"भूदान आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

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वह 18 अप्रैल 1951 की तारीख थी, जब आचार्य विनोबा भावे को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन [[तेलंगाना]] क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में दान में मिली थी। यह विनोबा के उसी भूदान आंदोलन की शुरुआत थी, जो अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है या फिर पुराने लोगों की स्मृति में।
 
तब विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। उस वक्त [[प्रजा सोसलिस्ट पार्टी|प्रजा सोशलिस्ट पार्टी]] (पीएसपी) के नेता [[जयप्रकाश नारायण]] भी 1953 में भूदान आंदोलन में शामिल हो गए थे। आंदोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली।

[[हैदराबाद राज्य]] के सातवें निजाम ([[मीर उस्मान अली खान]]) ने भी भूमिहीन किसानों के बीच फिर से वितरण के लिए इस आंदोलन की ओर अपनी व्यक्तिगत संपत्ति से १४,००० एकड़ जमीन दान की।<ref>{{cite web |title=:: The Seventh Nizam - The Nizam's Museum Hyderabad, Telangana, India : |url=http://thenizamsmuseum.com/seventh-nizam.html |website=thenizamsmuseum.com}}</ref> इसके बाद आंदोलन उत्तर भारत में फैला। [[बिहार]] और [[उत्तर प्रदेश]] में इसका गहरा असर देखा गया था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद से ही आंदोलन का बल बिखरता गया।
 
1955 तक आते-आते आंदोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गई, जिसपर सबों का बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गांव हो चुके थे। इनमें 1946 गांव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गांव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।