"लाल क़िला": अवतरणों में अंतर

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== इतिहास ==
यह किला भी [[ताजमहल]] और [[आगरा का किला|आगरे के क़िले]] की भांति ही [[यमुना]] नदी के किनारे पर स्थित है।
जामा मस्जिद पहले माँ भद्र काली और यमनोत्री देवी का हिन्दू मंदिर था
लालकोट राजा [[पृथ्वीराज चौहान]] की बारहवीं सदी के अन्तिम दौर में राजधानी थी। वही नदी का जल इस किले को घेरकर खाई को भरती थी। इसके पूर्वोत्तरी ओर की दीवार एक पुराने किले से लगी थी, जिसे सलीमगढ़ का किला भी कहते हैं। सलीमगढ़ का किला [[इस्लाम शाह सूरी]] ने 1546 में बनवाया था। लालकिले का पुनर्निर्माण 1638 में आरम्भ होकर 1648 में पूर्ण हुआ। मतों के अनुसार इसे [[लालकोट]] का एक पुरातन किला एवं नगरी बताते हैं, जिसे शाहजहाँ ने कब्जा़ करके यह किला बनवाया था।
 
मित्रो लालकिला शाहजहाँ के जन्म से सैकड़ों साल पहले “महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय” द्वारा दिल्ली को बसाने के क्रम में ही बनाया गया था जो कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे।
 
इतिहास के अनुसार लाल किला का असली नाम “लाल कोट” है,
 
“लाल कोट” को जिसे महाराज अनंगपालद्वितीय द्वारा सन 1060 ईस्वी में दिल्ली शहर को बसाने के क्रम में ही बनवाया गया था जबकि शाहजहाँ का जन्म ही उसके सैकड़ों वर्ष बाद 1592 ईस्वी में हुआ है। इसके पूरे साक्ष्य “प्रथवीराज रासोसे” ग्रन्थ में मिलते हैं।
 
लाल कोट जिसे लोग लाल किले के नाम से जानते हैं
 
किले के मुख्य द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है जबकि इस्लाम मूर्ति के विरोधी होते हैं और राजपूत राजा लोग हाथियों के प्रेम के लिए विख्यात थे। इसके अलावा लाल किले के महल मे लगे सुअर (वराह) के मुह वाले चार नल अभी भी हैं यह भी इस्लाम विरोधी प्रतीक चिन्ह है।
 
 
महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय माँ भद्र काली के उपासक थे तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री उनकी कुल देवी थी। इन्ही के लिये उन्होने अपने आवास “लाल कोट” (लाल किला) के निकट ही सामने भगवा पत्थर (हिंदुओं का पवित्र रंग ) से भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था तथा प्रत्येक राजउत्सव उसी परिसर में हुआ करते थे।
 
यहाँ की इमारतों में उपस्थित अष्टदलीय पुष्प, जंजीर, घंटियां, आदि के लक्षण वहां हिंदू धर्म चिन्हों के रूप में आज भी मौजूद हैं। हिंदुओं के मंदिर हिंदू सन्यासियों के भगवा रंग के अनुरूप भगवा पत्थरों ( लाल पत्थर ) से बनाए जाते थे जबकि मुसलमानों के इमारतें सफेद चूने से बनी होती थी और उन पर हरा रंग का प्रयोग किया जाता था।
 
दिल्ली के जामा मस्जिद में कोई भी मुस्लिम प्रतीक चिन्ह निर्माण काल से प्रयोग नहीं हुआ था बल्कि इस मस्जिद की बनावट इसके आकार वास्तु आदि हिंदुओं के भव्य मंदिर के अनुरुप है।
 
शाहजहां 1627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठा तो वह चाहता था कि खुदा का दरबार उसके दरबार से ऊंचा हो। खुदा के घर का फर्श उसके तख्त और ताज से ऊपर हो,
 
इसीलिए उसने महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री जो कि महाराज अनंगपाल कुल देवी थी उसे तुड़वा कर मंदिर से जुड़ी हुई भोजला नामक छोटी सी पहाड़ी जहां महाराज अनंगपाल राजकीय उत्सव के समय उत्सव देखने आने वालों के घोड़े बांधते थे उसे भी मस्जिद परिसर में मिलाने के लिये चुना और 6 अक्टूबर 1650 को मस्जिद को बनाने का काम शुरू हो गया।
 
मस्जिद बनाने के लिए 5000 मजदूरों ने छह साल तक काम किया।
 
आखिरकार दस लाख के खर्च करके और हजारों टन नया पत्थर की मदद से माँ भद्र काली मंदिर के स्थान पर ये आलीशान मस्जिद बनवाई गयी। 80 मीटर लंबी और 27 मीटर चौड़ी इस मस्जिद में तीन गुंबद बनाए गए। साथ ही दोनों तरफ 41 फीट उंची मीनारे तामीर की गईं। इस मस्जिद में एक साथ 25 हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं।
 
इस बेजोड़ मस्जिद का नाम भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी “यमनोत्री” के नाम के कारण मुसलमान “य” की जगह “ज” शब्द का उच्चारण करते हैं अत: मस्जिद ए जहांनुमा रखा गया। जिसे फिर लोगों ने जामा मस्जिद कहना शुरू कर दिया।
 
मस्जिद के तैयार होते ही उज्बेकिस्तान के एक छोटे से शहर बुखारा के सैय्यद अब्दुल गफूर शाह को दिल्ली लाकर उन्हें यहाँ का इमाम घोषित किया गया और 24 जुलाई 1656 को जामा मस्जिद में पहली बार नमाज अदा की गई।
 
इस नमाज में शाहजहां समेत सभी दरबारियों और दिल्ली के अवाम ने हिस्सा लिया। नमाज के बाद मुगल बादशाह ने इमाम अब्दुल गफूर को इमाम-ए-सल्तनत की पदवी दी और ये ऐलान भी किया कि उनका खानदान ही इस मस्जिद की इमामत करेंगे।
 
उस दिन के बाद से आजतक दिल्ली की जामा मस्जिद में इमामत का सिलसिला बुखारी खानदान के नाम हो गया। सैय्यद अब्दुल गफूर के बाद सय्यद अब्दुल शकूर इमाम बने। इसके बाद सैय्यद अब्दुल रहीम, सैय्यद अब्दुल गफूर, सैय्यद अब्दुल रहमान, सैय्यद अब्दुल करीम, सैय्यद मीर जीवान शाह, सैय्यद मीर अहमद अली, सैय्यद मोहम्मद शाह, सैय्यद अहमद बुखारी और सैय्यद हमीद बुखारी इमाम बने।
 
एक वक्त ऐसा भी था जब 1857 के बाद अंग्रेजों ने जामा मस्जिद में नमाज पर पाबंदी लगा दी और मस्जिद में अंग्रेजी फौज के घोड़े बांधे जाने लगे।
 
आखिरकार 1864 में मस्जिद को दोबारा नमाजियों के लिए खोल दिया गया। नमाजियों के साथ-साथ दुनिया के कई जाने माने लोगों ने जामा मस्जिद की जमीन पर सजदा अदा किया है।
 
चाहे वो सऊदी अरब के बादशाह हों या फिर मिस्त्र के नासिर। कभी ईरान के शाह पहलवी तो कभी इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्नो, सबने यहां सजदा किया।
 
लेकिन इनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि जामा मस्जिद वास्तव में महाराज अनंगपाल तोमर द्वितीय स्थापित माँ भद्र काली तथा भगवान श्री कृष्ण की पत्नी देवी यमनोत्री का मंदिर था जिसे शाहजहां ने तुड़वा कर जामा मस्जिद बनवाया था।
 
✍हिंदु इतिहास के पन्नों से✍
 
🙏कृपया हर हिंदु को यह लेख भेजे🙏
 
✍संकलन बलवीर सिंह राठौड़ भाड़ंग
 
11 मार्च 1783 को, सिखों ने लालकिले में प्रवेश कर दीवान-ए-आम पर कब्जा़ कर लिया। नगर को मुगल वजी़रों ने अपने सिख साथियों का समर्प कर दिया। यह कार्य करोर सिंहिया मिस्ल के सरदार बघेल सिंह धालीवाल के कमान में हुआ