"प्रतिहार राजपूत": अवतरणों में अंतर

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{{शीह-कारण|साफ धोखा। दो बार हटाए पृष्ठ को फिर बनाया। देखें [[विकिपीडिया:पृष्ठ हटाने हेतु चर्चा/लेख/प्रतिहार राजपूत]]}}
 
प्रतिहार वंश एक ऐसा वंश है जिसकी उत्पत्ति पर कई महान इतिहासकारों ने शोध किए जिनमे से कुछ अंग्रेज भी थे और वे अपनी सीमित मानसिक क्षमताओं तथा [[भारतीय समाज और संस्कृति|भारतीय समाज]] के ढांचे को न समझने के कारण इस वंश की उतपत्ति पर कई तरह के विरोधाभास उतपन्न कर गए। प्रतिहार एक शुद्ध [[क्षत्रिय|क्षत्रिय वंश]] है जिसने गुर्जरादेश से गुज्जरों को खदेड़ने व राज करने के कारण गुर्जरा सम्राट की भी उपाधि पाई।
 
[[File:Statue of Gurjar Samraat Mihir Bhoj Mahaan in Bharat Upvan ofAkshardham Mandir New Delhi.jpg|thumb|राजपूत सम्राट मिहिर भोज - प्रतिहार वंश के महान शाशक ]]
==इतिहास==
===उत्पत्ति===
{{Main|प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति}}
प्रतिहारों के साथ-साथ [[मंडोर के प्रतिहारों]] ने स्व-पदनाम "प्रतिहार" का उपयोग किया। उन्होंने महान नायक [[लक्ष्मण]] से वंश का दावा किया, जिन्हें [[संस्कृत]] महाकाव्य '' [[रामायण]] 'में राजा [[राम]] के भाई के रूप में वर्णित किया गया है। मंडोर प्रतिहार शासक बाकुका के 837 सीई जोधपुर शिलालेख में कहा गया है कि रामभद्र (राम) के छोटे भाई ने अपने बड़े भाई को 'प्रतिहारी' (द्वारपाल) के रूप में सेवा दी, जिसकी वजह से इस कबीले को प्रतिहार के नाम से जाना जाने लगा. सागर-ताल (ग्वालियर) प्रतिहार राजा का शिलालेख [[मिहिर भोज]] कहता है उस सौमित्रि ("[[सुमित्रा]] का पुत्र", यानी लक्ष्मण) ने अपने बड़े भाई के लिए एक द्वारपाल के रूप में काम किया क्योंकि उसने [[मेघनाद]] के साथ युद्ध में दुश्मनों को हराया था।{{sfn|Rama Shankar Tripathi|1959|p=223}}{{sfn|Baij Nath Puri|1957|p=7}}
 
[[अग्निवंश]] के अनुसार [[पृथ्वीराज रासो]] की पांडुलिपियों में दी गई कथा', प्रतिहार राजपूत और तीन अन्य [[राजपूत]] राजवंशों की उत्पत्ति [[माउंट आबू]] में एक बलि अग्नि-कुंड (अग्निकुंड) से हुई थी।
तथापि वार्मलता चावड़ा का वसंतगढ़ शिलालेख दिनांक 682 (625 ईस्वी), प्रतिहार वंश का सबसे प्राचीन है .वसंतगढ़ गाँव (पिंडवाड़ा तहसील, सिरोही) के इस शिलालेख में राजजिला और उनके पिता वज्रभट्ट सत्यश्रया(हरिचंद्र प्रतिहार) का वर्णन है, वे वर्मलता [[चावडा राजवंश|चावड़ा]] के जागीरदार थे और अरुणा-देसा से शासित थे <ref> Epigraphia Indica ,XVI ,pp. 183</ref> <ref> B.N. Puri,The History of the Gurjara-Pratiharas, p. 20 </ref>
 
[[क। ए। नीलकंठ शास्त्री]] ने सिद्ध किया कि प्रतिहारों के पूर्वजों ने [[राष्ट्रकूट]] एस की सेवा की, और "प्रतिहार" शब्द राष्ट्रकूट दरबार में उनके कार्यालय के शीर्षक से निकला है।<ref>{{cite book |author=Kallidaikurichi Aiyah Nilakanta Sastri |title=History of India |url=https://books.google.com/books?id=oychAAAAMAAJ |year=1953 |publisher=S. Viswanathan |page=194 }}</ref>
 
===प्रारंभिक शासक===
नागभट्ट नामक नवयुवक ने इस नये साम्राज्य की नींव रखी। संभवत है ये भडौच के प्रतिहार शासको का ही राजकुंवर था, जयभट्ट का पुत्र। भारत पर आक्रमण केवल पश्चिमोत्तर भूमि से किया जा सकता है। युद्धो की पूरी लम्बी श्रंखला थी जो सैकडो वर्षो तक प्रतिहारो और अरब आक्रान्ताओ के बीच चली। <ref>B.N. Puri, History of the Gurjara Pratiharas, Bombay, 1957</ref> <ref> P C Bagchi, India and Central Asia, Calcutta, 1965 </ref>
[[नागभट्ट प्रथम]] (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। [[आठवीं शताब्दी]] में भारत में [[अरबों का सिन्ध पर आक्रमण|अरबों का आक्रमण]] शुरू हो चुका था। <ref> K. M. Munshi, The Glory That Was Gurjara Desha (A.D. 550-1300), Bombay, 1955 </ref> सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर [[सिंध]] के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे [[मालवा]], जुर्ज और [[अवंती]] पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया। <ref>V. A. Smith, The Gurjaras of Rajputana and Kanauj, Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland, (Jan., 1909), pp.53-75</ref> <ref> V A Smith, The Oford History of India, IV Edition, Delhi, 1990 </ref> अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, [[ग्वालियर]], मालवा और गुजरात में [[भरूच जिला|भरूच]] के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने [[मालवा]] में [[अवंती]] ([[उज्जैन]]) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड १२, पेज १९७ से</ref><ref>इलियट और डाउसन, हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पृ० १ से १२६</ref> <ref> Dirk H A Kolff, Naukar Rajput Aur Sepoy, CUP, Cambridge, 1990 </ref>
 
===कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार===
[[हर्षवर्धन]] की मृत्यु के बाद [[कन्नौज]] को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद [[यशोवर्मन]] ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी [[ललितादित्य मुक्तपीड]] के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के [[पाल साम्राज्य]] और दक्षिण में दक्कन में आधारभूत [[राष्ट्रकूट साम्राज्य]] शामिल थे।<ref>{{cite book |last=चोपड़ा |first=प्राण नाथ |title=प्राचीन भारत का व्यापक इतिहास |language=en |url=https://books.google.com/books?id=gE7udqBkACwC&pg=PA194 |year=2003 |isbn=978-81-207-2503-4 |publisher=स्टर्लिंग पब्लिशर्स |pages=194–195 |access-date=11 जनवरी 2018 |archive-url=https://web.archive.org/web/20160519212306/https://books.google.com/books?id=gE7udqBkACwC&pg=PA194 |archive-date=19 मई 2016 |url-status=live }}</ref><ref>{{cite book |first1=हरमन |last1=कुलके |author1-link=हरमन कुलके |last2=रोदरमंड |first2=डायटमार |author2-link=डायटमार रोदरमंड |title=भारत का एक इतिहास |url=https://books.google.com/books?id=V73N8js5ZgAC&pg=PA114 |isbn=978-0-415-32920-0 |publisher=रूटलेज |origyear=1986 |year=2004 |edition=4था |page=114 |access-date=11 जनवरी 2018 |archive-url=https://web.archive.org/web/20160505094654/https://books.google.com/books?id=V73N8js5ZgAC&pg=PA114 |archive-date=5 मई 2016 |url-status=live }}</ref> वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक [[धर्मपाल]] और राष्ट्रकूट राजा [[दन्तिदुर्ग]] को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड ६, पेज २४८</ref><ref>एपिक इण्डिया खण्ड ६, पेज १२१, १२६</ref>
 
७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक [[ध्रुव धारवर्ष]] (७८०-७९३) [[नर्मदा नदी]] को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।<ref>राधनपुर अभिलेख, श्लोक ८</ref> वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश [[धर्मपाल]] ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।<ref name=":0" />
[[File:VarahaVishnuAvatarPratiharaKings850-900CE.jpg|thumb|150px| प्रतिहार के सिक्कों मे [[वराह]] (विष्णु अवतार), ८५०–९०० ई० [[ब्रिटिश संग्रहालय]]।]]
वत्सराज के बाद उसका पुत्र [[नागभट्ट द्वितीय]] (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक [[गोविन्द तृतीय]] (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, [[विदर्भ]] और [[कलिंग]] के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर [[कन्नौज]] पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने [[धर्मपाल]] को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, [[वत्स]] और [[मत्स्य राज|मत्स्य]] के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड १८, पेज १०८-११२, श्लोक ८ से ११</ref> [[चौहान वंश|शाकम्भरी के चाहमानों]] ने कन्नोज के प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।<ref>बही० जिल्द २, पृ० १२१-२६</ref> उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे ​​पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः अरबो को रोक दिया। उसने गुजरात में [[सोमनाथ मन्दिर|सोमनाथ के महान शिव मंदिर]] को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
 
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद<ref>चन्द्रपभसूरि कृत प्रभावकचरित्र, पृ० १७७, ७२५वाँ श्लोक</ref>, उसका पुत्र [[रामभद्र]] या राम प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे [[पाल साम्राज्य]] के [[देवपाल]] से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह प्रतीहारों से [[कलिंजर]] क्षेत्र लेने मे सफल रहा।
 
===प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष===
[[रामभद्र]] के बाद उसका पुत्र [[मिहिरभोज]] या भोज प्रथम ने प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल <ref>{{cite book |editor1-first=एस.आर. |editor1-last=बक्शी |editor2-first=एस. |editor2-last=गजरानी |editor3-first=हरी |editor3-last=सिंग |title=प्रारंभिक आर्यों से स्वराज |url=https://books.google.com/books?id=Ldo1QtQigosC&pg=PA319 |pages=319–320 |location=नई दिल्ली |publisher=सरुप एंड संस |year=2005 |isbn=81-7625-537-8 |access-date=11 दिसंबर 2015 |archive-url=https://web.archive.org/web/20160603221722/https://books.google.com/books?id=Ldo1QtQigosC&pg=PA319 |archive-date=3 जून 2016 |url-status=live }}</ref><ref>{{cite book|title=राजस्थान की नई छवि|publisher=सार्वजनिक संबंध निदेशालय, सरकार राजस्थान|year=1966|page=2}}</ref> बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में [[सतलुज नदी|सतुलज]], उत्तर में [[तराई क्षेत्र|हिमालय की तराई]], पूर्व में [[पाल साम्राज्य]] कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में [[बुन्देलखण्ड]] और [[वत्स]] की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में [[सौराष्ट्र]], तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय [[पालवंश]] का शासक [[देवपाल]] भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई।
 
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय [[अमोघवर्ष नृपतुंग|अमोघवर्ष]] और [[कृष्ण द्वितीय]] राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच [[नर्मदा नदी]] के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड़ १९, पृ० १७६ पं० ११-१२</ref> अवन्ति पर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से [[महेन्द्रपाल प्रथम|महेन्द्रपाल द्वितीय]] के शासनकाल तक चलता रहा। [[मिहिर भोज]] के बाद उसका पुत्र [[महेन्द्रपाल प्रथम]] ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने [[राजशेखर]] को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "[[कर्पूरमंजरी]]" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।
 
===पतन===
महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही [[महियाल|महिपाल प्रथम]] (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर [[परमार वंश|मालवा के परमार]], [[चन्देल|बुंदेलखंड के चन्देल]], [[कलचुरी|महाकोशल का कलचुरि]], [[तोमर वंश|हरियाणा के तोमर]] और [[चौहान वंश|चौहान]] स्वतंत्र होने लगे। [[राष्ट्रकूट वंश]] के दक्षिणी भारतीय सम्राट [[इन्द्र ३|इंद्र तृतीय]] (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में [[पाल साम्राज्य]] की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।
[https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF मनुस्मृति] में प्रतिहार,परिहार, पढ़ियार तीनों शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। परिहार एक तरह से [[क्षत्रिय]] शब्द का पर्यायवाची है। क्षत्रिय वंश की इस शाखा के मूल पुरूष [[राम|भगवान राम]] के भाई [[लक्ष्मण]] माने जाते हैं। लक्ष्मण का उपनाम, प्रतिहार, होने के कारण उनके वंशज प्रतिहार, कालांतर में परिहार कहलाएं। कुछ जगहों पर इन्हें [[अग्निवंशी]] बताया गया है, पर ये मूलतः [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6 सूर्यवंशी] हैं। [[पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्|पृथ्वीराज विजय,]] [[हरकेलि नाटक]], [[ललित विग्रह नाटक]], [[हम्मीर महाकाव्य पर्व]] (एक) [[मिहिर भोज]] की ग्वालियर प्रशस्ति में परिहार वंश को [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%B5%E0%A4%82%E0%A4%B6 सूर्यवंशी] ही लिखा गया है| लक्ष्मण के पुत्र [[अंगद]] जो कि कारापथ ([[राजस्थान]] एवं [[पंजाब (भारत)|पंजाब]]) के शासक थे, उन्ही के वंशज परिहार है। इस वंश की 126वीं पीढ़ी में [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE राजा हरिश्चन्द्र प्रतिहार] का उल्लेख मिलता है। इनकी दूसरी पत्नी भद्रा से चार पुत्र थे। जिन्होंने कुछ धनसंचय और एक सेना का संगठन कर अपने पूर्वजों का राज्य माडव्यपुर को जीत लिया और मंडोर राज्य का निर्माण किया, जिसका राजा रज्जिल बना। इसी का पौत्र [[नागभट्ट प्रथम|नागभट्ट प्रतिहार]] था, जो अदम्य साहसी,महात्वाकांक्षी और असाधारण योद्धा था। इस वंश में आगे चलकर कक्कुक राजा हुआ, जिसका राज्य [[पश्चिमी भारत|पश्चिम भारत]] में सबल रूप से उभरकर सामने आया। पर इस वंश में प्रथम उल्लेखनीय [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A5%E0%A4%AE राजा नागभट्ट प्रथम] है, जिसका राज्यकाल 730 से 760 माना जाता है। उसने जालौर को अपनी राजधानी बनाकर एक शक्तिशाली परिहार राज्य की नींव डाली। इसी समय अरबों ने सिंध प्रांत जीत लिया और मालवा और गुर्जरात्रा राज्यों पर आक्रमण कर दिया। नागभट्ट ने इन्हें सिर्फ रोका ही नहीं, इनके हाथ से सैंनधन,सुराष्ट्र, उज्जैन, मालवा भड़ौच आदि राज्यों को मुक्त करा लिया। 750 में अरबों ने पुनः संगठित होकर भारत पर हमला किया और भारत की पश्चिमी सीमा पर त्राहि-त्राहि मचा दी।
 
लेकिन नागभट्ट कुद्ध होकर गया और तीन हजार से ऊपर डाकुओं को मौत के घाट उतार दिया जिससे देश ने राहत की सांस ली। इसके बाद इसका पौत्र वत्सराज (775 से 800) उल्लेखनीय है, जिसने परिहार साम्राज्य का विस्तार किया।
 
उज्जैन के शासन भण्डि को पराजित कर उसे परिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया। उस समय भारत में तीन महाशक्तियां अस्तित्व में थी। परिहार साम्राज्य-उज्जैन राजा वत्सराज, 2 पाल साम्राज्य-गौड़ बंगाल राजा धर्मपाल, 3 राष्ट्रकूट साम्राज्य-दक्षिण भारत राजा धुरव ।
 
अंततः वत्सराज ने पाल धर्मपाल पर आक्रमण कर दिया और भयानक युद्ध में उसे पराजित कर अपनी अधीनता स्वीकार करने को विवश किया। लेकिन ई. 800 में धुरव और धर्मपाल की संयुक्त सेना ने वत्सराज को पराजित कर दिया और उज्जैन एवं उसकी उपराजधानी कन्नौज पर पालों का अधिकार हो गया।
 
लेकिन उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने उज्जैन को फिर बसाया। उसने कन्नौज पर आक्रमण उसे पालों से छीन लिया और कन्नौज को अपनी प्रमुख राजधानी बनाया। उसने 820 से 825-826 तक दस भयावाह युद्ध किए और संपूर्ण उत्तरी भारत पर अधिकार कर लिया। इसने यवनों, तुर्कों को भारत में पैर नहीं जमाने दिया। नागभट्ट का समय उत्तम शासन के लिए प्रसिद्ध है। इसने 120 जलाशयों का निर्माण कराया-लंबी सड़के बनवाई। अजमेर का सरोवर उसी की कृति है, जो आज पुष्कर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां तक कि पूर्व काल में राजपूत योद्धा पुष्पक सरोवर पर वीर पूजा के रूप में नाहड़राव नागभट्ट की पूजा कर युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे। उसकी उपाधि “परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर थी।
 
नागभट्ट के पुत्र [[रामभद्र]] ने साम्राज्य सुरक्षित रखा। इनके पश्चात् इनका पुत्र इतिहास प्रसिद्ध मिहिर भोज साम्राट बना, जिसका शासनकाल 836 से 885 माना जाता है। सिंहासन पर बैठते ही भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्तदुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया।
 
व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। भोज ने प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में उसे सम्राट मिहिर भोज की उपाधि मिली थी। अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे सम्राट भोज, भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक, महाराजाधिराज आदि विशेषणों से वर्णित किया गया है। इतने विशाल और विस्तृत साम्राज्य का प्रबंध अकेले सुदूर कन्नौज से कठिन हो रहा था। अस्तु भोज ने साम्राज्य को चार भागो में बांटकर चार उप राजधानियां बनाई। [[कन्नौज]]<nowiki/>- मुख्य राजधानी, [[उज्जैन]] और [[मंडोर]] को उप राजधानियां तथा [[ग्वालियर]] को सह राजधानी बनाया।
 
प्रतिहारों का नागभट्ट के समय से ही एक राज्यकुल संघ था, जिसमें कई राजपूत राजें शामिल थे। पर मिहिर भोज के समय [[बुन्देलखण्ड|बुंदेलखण्ड]] और [[कालिंजर दुर्ग|कालिजर मण्डल]] पर चंदलों ने अधिकार जमा रखा था। भोज का प्रस्ताव था कि चंदेल भी राज्य संघ के सदस्य बने,
 
जिससे सम्पूर्ण उत्तरी [[पश्चिमी भारत]] एक विशाल शिला के रूप में खड़ा हो जाए और [[यवन]], [[तुर्क]], [[हूण लोग|हूण]] आदि शत्रुओं को भारत प्रवेश से पूरी तरह रोका जा सके। पर [[चन्देल|चंदेल]] इसके लिए तैयार नहीं हुए।
 
अंततः मिहिर भोज ने [[कालिंजर दुर्ग|कालिंजर]] पर आक्रमण कर दिया और इस क्षेत्र के [[चन्देल|चंदेलों]] को हरा दिया।
 
मिहिर भोज परम देश भक्त था उसने प्रण किया था कि उसके जीते जी कोई विदेशी शत्रु भारत भूमि को अपावन न कर पायेगा। इसके लिए उसने सबसे पहले आक्रमण कर उन राजाओं को ठीक किया जो कायरतावश यवनों को अपने राज्य में शरण लेने देते थे।
 
इस प्रकार [[राजस्थान|राजपूताना]] से [[कन्नौज]] तक एक शक्तिशाली राज्य के निर्माण का श्रेय [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%AD%E0%A5%8B%E0%A4%9C मिहिर भोज] को जाता है। [https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%B0_%E0%A4%AD%E0%A5%8B%E0%A4%9C मिहिर भोज] के शासन काल में कन्नौज साम्राज्य की सीमा रमाशंकर त्रिपाठी की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ कन्नौज, पेज 246 में, उत्तर पश्चिम में सतलज नदी तक, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण पूर्व में [[बुन्देलखण्ड|बुंदेलखण्ड]] और वत्स राज्य तक, दक्षिण पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूताने के अधिक भाग तक विस्तृत थी। पश्चिम में सौराष्ट्र और राजपूताने के अधिक भाग तक विस्तृत थी।
 
सुलेमान अरब में लिखा है, कि [[मिहिर भोज]] अरब लोगों का सभी अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक घोर शत्रु है।
 
==संदर्भ==