"दशरूप": अवतरणों में अंतर

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ये दस रूप हैं। इन दस रूपों में कुछ विस्तृत रूप हैं और कुछ लघुकाय। इनके कलेवर का आयाम एक अंक की सीमा से लगाकर दस अंक तक का हो सकता है। इनमें मुख्य रस [[शृंगार रस|शृंगार]] या [[वीर रस]] होता है। इनकी कथावस्तु पाँच संधियों में विभक्त हाती है। पूर्ण रूप से परिपुष्ट रूपों में पाँचों संधियाँ पाई जाती हैं; अन्य लघुकाय रूपों में अपने अपने आयाम के मात्रानुसार बीच की संधियाँ छाँट दी जाती हैं। प्रत्येक रूप की कथावस्तु आधिकारिक एव प्रासंगिक रूप से विभाजित होती है। प्रधान पुरुष को [[नायक]] कहते हैं, जिसका मुख्य लक्ष्य रूप का कार्य समझा जाता है। कार्य की पाँच अवस्थाएँ होती हैं। आरम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। कार्य का अपर नाम 'अर्थ' है जिसकी पाँच प्रकृतियाँ मानी गई हैं : बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कर्य। कार्यावस्था और अर्थप्रकृति के समानांतर संयोग से क्रमश: पाँच संधियाँ घटित होती हैं : मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण। रूपकों में अभिनीत वस्तु दृश्य एवं श्रव्य होती है; श्रव्य भी दो प्रकार की कहीं गई हैं : नियत श्रव्य और सर्वश्रव्य। कथावस्तु के उस भाग को जो सामाजिक नीति के विरुद्ध हो, अश्लील या शास्त्रनिषद्ध हो, अथवा मुख्य कार्य का अनुपकारक हो, रंगमंच पर प्रदर्शित न करने का विधान हैं; परन्तु पूर्वापर संदर्भ से अवगत कराने के हेतु पूर्वोक्त प्रकार के जिस कथाभाग से प्रेक्षकवर्ग का परिचय होना अनिवार्य हो वह अंश कतिपय अमुख्य पात्रों के संवाद द्वारा उपस्थित किया जाता है। ऐसे संवाद को अर्थोपक्षेपक कहते हैं जिसके पाँच प्रकार हैं : विष्कम्भ, प्रवेशक, चूलिका, अंकमुख और अंकावतार।
 
'''प्रकरण''' : दृश्य काव्य के अंतर्गत रुपक के दस भेदों में से एक । [[साहित्यदर्पण]] के अनुसार इसमें सामाजिक और प्रेम सम्बन्धी कल्पित घटनाएँ होनी चाहिए और प्रधानतः [[शृंगार रस]] ही रहना चाहिए । जिस प्रकरण की [[नायिका]] वेश्या हो वह 'शुद्ध' प्रकरण और जिसकी नायिका कुलवधू हो वह 'संकीर्ण प्रकरण' कहलाता है । नाटक की भाँति इसका नायक बहुत उच्च कोटि का पुरुष नहीं होता; और न इसका आख्यान कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक या पौराणिक वृत्त होता है । संस्कृत के [[मृच्छकटिक]], [[मालतीमाधव]] आदि 'प्रकरण' के ही अंतर्गत आते हैं।
 
रूपकों के पात्र विविध श्रेणी के होते हैं : दिव्य, अदिव्य एवं दिव्यादिव्य। प्रत्येक पात्र अपनी प्रकृति के अनुसार उत्तम, मध्यम अथवा अधम माना गया है। पात्रों के द्वारा प्रयुक्त बोली एवं परस्पर संभाषण के भी नियम हैं। उत्तम पात्र [[संस्कृत]] का प्रयोग करते हैं, शेष पात्र प्रायेण विविध [[प्राकृत]] अथवा देशी भाषाओं का। प्रत्येक पात्र को विशेषत: प्रधान पात्रों के व्यवहार को वृत्ति कहते हैं जो अंतरंग भावों की विभिन्न चेष्टाओं की सहचरी है। कैशिकी, सात्वती, आरभटी और भारती नामक चार वृत्तियाँ प्रमुख मानी गई हैं। दशरूपों के अभिनय में देश और काल के अनुरूप वेशभूषा, आमोद प्रमोद एवं अन्य नाटकीय उपकरणों के संबंध में प्रायोगिक नियम भी विविध पात्रों के सामाजिक स्तर के अनुरूप निर्दिष्ट हैं जिनका समावेश नाट्यशास्त्र में "प्रवृत्ति" के अंतर्गत किया गया है। साथ ही नृत्य, वाद्य एवं संगीत का सहयोग, प्राकृतिक पृष्ठभूमि, पशु पक्षी का साहचर्य रूपक के प्रसाधन माने गए हैं। रूपकों की रचना में गद्य एवं पद्य दोनों का प्रयोग किया जाता है अतएव दशरूपों की गणना काव्यभेद की दृष्टि से मिश्र काव्य में की जाती है। दशरूप का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन होते हुए भी ये तात्कालिक सामाजिक स्थिति को प्रतिबिंवित करते हैं; साथ ही साथ मानव जीवन के सदादर्शों की ओर कांतासंमत संकेत भी करते हैं।
 
===नाटक===
{{मुख्य|नाटक]]
 
===प्रकरण===
'''प्रकरण''' : दृश्य काव्य के अंतर्गत रुपक के दस भेदों में से एक । [[साहित्यदर्पण]] के अनुसार इसमें सामाजिक और प्रेम सम्बन्धी कल्पित घटनाएँ होनी चाहिए और प्रधानतः [[शृंगार रस]] ही रहना चाहिए । जिस प्रकरण की [[नायिका]] वेश्या हो वह 'शुद्ध' प्रकरण और जिसकी नायिका कुलवधू हो वह 'संकीर्ण प्रकरण' कहलाता है । नाटक की भाँति इसका नायक बहुत उच्च कोटि का पुरुष नहीं होता; और न इसका आख्यान कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक या पौराणिक वृत्त होता है । संस्कृत के [[मृच्छकटिक]], [[मालतीमाधव]] आदि 'प्रकरण' के ही अंतर्गत आते हैं।
 
== दशरूप ग्रन्थ ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/दशरूप" से प्राप्त