"विजयानंद सूरी": अवतरणों में अंतर

टैग {{स्रोतहीन}} लेख में जोड़ा जा रहा (ट्विंकल)
उचित लेख पर पुनर्प्रेषित।
टैग: नया अनुप्रेषण
 
पंक्ति 1:
#पुनर्प्रेषित [[विजयानन्दसूरी]]
{{स्रोतहीन|date=मार्च 2021}}
'''आचार्य विजयानन्द सूरी''' (1837–1896)
 
विजयानंद सूरी नाम है एक ऐसे संत का जिन्होंने आधुनिक काल में पतित होते जैनिज्म को फिर से शीर्ष स्थान तक पहुँचाया.... विजयानंद सूरि 19वीं शताब्दी के वो गुरु थे जिन्होंने न सिर्फ जैनियों को बल्कि हिन्दुओ और मुस्लिमो को भी सुधार की प्रेरणा दी क्योंकि मानव मात्र के परम हित एंव कल्याण की भावना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य रहा.... विजयानंद सूरी आधुनिक युग के उन महापुरुषों में से एक थे जिन्होंने सत्य, अहिंसा, त्याग और तपस्या को अपने जीवन का अंग बनाया। विजयानंद सूरी साहित्य सृजन में विशेष रुचि रखते थे और शताधिक साधुु साध्व्वियों को आगम अध्यापन भी करवाया !
 
वे कुशल प्रवचनकार थे और अपने प्रवचन के माध्यम से श्रावक-श्राविकाओं का मार्गदर्शन किया... अपने संयम काल में जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान आदि उत्तरभारत और पाकिस्तान के अनेक क्षेत्रों में विहार किया।
 
वे शास्त्र तथा लोक व्यवहार... नीति तथा नैतिकता.... धर्म तथा दर्शन के ज्ञान के एक समान धारक थे और न्याय दर्शन के तो महापंडित थे (तर्क का प्रत्युत्तर करने में उनके समकालीन विद्वानो में कोई भी उनके समकक्ष नहीं था) इसी से उन्हें न्यायोंभोनिधि की उपाधि भी मिली थी !
 
विजयानंद सूरी एक विनम्र, शांंत, गंभीर स्वभाव के साधु थे और नारी शिक्षण प्रोत्साहन पर विशेष जोर देते थे (उन्होंने कन्या महाविद्यालय एवं पुस्तकालय भी खुलवाये)
 
वे जैन तथा जैनेतर साहित्य के प्रकांड पंडित, मानवता के मसीहा, साम्प्रदायिकता से कोसों दूर, अध्यात्म के स्रोत थे, उन्होंने संतप्त मानवता को शांति तथा एकता का संदेश दिया।
 
अथाह गुणों की खान विजयानंद सूरी का जन्म ब्रिटिश भारत के पंजाब के लेहरा (लहरा) में चैत्र शुक्ल 1 विक्रम संवत 1893 (6 अप्रैल 1837 और मतांतर से 1836) में जैन क्षत्रिय चौपड़ा वंश के पिता गणेशचन्द्र और माता रुपदेवी के घर में हुआ (पिता महाराजा रणजीत सिंह की सेना में अधिकारी थे) बचपन में ही पिता की मृत्यु होने से परवरिश माता ने की और विक्रम संवत 1903 (10 वर्षायु) में शिक्षा के लिये जीरा-पंजाब के सेठ जोधमल के सुपुर्द किया गया, जहाँ उन्होंने हिंदी और अंकगणित का अध्ययन किया.... अध्ययन के दौरान वे स्थानकवासी जैन मुनियो के संपर्क में आये और 16 वर्षायु में उनकी स्थानकवासी दीक्षा हुई और उन्हें दीक्षा उपरांत आत्माराम नाम प्रदान किया गया (जो आज तक उनके उपनाम के रूप में विख्यात है) दीक्षा उपरांत जैन आगमो का अध्ययन शुरू हुआ जो 22 वर्ष तक चला !
 
स्थानकवासी आगमो को पढ़ते पढ़ते उन्हें आभास हुआ कि स्थानकवासी आगमो में मूर्तिपूजा का आग्रहपूर्वक खंडन किया गया है जिससे उनके मन में शंका उत्पन्न हुई और वे मूर्तिपूजा संबंधी आगमो की खोज करने लगे.... ऐसे समय में तपागच्छीय बुद्धिविजय जी (उपनाम- बूटेराय जी महाराज) के रूप में अहमदाबाद में संवेगी साधु से उनकी मुलाकात हुई !
 
ये उनके जीवन का प्रथम अवसर था जब उन्होंने बिना मुँहपति वाला संवेगी साधु देखा था अतः उनसे शास्त्रार्थ किया जिससे उन्हें पता लगा कि आगम 32 नहीं 45 है.... और तब उन्होंने बुटेराय जी महाराज के साथ वर्षावास (चौमासा) किया और बाकी आगमो का अध्ययन शुरू किया.... जैसे ही उन्होंने 33 वे आगम का अध्ययन शुरू किया और उसमे पूजा शतक अध्याय में मूर्तिपूजा के बारे में प्राचीन तथ्यों का अवलोकन किया उसी समय उन्होंने अपनी स्थानकवासी प्रतीक मुँहपति को उतार दिया, बाद में विक्रम संवत 1932 (ईस्वी सं 1876) में 39 वर्षायु में उनकी संवेगी दीक्षा हुई और उन्हें नूतन नाम 'आनंदविजय' प्रदान किया गया !
 
45 आगमो के अध्ययन में पारंगत होने के पश्चात उनकी योग्यता के आधार पर 50 वर्षायु में अर्थात विक्रम संवत 1943 (ईस्वी सं 1887) में विजयानंद सूरी को पालीताणा में आचार्य पदवी प्रदान की गयी और उस समय अधिष्ठायक देवी ने स्वयं प्रकट होकर उन्हें सुरिमंत्र प्रदान किया क्योंकि योग्यता के अभाव में 4 सदियों से कोई भी सूरी पदवी का धारक नहीं हुआ अतः सुरिमंत्र का विच्छेद हो गया था.... लगभग 400 साल बाद ये पहला ऐसा अवसर था कि किसी को सूरी पदवी प्रदान की गयी और स्वयं शासन देवी ने सुरिमंत्र प्रदान किया (समकालीन जैन इतिहास के वे ऐसे पहले आचार्य बने जिन्होंने यतियों और साधुओ में फर्क पहचानने के लिये अपनी चद्दर को केसर से रंगकर पीला किया)
 
विजयानंद सूरी हिंदी, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंंश, पंजाबी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं के मर्मज्ञ ज्ञाता तथा जैनागमो के अलावा वेद, उपनिषद, बौद्ध पिटको और पाश्चात्य धर्म-दर्शन (ईसाई) के प्रकांड पंडित थे ! विजयानंद सूरी ने लेखन, अनुवाद, संपादन, संकलन द्वारा लगभग 60 ग्रंथ लिखे, जिनमे हिंदी में 12 ग्रन्थ थे और उन हिंदी ग्रंथो में भी जैन तत्वदर्शन, जैनमत वृक्ष, सम्यकत्व-शल्योद्वार एवं जैन धर्म का स्वरुप, ये चार ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक ऐतिहासिक एवं पठनीय हैं।
 
उनके विशेष विहार स्थल में गुजरात से लेकर पंजाब तक शामिल थे और ये ऐसा समय था जब भारत में अशिक्षा और पाखंडो का बोलबोला था, विजयानन्द सूरी ने न सिर्फ बंद पड़े जैन ग्रंथालयो को खुलवाया बल्कि नष्टप्रायः होते ग्रंथो की प्रतिलिपियाँ को भी विद्वानों से तैयार करवाया !
 
(उस समय जैन ब्राह्मणो के बहकावे में खुद को हिन्दू समझने लगे थे लेकिन विजयानन्द सूरी के अथक प्रयासों से जैनो में अपनी स्वतंत्र पहचान के प्रति जागरूकता की भावना उत्पन्न हुई)
 
यही वो समय (ईस्वी सं 1893) था जब विश्वधर्म गोलमेज सम्मलेन (धर्म संसद) के लिये जैन धर्म के प्रतिनिधि के रूप में शिकागो में उन्हें आमंत्रित किया गया मगर चूँकि जैन साधु पानी (समुद्र इत्यादि) और हवाई (वायुयान इत्यादि) सवारी का इस्तेमाल नहीं करते और सिर्फ स्थल पर पैदलविहारी होते है अतः उन्होंने वीरचंद गाँधी को विश्व धर्म गोलमेज सम्मलेन के लिये तैयार कर शिकागो में भेजा और वहां वीरचंद गाँधी ने पुरे विश्व में जैन धर्म की पहचान को फिर से स्वतंत्र रूप से कायम किया और धर्मसंसद के वक्ता के रूप में शीर्ष द्वितीय स्थान प्राप्त कर रजत पदक हासिल किया, वो पूर्व पोस्ट में लिख चूका हूँ (बाद में बहुत से यूएस के धर्मसंसद के आयोजकों द्वारा जो सवाल उन्हें प्राप्त हुए उसपर उन्होंने एक पुस्तक रचना भी की जिसे शिकागो-प्रश्नोतरा नाम दिया गया)
 
विजयानंद सूरी ने अपने पंजाब प्रवासो के समय अनेकानेक स्थानकवासी साधु-साध्वियों को प्रतिबोधित कर उन्हें संवेगी दीक्षा प्रदान की (एक आंकलन के अनुसार उस समय उन्होंने लगभग 15000 लोगो को प्रतिबोध देकर फिर से मूर्तिपूजक संघ में प्रस्थापित किया)
 
उनका कालधर्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 विक्रम संवत 1953 (20 मई ईस्वी सं 1897) में मतान्तर से 1896 में गुजरांवाला (आज पाकिस्तान में) हुआ !
 
उनका समाधी मंदिर स्मारक का निर्माण लाला मायादास नानकचंद भाबास द्वारा कराया गया.... साथ ही उनके पैरो के निशान (पगलियो) की छाप लाहौर किला संग्रहालय में रखे गये (आज भी वहीं है) हालाँकि बाद में एक भ्रान्ति के तहत उनके स्मारक को गलती से महाराजा रणजीत सिंह के दादा चरत सिंह का स्थल कहा जाने लगा लेकिन जल्दी ही ये भ्रान्ति दूर हो गयी !
 
देश के विभाजन के बाद जैन समाज द्वारा उनका अस्थिकलश उनके जन्मस्थान लहरा-पंजाब में स्थान्तरित कर दिया गया !
 
उसके बाद पाकिस्तान में स्थित उनके समारक के खंडहर को 1984 में पाकिस्तान की स्थानीय पुलिस के अधीन कर दिया गया जिसके खाली स्थान में 2003 में एक पुलिस स्टेशन बना दिया गया जिसका इस्तेमाल 2015 तक यातायात पुलिस द्वारा किया गया मगर 2019 में पाकिस्तान की पंजाब सरकार ने यहाँ से पुलिस स्टेशन तुड़वाकर ख़त्म कर दिया और इसे विजयानंद सूरी के नाम से सरंक्षित स्मारक घोषित कर दिया गया !
 
आठ शिष्यो के नाम से आठ समुदाय निकले (वो भी पूर्व पोस्ट में लिख चूका हूँ) लेकिन सबसे प्रिय शिष्य वल्लभ थे, अंत समय में वल्लभ सूरी को पंजाब का अधिभार देते हुए उन्होंने वल्लभ सूरी को कहा था कि वल्लभ समाज में शिक्षा के लिये कार्य करना और वल्लभ सूरी ने भी अपने जीवन पर्यन्त अपनी गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर जैन समाज में शिक्षा के प्रसार का कार्य किया (आज जैन समाज में स्त्री और पुरुष दोनों ही उच्चतम शिक्षा में भारत में सबसे अग्रणी और शीर्ष स्थान पर है)