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''''== न्याय-विषयक राजनीतिक विचार ==
यह तय करना मानव-जाति के लिए हमेशा से एक समस्या रहा है कि न्याय का ठीक-ठीक अर्थ क्या होना चाहिए और लगभग सदैव उसकी व्याख्या समय के संदर्भ में की गई है। मोटे तौर पर उसका अर्थ यह रहा है कि अच्छा क्या है इसी के अनुसार इससे संबंधित मान्यता में फेर-बदल होता रहा है। जैसा कि डी.डी. रैफल का मत है-
:'न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।... वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।’<ref>डी.डी. रैफेल, प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉसफी, मैकमिलन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 165।</ref>
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रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोई मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव-निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राकृतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राकृतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे। अपनी कृति इन्स्टीच्यूट्स में जस्टिनियन तर्क-बुद्धि द्वारा विकसित या प्राप्त कानून तथा आम लोगों के कानून या आम कानून के बीच भेद किया।
 
फिर [[यूरोपीय धर्मसुधार|धर्म-सुधार आंदोलन]], [[पुनर्जागरण]] और [[औद्योगिक क्रांति]] तक [[यूरोप]] में इस क्षेत्र में कुछ खास नहीं हुआ। [[लॉक]], [[रूसो]] और कांट - जैसे विचारकों की दृष्टि में न्याय का मतलब [[स्वतन्त्रता|स्वतंत्रता]], [[समानता]] और कानून का मिश्रण था। प्रारंभिक उदारवादियों को सामंतवाद, निरंकुश राजतंत्र और जातिगत विशेषाधिकार अन्यायपूर्ण और इसलिए गैर-कानूनी प्रतीत हुए। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता और समानता के बिना न्याय का कोई मतलब नहीं था। उन्नीसवीं सदी के पूर्व तक न्याय की यही अभिधारणा प्रचलित रही और तब उदारवादी और समाजवादी अथवा मार्क्सवाद चिंतन-धाराओं के बीच असहमति का उदय हुआ। [[जेरेमी बेन्थम|बेंथम]] और [[मिल]] के [[उपयोगितावाद|उपयोगितावादी]] (यूटिलिटेरियन) सिद्धांत का बोलबाला हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार, जो-कुछ मानव-जाति के सुख या उपयोगिता की अधिकतम वृद्धि में सहायक था वही न्याय था। उनका मानना था कि समस्त प्रतिबंधों की अनुपस्थिति में सुख समाहित हैं, लेकिन तब [[समाजवाद|समाजवादी]] और [[मार्क्सवाद|मार्क्सवादी]] यह दलील लेकर सामने आए कि पूंजीवादी सांपत्तिक संबंधों से उत्पन्न गरीबी और असमानता के अतिरेक अन्यायपूर्ण हैं और उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। जहाँ तक उदारवादी चिंतन-धाराओं का संबंध है, प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों का न्याय-विषयक दृष्टिकोण ही बीसवीं सदी के मध्य तक उदारवादियों का मुख्य दृष्टिकोण था। परन्तु केंस की कल्पना के कल्याणकारी राज्यों के उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय की एक नई अभिधारणा का विकास करना आवश्यक हो गया। उस अभिधारणा की शायद सबसे अच्छी व्याख्या रॉल्स-कृत [[अ थिअरी ऑफ जस्टिस|ए थिओरी ऑफ जस्टिस]] (1971) में हुई है। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में नव-उदारवाद (नियो-लिबरेलिज़्म) तथा जिसे अमेरीका में लिबरटेरियेनिज़्म अर्थात् इच्छास्वातंत्रयवाद की संज्ञा दी गई है उसके उदय के साथ उदारवादी परंपरा में न्याय का एक और सिद्धांत उद्भूत हुआ। दरअसल देखें तो इच्छास्वातंत्रयवाद का मतलब (वैश्वीकरण तथा अंतर्राष्ट्रीय मुक्त बाजार के हक में दलील जुटाने के लिए किए गए उपयुक्त परिवर्तनों के साथ) मुक्त बाजार, न्यूनतम राज्य और स्वतंत्रता तथा संपत्ति के अविकल अधिकारों के हिमायती प्रारंभिक क्लासिकी उदारवादियों की न्याय की अभिधारणा की ओर लौटना था। यह है ‘न्याय का हकदारी सिद्धांत’ (‘इनटाइटलमेंट थिओरी ऑफ जस्टिस’), जिसे [[रॉबर्ट नॉजिक]] ने अपनी कृति 'एनार्की, स्टेट एंड यूटोपिया' में लोकप्रिय बनाया।''''
 
== सन्दर्भ ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/न्याय" से प्राप्त