"ज्योतिष": अवतरणों में अंतर

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*(२) '''होरा''' - जिसका सम्बन्ध [[कुण्डली]] बनाने से था। इसके तीन उपविभाग थे । क- [[जातक]], ख- [[यात्रा]], ग- [[विवाह]] ।
 
*(३) '''संहिता शाखा''' - यह एक विस्तृत भाग था जिसमें शकुन परीक्षण, शरीर-लक्षणपरीक्षण, रत्नशास्त्र, जलविज्ञान, धातुविज्ञान एवं भविष्य सूचन का विवरण था।
 
इन तीनों स्कन्धों ( तन्त्रसिद्धान्त-होरासंहिता-शाखाहोरा ) का जो ज्ञाता होता था उसे 'संहितापारग' कहा जाता था।
 
तन्त्र या सिद्धान्त में मुख्यतः दो भाग होते हैं, एक में ग्रह आदि की गणना और दूसरे में सृष्टि-आरम्भ, गोल विचार, यन्त्ररचना और कालगणना सम्बन्धी मान रहते हैं। तंत्र और सिद्धान्त को बिल्कुल पृथक् नहीं रखा जा सकता । सिद्धान्त, तन्त्र और [[करण]] के लक्षणों में यह है कि ग्रहगणित का विचार जिसमें कल्पादि या सृष्टयादि से हो वह सिद्धान्त, जिसमें महायुगादि से हो वह तन्त्र और जिसमें किसी इष्टशक से (जैसे कलियुग के आरम्भ से) हो वह [[करण]] कहलाता है । मात्र ग्रहगणित की दृष्टि से देखा जाय तो इन तीनों में कोई भेद नहीं है। सिद्धान्त, तन्त्र या करण ग्रन्थ के जिन प्रकरणों में ग्रहगणित का विचार रहता है वे क्रमशः इस प्रकार हैं-