोश में प्रसिद्ध शब्द । ग्रंथकार की उक्ति के अनुसार १२ वर्षा में बड़े श्रम के साथ इसकी रचना की गई है । (१२) मास भी एक पाठ की अनुसार'। वर्णदेशना अपने ढंग का एक विचित्र और गद्यात्मक कोश है । देशभेद, रूढिभेद और भाषाभेद से ख, क्ष या ह, ड अथवा ह, घ, में होनेवाली भ्रांति का अनेक ग्रंथों के आधार पर निराकरण ही इसका उद्देश्य जान पड़ता है—'अंत्र' हि प्रयोगे बहुदश्वानां श्रुतिसाधारणमात्रेण गृहणातां खुरक्षुरप्रादौ खकराक्षकारयौः सिंहाशिंघानकादौ हकारघकारयौ..... तथः गौडा दिलिपि साधारण्याद् हिण्डीगुडोकेशादौ हकार—डकारयोः भ्रांतय उपजायन्तो । अतस्ताद्विवेचनाय क्वाचिद्धातुपरायणे धातुवृत्ति- पूजादिषु प्रव्यक्तलेखनेन प्रसिद्धी देशेन धातुप्रत्ययोणादिव्याख्यालेखनेन क्वचिदाप्तवंचनेन श्लेषादिदर्शनेन वर्णदेशनेमानभ्यते । (इंडिया आफित केटेलाग, पृ० २९४)। 'महाक्षपणक', 'महीधर' और 'वररुचि' के बनाए 'एकाक्षर' कोशों का समान 'पुरुषोत्तमदेव' ने भी एकाक्षर कोश बनाया जिसमें एक एक अक्षर के शब्द के अर्थ वर्णित हैं । द्विरूपकोश भी ७५ श्लोकों का लघुकोश है । नैषधकार 'श्रीहष' ने भी एक द्विरूपकोश लिखा था ।
'''केशवस्वामी''' (समय १२ वीं या १३ वीं शताब्दी) एक का नानार्थार्णध- संक्षेप को अपनी शैली के कारण बड़ा महत्व प्राप्त है । एक एक लिंग के एकाक्षर से षडक्षर तक के अनेकार्थक शब्दों का क्रमशः छह कांडों में संग्रह है और प्रत्येक कांड के भी क्रमशः स्त्रीलिंग, पुंल्लिंग, नपुंसकलिंग, वाच्यर्लिंग तथा नानालिंग पाँच पाँच अध्याय है । प्रत्येक अध्याय की शब्दानुक्रमयोजना में अकारादिवर्णक्रम की सरणि अपनाई गई है । 'अमरकोश' में अनुपलब्ध शब्द ही प्रायः इसमें संकलित है । ५८०० श्लोकसंख्यक इस बृहत्रनार्थकोश में कुछ बैदिक शब्दों का और ३० प्राचीन कोशकारों के नामों का निर्देश है ।
'''मेदिनिकर''' का समय लगभग १४ वी शताब्दी के आसापास या उससे कुछ पूर्ववती काल माना गया है । एक मत से ११७५ ई० के पूर्व भी इनका समय बताया जाता है । इनके कोश का नाम नानार्थशब्दकोश है । पर मेदिनिकोष नाम से वह अधिक विख्यात है । इसकी पद्धति और शैली पर 'विश्वकोश' की रचना का पर्याप्त प्रभाव है । उसके अनेक श्लोक भी यहाँ उदधुत् है । ग्रंथारंभ के परिभाषात्मक अंश पर 'अमरकोश' की इतनी गहरी छाप है कि इसमें 'अमरकोश' के श्लोक तक शब्दशः ले लिए गए हैं । इसमें कोई खास विशेषता नही है ।
मेदीनी के अनंतर के लघुकोश न तो बारबार उद्धृत् हुए है और न पूर्वकोशों के समान प्रमाणरूप में मान्य है । परंतु इनमें कुछ ऐसे प्राचीनतर और प्रामाणिक कोशों का उपयोग हुआ है जो आज उपलब्ध नहीं हैं अथवा और अशुद्ध रूप में अंशतः उपलब्ध हैं ।
*(१) 'जिनभद्र सुरि' का कोश है अपवर्गनाममाला— जिसका नाम 'पंचवर्गपरिहारनाममाला भी है । इनका काल संभवतः १२ वीं शताब्दी के आस पास है ।
*(२) 'शब्दरत्नप्रदीप'—संभवतः यह कल्याणमल्ल का शब्दरत्नप्रदीप नामक पाँच कांडोवाला कोश है । (समय लगभग १२९५ ई०)।
|