"ब्रजभाषा साहित्य": अवतरणों में अंतर

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पश्चिम में [[राजस्थान]] तो ब्रजभाषा शैलियों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में करता ही रहा। और भी पश्चिम में [[गुजरात]] और कच्छ तक ब्रजभाषा शैली समादृत थी। [[कच्छ]] के [[महाराव लखपत]] बड़े विद्याप्रेमी थे। ब्रजभाषा के प्रचार और प्रशिक्षण के लिए इन्होंने एक विद्यालय भी खोला था। इस प्रकार मध्यकाल में ब्रजभाषा का प्रसार ब्रज एवं उसके आसपास के प्रदेशों में ही नहीं, पूर्ववर्ती प्रदेशों में भी रहा। [[बंगाल]], [[महाराष्ट्र]], [[गुजरात]], काठियावाड़ एवं कच्छ आदि में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ हुई।
 
साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण [[महाराष्ट्र]] में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के अंत में [[महानुभाव सम्प्रदाय]] के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। [[गोकुल]] में [[बल्लभ सम्प्रदाय]] का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि [[सूरदास]] से आधुनिक काल के [[वियोगी हरि]] तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही। साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में [[तंजौर]] और [[केरल]] में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। [[सौराष्ट्र]] व [[कच्छ]] में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘[[ब्रजबुलि]]’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर [[मणिपुर]] तक हुआ।
 
 
 
 
 
साहित्यिक ब्रजभाषा के सबसे प्राचीनतम उपयोग का प्रमाण महाराष्ट्र में मिलता है। तेरहवीं शताब्दी के अंत में [[महानुभाव सम्प्रदाय]] के सन्त कवियों ने एक प्रकार की ब्रजभाषा का उपयोग किया। [[गोकुल]] में [[बल्लभ सम्प्रदाय]] का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि [[सूरदास]] से आधुनिक काल के [[वियोगी हरि]] तक ब्रजभाषा में प्रबन्ध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही। साहित्यिक ब्रजभाषा का विस्तार पूरे भारत में हुआ और अठारहवीं, उन्नीसवीं शताब्दी में दूर दक्षिण में [[तंजौर]] और [[केरल]] में ब्रजभाषा की कविता लिखी गई। [[सौराष्ट्र]] व [[कच्छ]] में ब्रजभाषा काव्य की पाठशाला चलायी गई, जो स्वाधीनता की प्राप्ति के कुछ दिनों बाद तक चलती रही थी। उधर पूरब में यद्यपि साहित्यिक ब्रज में तो नहीं साहित्यिक ब्रज रूपी स्थानीय भाषाओं में पद रचे जाते रहे। बंगाल और असम में इन भाषा को ‘[[ब्रजबुलि]]’ नाम दिया गया। इस ‘ब्रजबुली’ का प्रचार कीर्तन पदों में और दूर [[मणिपुर]] तक हुआ।
 
साहित्यिक ब्रजभाषा की कविता ही गढ़वाल, कांगड़ा, गुलेर बूंदी, मेवाड़, किशनगढ़ की [[चित्रकारी]] का आधार बनी और कुछ क्षेत्रों में तो चित्रकारों ने कविताएँ भी लिखीं। गढ़वाल के [[मोलाराम]] का नाम उल्लेखनीय है। [[गुरु गोविन्दसिंह]] के दरबार में ब्रजभाषा के कवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग था।
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गुजरात की आरंभिक रचनाओं में [[शौरसेनी]] अपभ्रंश की स्पष्ट छाया है। नरसी, केशवदास आदि कवियों की भाषा पर ब्रजभाषा का प्रभाव भी है और उन्होंने ब्रजी में काव्य रचना भी की है। [[हेमचंद्र]] के शौरसेनी के उदाहरणों की भाषा ब्रजभाषा की पूर्वपीठिका है। गुजरात के अनेक कवियों ने ब्रजभाषा अथवा ब्रजी मिश्रित भाषा में कविता की। भालण, केशवदास तथा अरवा आदि कवियों का नाम इस संबंध में उल्लेखनीय है। अष्टछापी कवि [[कृष्णदास]] भी गुजरात के ही थे। गुजरात में ब्रजभाषा कवियों की एक दीर्घ परम्परा है जो बीसवीं सदी तक चली आती है। इस प्रकार ब्रजभाषा, गुजराती कवियों के लिए 'निज-शैली' ही थी।
 
[[मालवा]] और गुजरात को एक साथ उल्लेख करने की परम्परा ब्रज के लोकसाहित्य में भी मिलती है।
 
=== बुन्देलखण्ड===