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[[चित्र:Nihâl Chand 001.jpg|अंगूठाकार|[[निहाल चन्द]] द्वारा १८वीं शताब्दी में चित्रित राजस्थानीी शैली काा चित्र शशश]]
'''राजपूतराजस्थान चित्रशैली''', [[भारतीय चित्रकला]] की प्रमुख शैली है। [[राजपूतोराजस्थान]] में लोक चित्रकला की समृद्धशाली परम्परा रही है। मुगल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूतो की उत्पत्ति हो गई, जिनमें [[मेवाड़]], [[बूंदी]], [[मालवा]] आदि मुख्य हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ। इन विभिन्न शैलियों में की विशेषताओं के कारण उन्हे '''राजपूतराजस्थान शैली''' का नाम प्रदान किया गया।
 
राजपूतराजस्थानी चित्रशैली का पहला वैज्ञानिक विभाजन [[आनन्द कुमार स्वामी]] ने किया था। उन्होंने 1916 में ‘राजपूत‘राजस्थान पेन्टिंग’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने राजपूतराजस्थान पेन्टिंग में [[पहाड़ी चित्रशैली]] को भी शामिल किया। इस शैली के अन्तर्गत केवल राजस्थान की चित्रकला को ही स्वीकार करते हैं। वस्तुतः राजस्थानी चित्रकला से तात्पर्य उस चित्रकला से है, जो इस प्रान्त की धरोहर है और पूर्व में [[राजस्थान ]]<nowiki/>में प्रचलित थी।
 
विभिन्न शैलियों एवं उपशैलियों में परिपोषित राजपूतराजस्थानी चित्रकला निश्चय ही भारतीय चित्रकला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। अन्य शैलियों से प्रभावित होने के उपरान्त भी राजपूतराजस्थानी चित्रकला की मौलिक अस्मिता है।
 
==विशेषताएँ==
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(3) राजस्थान की चित्रकला यहाँ के महलों, किलों, मंदिरों और हवेलियों में अधिक दिखाई देती है।
 
(4) राजपूतराजस्थानी चित्रकारों ने विभिन्न ऋतुओं का श्रृंगारिक चित्रण कर उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन किया है।
 
(5) मुगल काल से प्रभावित राजपूतराजस्थानी चित्रकला में राजकीय तड़क-भड़क, विलासिता, अन्तःपुर के दृश्य एवं झीने वस्त्रों का प्रदर्शन विशेष रूप से देखने को मिलता है।
 
(6) चित्र संयोजन में समग्रता के दर्शन होते हैं। चित्र में अंकित सभी वस्तुएँ विषय से सम्बन्धित रहती हैं और उसका अनिवार्य महत्त्व रहता है। इस प्रकार इन चित्रों में विषय-वस्तु एवं वातावरण का सन्तुलन बना रहता है। मुख्य आकृति एवं पृष्ठभूमि की समान महत्ता रहती है।
 
(7) राजपूतराजस्थानी चित्रकला में प्रकृति का मानवीकरण देखने को मिलता है। कलाकारों ने प्रकृति को जड़ न मानकर मानवीय सुख-दुःख से रागात्मक सम्बन्ध रखने वाली चेतन सत्ता माना है। चित्र में जो भाव नायक के मन में रहता है, उसी के अनुरूप प्रकृति को भी प्रतिबिम्बित किया गया है।
 
(8) मध्यकालीन राजपूतराजस्थानी चित्रकला का कलेवर प्राकृतिक सौन्दर्य के आँचल में रहने के कारण अधिक मनोरम हो गया है।
 
(9) मुगल दरबार की अपेक्षा राजस्थान के चित्रकारों को अधिक स्वतन्त्रता थी। यही कारण था कि राजस्थानी चित्रकला में आम जनजीवन तथा लोक विश्वासों को अधिक अभिव्यक्ति मिली।
 
(10) नारी सौन्दर्य को चित्रित करने में राजपूतराजस्थानी चित्रशैली के कलाकारों ने विशेष सजगता दिखाई है।
 
== राजपूतराजस्थानी शैली के प्रकार ==
[[चित्र:Rajasthani Painting.jpg|right|thumb|300px|राजपूतराजस्थानी चित्रकला]]
[[File:Mughal124.jpg|thumb|100px|राजपूतराजस्थानी पेंटिंग]]
भौगोलिक एवं सांस्कृतिक आधार पर राजपूतराजस्थानी चित्रकला को चार शैलियों में विभक्त कर सकते हैं। एक शैली में एक से अधिक उपशैलियाँ हैं-
 
* (1) '''मेवाड़ शैली''' - चावंड, उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़ आदि।
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===[[बूंदी शैली]]===
इस [[शैली]] का प्रारम्भ १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ था। अट्टालिकाओं के बाहर की ओर उभरे हुए गवाक्ष में से झाँकता हुआ नायक इसकी अपनी विशषता है। इसके चित्रकार सुरजन,अहमद अली,रामलाल आदि हैं।
 
==सन्दर्भ==
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