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== इतिहास ==
[[कुषाण राजवंश|कुषाण]] काल के दौरन, 120 ईस्वी में राजा कनिष्क ने रोहत और [[जैतारण]] क्षेत्र, (आज के पाली जिले) के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की थी। सातवीं शताब्दी AD सदि के अंत तक वर्तमान राजस्थान राज्य के अन्य हिस्सों के साथ-साथ चालुक्य राजा हर्षवर्धन का शासन था।
 
10 वीं सदी से 15 वीं सदी तक की अवधि के दौरान, पाली की सीमाओं से सटे को मेवाड़, मारवाड़ और गोडवाङ बढ़ा दिया। नाडोल चौहान वंश की राजधानी थी। सभी राजपूत शासक विदेशी आक्रमणकारियों के विरोध में थे, लेकिन व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे की भूमि और नेतृत्व के लिए लड़ाई लड़ते थे। गोडवाङ के पाली क्षेत्र के विषय में तो मेवाड के शासक महाराणा कुंभा भी रूचि रखते थे। लेकिन पाली शहर पर ब्राह्मण शासकों का राज रहा, जो पड़ोसी राजपूत शासकों के संरक्षण में था, शांतिपूर्ण और प्रगतिशील बना रहा।
 
पाली जिला के मारवाड तहसील के अन्‍तर्गत धनला गांव का इतिहास बहुत पुराना है स्‍थानीय गांव के अन्‍तर्गत शोभा कोट नामक पहाडी है जंहा पर राव रीडमल रहते थे राव रीडमल के 29 पुत्र थे जिसमें पांचवे पुत्र राव जोधा थे जिन्‍होने जोधपुर की स्‍थापना की को राव के 23 वे पुत्र राव सायरसिंह उर्फ शेरसिहं थे जो कारण वश ध्‍ानला की एक नाडी में डुबने से देवलोकगमन हो गये तथा ग्रामीणो ने उनका भव्‍य मंदिर बनाया जो आज सारजी महाराज उर्फ भुरा राठौड के नाम से प्रसिद्व है इस गांव का इतिहास बहुत बड़ा है इस गांव में ग्राम पंचायत, सनीयर सैकडरी सहित पांच विघालय है गामीण बैक एक सरकारी व 2 निजी अस्‍पताल है तथा राजनीती में कांबिना मंत्री नरेन्‍द्र कंवर व विधायक केसाराम चौधरी इस गांव के है
भूवैज्ञानिकों और पुरातत्ववेत्ताओं ने पाली और आसपास के क्षेत्र में प्रागैतिहासिक काल में आदिमानव के में बसने का पता लगाया है और उनकी यह स्थापना है कि पाली और इसके आसपास का इलाका भी एक समय विशाल पश्चिमी समुद्र से निकला था। प्राचीन ‘अर्बुदा’ प्रांत के एक भाग के रूप में, इस क्षेत्र को कभी ‘बल्ल’-देश के नाम से भी जाना जाता था शायद इसलिए कि वैदिक युग में, महर्षि जबाली वेदों की व्याख्या और अवगाहन के लिए इसी पाली क्षेत्र में रहे थे । महाभारत युग में, पांडव भी अज्ञातवास (गोपनीय वनवास) के दौरान कुछ समय बाली के पास छिपे थे । लिखा मिलता है सन 120 ईस्वी में, कुषाण युग के दौरान, राजा कनिष्क ने रोहट और जैतारण क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी, जो आज पाली के भाग हैं । सातवीं शताब्दी ईस्वी के अंत तक वर्तमान राजस्थान राज्य के अन्य हिस्सों सहित पाली पर भी चालुक्य राजा हर्षवर्धन के साथ का शासन था।10 वीं से 15 वीं शताब्दी की अवधि के दौरान, पाली की सीमाएं मेवाड़, गोडवाड़ और मारवाड़ से मिली  हुई थीं। नाडोल क़स्बा  चौहान-वंश की राजधानी थी। सभी राजपूत शासकों ने समय समय पर होने वाले विदेशी आक्रमणकारियों का विरोध किया लेकिन व्यक्तिगत रूप से वे एक-दूसरे की भूमि के लिए भी आपस में लड़े। पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद, मोहम्मद गौरी के खिलाफ, इस क्षेत्र में राजपूत सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई। पाली का गोडवाड़ क्षेत्र, मेवाड़ के तत्कालीन यशस्वी शासक महाराणा कुंभा के अधीन हो गया; हालाँकि पाली शहर- जिस पर पालीवाल ब्राह्मण शासकों का शासन था, अन्य पड़ोसी राजपूत शासकों के संरक्षण के कारण शांतिपूर्ण और प्रगतिशील बना रहा।
 
एक धारणा के अनुसार पाली का नाम पालीवाल ब्राहम्‍णों के कारण ही पाली पड़ा है। इतिहास के कुछ अंशों से पता चलता है कि पालीवालों ने विदेशी आक्रांताओं से अपनी मातृभूमि को बचानें के लिये घोर संघर्ष एवं विरोध किया लेकिन विशाल सेना द्वारा उनके इस विरोध को दबा दिया गया और कई लोग मारे गये। वर्तमान में धोला चौतरा नामक स्‍थान पर पालीवाल समाज के व्‍यक्तियों की जनेउ व उनकी पत्नियों के स्‍वेत चूडों का ढेर सा लग गया था। जिसे धोला चबूतरा नामक स्‍थान से जाना गया था।
 
16 वीं और 17 वीं शताब्दी में पाली के आसपास के क्षेत्रों में कई युद्ध लड़े गये । शेरशाह सूरी को राजपूत शासकों द्वारा जैतारण के पास गिरि की लड़ाई में हराया गया, मुगल सम्राट अकबर की सेना का गोडवाड़ क्षेत्र में महाराणा प्रताप के साथ युद्ध हुआ । मुगलों द्वारा लगभग पूरे राजपूताना पर विजय प्राप्त करने के बाद, मारवाड़ के वीर दुर्गादास राठौड़ ने मुगल सम्राट औरंगजेब से मारवाड़ क्षेत्र को छुड़ाने के लिए संगठित प्रयास किए क्यों कि तब तक पाली मारवाड़ राज्य के राठौड़-वंश के अधीन हो गया था  । पाली का पुनर्वास महाराजा विजयसिंह द्वारा किया गया और जल्द ही एक बार फिर यह एक महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केंद्र बन गया।
 
'''ब्रिटिश शासन में पाली'''
 
आउवा मारवाड़ जंक्शन के दक्षिण में 12 किमी की दूरी पर स्थित एक क़स्बा है । तब आउवा जोधपुर राज्य के सोजत जिले का एक हिस्सा था । 1857 में भारत में ब्रिटिश काल के दौरान, आउवा के ठाकुर के नेतृत्व में पाली के विभिन्न ठाकुरों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई लड़ी थी । यह स्थान आज भले ही महत्वहीन हो लेकिन इसे 1857 की उथल-पुथल के दौरान बहुत प्रसिद्धि मिली जब इसके जागीरदार ठाकुर कुशलसिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। बागवत की शुरुआत 25 अगस्त 1857 को एरनपुरा छावनी के भारतीय सिपाहियों द्वारा की गयी । सेना के ये सैनिक गांव अपनी छावनी छोड़ कर अपने हथियारों के साथ आउवा पहुंचे। स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए ठाकुर खुशाल सिंह ने उनका नेतृत्व किया। आउवा किला ब्रिटिश सेना ने घेरा हुआ था और यह खूनी संघर्ष कई दिनों तक चला था। इस आंदोलन में मारवाड़ राज्य के ठाकुरों में अशोप, गुलर अलनियावास, भीमलिया, रेड़ावास, लाम्बिया और मेवाड़ राज्य के दूसरे ठाकुरों रूपनगर, लासानी, सलूम्बर, आसींद ने भी ठाकुर खुशाल सिंह की मदद की ।
 
 
अजमेर से जनरल हेनरी लारेंज़ के आदेश से, 7 सितंबर 1857 को किलेदार अनदसिंह जोधपुर, ने आउवा किले  पर आक्रमण किया । 8 सितंबर 1857 को लेफ्टिनेंट हेचकेट भी अनदसिंह के साथ युद्ध में शामिल हो गए । युद्ध के दौरान अधिकांश अंग्रेज सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए और आउवा की सेना ने 1857 में स्वतंत्रता की अपनी पहली लड़ाई जीती । इस हार के बाद भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को सबक सिखाने के लिए जनरल लारेन्ज स्वयं ब्यावर से सेना लेकर 18 सितंबर 1857 को आउवा पहुंचा। जनरल लारेंज़ की मदद के लिए, जोधपुर से राजनीतिक-एजेंट कैप्टन मेसन भी अपनी बड़ी सेना के साथ आउवा आ पहुँचा। इस लड़ाई में कैप्टन मेसन मारा गया | उसका सिर काट कर आउवा किले के मुख्य द्वार पर लटका दिया । इस प्रकार अंग्रेजों से दूसरी लड़ाई में भी आउवा के स्वतंत्रता सेनानियों की जीत हुई ।
 
== अन्य ==