"क्रूसयुद्ध": अवतरणों में अंतर
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पर ईसाई में प्रबल फूट भी थी। 395 ई. में रोमन साम्राज्य दो भागों में बँट गया था। पश्चिमी भाग, जिसकी राजधानी रोम थी, 476 में उत्तर की बर्बर जातियों के आक्रमण से टूट गया। पर पोप का प्रभाव स्थिर रहा और इन जातियों के ईसाई हो जाने पर बहुत बढ़ गया; यहाँ तक कि पश्चिमी यूरोप पर पोप का निर्विवाद आधिपत्य था। इसके शासक पोप से आशीर्वाद प्राप्त करते थे और यदि पोप अप्रसन्न होकर किसी शासक का बहिष्कार करता, तो उसे कठिन प्रायश्चित्त करना होता था और प्रचूर धन दंड के रूप में पोप को देना पड़ता था। इस क्षेत्र के शासकों में से एक सम्राट् निर्वाचित होता था जो पोप का सहकारी माना जाता था और पवित्र रोमन सम्राट् कहलाता था।
ईसाई जगत् के पूर्वी भाग की राजधानी [[कुस्तुंतुनियाँ]] (आधुनिक [[इस्तांबुल]] नगर) में थी और वहाँ ग्रीक ([[यूनानी]]) जाति के सम्राट् शासन करते थे। पूर्वी यूरोप के अतिरिक्त उनका राज्य [[आनातोलिया|एशिया माइनर]] पर भी था। तुर्को ने एशिया माइनर के अधिकांश भाग पर कब्जा कर लिया था, केवल राजधानी के निकट का और कुछ समुद्रतट का क्षेत्र रोमन (जाति से ग्रीक) सम्राट् के पास रह गया था। सम्राट् ने इस संकट में पश्चिमी ईसाइयों की सहायता माँगी। रोम का पोप स्वयं ही पवित्र भूमि को तुर्को से मुक्त कराने का इच्छुक था। एक प्रभावशाली प्रचारक (आमिया निवासी पीतर संन्यासी) ने फ्रांस और इटली में धर्मयुद्ध के लिए जनता को उत्साहित किया। फलस्वरूप लगभग छह लाख क्रूशधर प्रस्तुत हो गए। ईसाई जगत् के पूर्वी और पश्चिमी भागों में धार्मिक मतभेद इतना था कि 1054 में रोम के पोप और कोस्तांतीन नगर के पात्रिआर्क (जो पूर्वी ईसाइयों का अध्यक्ष था) ने एक दूसरे को जातिच्युत कर दिया था। पश्चिम का उन्नतिशील राजनीतिक दल (अर्थात् नार्मन जाति) पूर्वी सम्राट् को, जो यूनानी था, निकम्मा समझता था। उसकी धारणा थी कि इस साम्राज्य में नार्मन शासन स्थापित होने पर ही तुर्की से युद्ध में जीत हो सकती है। इन विरोधों तथा मतभेदों का क्रूश युद्धों के इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा।
== प्रथम क्रूश युद्ध (1096-1099) ==
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