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'''मुक्तक''', [[काव्य]] या [[काव्य|कविता]] का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक [[छन्द]] में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। [[कबीर]] एवं [[रहीम]] के दोहे; [[मीरा बाई|मीराबाई]] के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। [[हिन्दी]] के [[रीति काल|रीतिकाल]] में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई।
{{स्रोतहीन|date=जून 2015}}
'''मुक्तक''' [[काव्य]] या [[काव्य|कविता]] का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। [[कबीर]] एवं [[रहीम]] के दोहे; [[मीरा बाई|मीराबाई]] के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। [[हिन्दी]] के [[रीति काल|रीतिकाल]] में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई।
 
मुक्तक शब्द का अर्थ है '''‘अपने आप में सम्पूर्ण’''' अथवा ‘'''अन्य निरपेक्ष वस्तु’''' होना. अत: मुक्तक काव्य की वह विधा है जिसमें कथा का कोई पूर्वापर संबंध नहीं होता.होता। प्रत्येक छंद अपने आप में पूर्णत: स्वतंत्र और सम्पूर्ण अर्थ देने वाला होता है. है।
 
माना जाता है कि यह संस्कृत इतिहास की प्रथम खोज रही होगी क्योंकि वेद जैसे निबद्ध ग्रन्थों में भी मुक्तक काव्यों का प्रसंग आया हुआ है। [[रामायण]] तथा [[महाभारत]] जिन्हें हम प्रबन्ध काव्य कहते है उनमें भी जनमानस तथा सभाओं में प्रयुक्त होने वाले मुक्तक काव्यों का वर्णन प्राप्त होता है। महाभारत में लिखा है- ''सामानि स्तुतिगीतानि गाथाश्च विविधास्तथा''। हालांकि यह सत्य है कि [[भामह]] आदि काव्यशास्त्रियों ने इसे इसकी निबद्धता के चलते काव्य शृंखला में अन्तिम स्थान दिया है पुनरपि कोई भी इससे मुंह नहीं मोड़ पाया है। [[अभिनवगुप्त]] का तो यह मानना था कि रस के आस्वादन में एक मात्र मुक्तक पद्य भी पूर्ण है।
संस्कृत काव्य परम्परा में मुक्तक शब्द सर्वप्रथम आनंदवर्धन ने प्रस्तुत किया. ऐसा नहीं माना जा सकता कि काव्य की इस दिशा का ज्ञान उनसे पूर्व किसी को नहीं था. आचार्य दण्डी मुक्तक नाम से न सही पर अनिबद्ध काव्य के रूप में इससे परिचित थे. ‘'''अग्निपुराण’''' में मुक्तक को परिभाषित करते हुए कहा गया कि:<blockquote>'''”मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षम: सताम्”'''</blockquote>अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं.
 
[[संस्कृत]] काव्य परम्परा में मुक्तक शब्द सर्वप्रथम [[आनन्दवर्धन]] ने प्रस्तुत किया। ऐसा नहीं माना जा सकता कि काव्य की इस दिशा का ज्ञान उनसे पूर्व किसी को नहीं था। आचार्य दण्डी मुक्तक नाम से न सही, पर अनिबद्ध काव्य के रूप में इससे परिचित थे। ‘[[अग्निपुराण]]' में मुक्तक को परिभाषित करते हुए कहा गया कि ''मुक्तकं श्लोक एवैकश्चमत्कारक्षमः सताम्'' अर्थात चमत्कार की क्षमता रखने वाले एक ही श्लोक को मुक्तक कहते हैं।
 
[[राजशेखर]] ने भी मुक्तक नाम से ही चर्चा की है। आनंदवर्धन ने रस को महत्त्व प्रदान करते हुए मुक्तक के संबंध में कहा कि ''तत्र मुक्तकेषु रसबन्धाभिनिवेशिनः कवेः तदाश्रयमौचित्यम्'' अर्थात् मुक्तकों में रस का अभिनिवेश या प्रतिष्ठा ही उसके बन्ध की व्यवस्थापिका है और कवि द्वारा उसी का आश्रय लेना औचित्य है।
 
'''[[हेमचंद्राचार्य]]''' ने मुक्तक शब्द के स्थान पर 'मुक्तकादि' शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसका लक्षण दण्डी की परम्परा में देते हुए कहा कि जो अनिबद्ध हों, वे मुक्तादि हैं।
 
आधुनिक युग में हिन्दी के [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] ने मुक्तक पर विचार किया। उनके अनुसार,
: ''मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती, जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबन्ध एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से यह समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है। इसमें उत्तरोत्तर दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन या उसके किसी पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि एक रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है।''
 
आचार्य शुक्ल ने अन्यत्र मुक्तक के लिए भाषा की समास शक्ति और कल्पना की समाहार शक्ति को आवश्यक बताया था। [[गोविंद त्रिगुणायत]] ने उसी से प्रभावित होकर निम्न परिभाषा प्रस्तुत की-
: ''मेरी समझ में मुक्तक उस रचना को कहते हैं जिसमें प्रबन्धत्व का अभाव होते हुए भी कवि अपनी कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समाज शक्ति के सहारे किसी एक रमणीय दृश्य, परिस्थिति, घटना या वस्तु का ऐसा चित्रात्मक एवं भावपूर्ण वर्णन प्रस्तुत करता है, जिससे पाठकों को प्रबंध जैसा आनंद आने लगता है।
 
वस्तुत: यह परिभाषा त्रुटिपूर्ण है। प्रबन्ध जैसा आनन्द कहना उचित नहीं है।
 
 
==प्रकार==
मुक्तक काव्य से तात्पर्य है ऐसे काव्य जो किसी एक प्रसंगवश लिखे गये हो। रामायण, महाभारत या रघुवंश आदि काव्य में अनेक प्रसंग है, ये काव्य कथाओं से ओत-प्रोत हैं, जिसमें अनेक भाव तथा अनेक रस है। परन्तु मुक्तक काव्य किसी एक प्रसंग, एक भाव तथा एक ही रस से निहित एक मात्र पद्य होता है। मुक्तक में एक पद्य अवश्य होता है पुनरपि मुक्तक के विकास ने इसमें कुछ और विशेषता भी सम्मिलित की है। हालांकि [[दण्डी]] आदि आचार्यों ने ऐसी रचना को मुक्तक नहीं स्वीकार किया है। परन्तु देखा जाये तो यह सभी मुक्तक के ही प्रकार है। मुक्तक काव्य के अन्तर्गत हम इन अधोलिखित सभी काव्यों प्रकारों का ग्रहण कर सकते हैं-
 
1. '''मुक्तक'''- प्रसंगवश किसी एक रस से निहित पद्य जो अपने आप में पूर्ण हो।
 
2. '''संदानिक'''- दो मुक्तक पद्य जो परस्पर सम्बन्ध रखते हो।
 
3. '''विशेषक'''- तीन मुक्तक पद्य जो परस्पर सम्बन्ध रखते हो।
 
4. '''कुलक'''- चार मुक्तक पद्य जो परस्पर सम्बन्ध रखते हो।
 
5. '''संघात'''- किसी एक प्रसंग पर रचित एक ही कवि के कुछ मुक्तक पद्य।
 
6. '''शतक'''- विभिन्न प्रसंगो पर रचित एक ही कवि के लगभग १०० मुक्तक पद्य।
 
7. '''खण्डकाव्य'''- यह जीवन के किसी एक अंश पर निर्भर होता है अर्थात् यह भी प्रसंगवश रचना है परन्तु इसमें महाकाव्यों के समान निबद्धता प्रतीत होती है।
 
8. '''कोश'''- विभिन्न कवियों द्वारा रचित मुक्तक पद्यों का संग्रह।
 
9. सहिंता- इसमें ऐसे मुक्तक होते है जो अनेक वृतांत कहते है।
 
10. '''गीतिकाव्य'''- ऐसे मुक्तक जिनका गायन के साथ अभिनय भी किया जा सकें।
 
अतः इस प्रकार ये सभी मुक्तक काव्य की विकसित परम्परा मात्र ही है।
 
== प्रमुख मुक्तक काव्य ==
 
{|class='wikitable'
! मुक्तक !! रचनाकार
|-
| अमरुकशतक || अमरुक
|-
| आनन्दलहरी || शंकराचार्य
|-
| आर्यासप्तशती || गोवर्धनाचार्य
|-
| ऋतुसंहार || कालिदास
|-
| कलाविलास || क्षेमेन्द्र
|-
| गण्डीस्तोत्रगाथा || अश्वघोष
|-
| गांगास्तव || जयदेव
|-
| गाथासप्तशती || हाल
|-
| गीतगोविन्द –जयदेव
|-
| घटकर्परकाव्य || घटकर्पर या धावक
|-
| चण्डीशतक || बाण
|-
| चतुःस्तव || नागार्जुन
|-
| चन्द्रदूत || जम्बूकवि
|-
| चन्द्रदूत || विमलकीर्ति
|-
| चारुचर्या || क्षेमेन्द्र
|-
| चौरपंचाशिका || बिल्हण
|-
| जैनदूत || मेरुतुंग
|-
| देवीशतक || आनन्दवर्द्धन
|-
| देशोपदेश || क्षेमेन्द्र
|-
| नर्ममाला || क्षेमेन्द्र
|-
| नीतिमंजरी || द्याद्विवेद
|-
| नेमिदूत || विक्रमकवि
|-
| पञ्चस्तव || श्री वत्सांक
|-
| पवनदूत || धोयी
|-
| पार्श्वाभ्युदय काव्य || जिनसेन
|-
| बल्लालशतक || बल्लाल
|-
| भल्लटशतक || भल्लट
|-
| भाव विलास || रुद्र कवि
|-
| भिक्षाटन काव्य || शिवदास
|-
| मुकुन्दमाल || कुलशेखर
|-
| मुग्धोपदेश || जल्हण
|-
| मेघदूत || कालिदास
|-
| रामबाणस्तव || रामभद्र दीक्षित
|-
| रामशतक || सोमेश्वर
|-
| वक्रोक्तिपंचाशिका || रत्नाकर
|-
| वरदराजस्तव || अप्पयदीक्षित
|-
| वैकुण्ठगद्य || रामानुज आचार्य
|-
| शतकत्रय || भर्तृहरि
|-
| शरणागतिपद्य || रामानुज आचार्य
|-
| शान्तिशतक || शिल्हण
|-
| शिवताण्डवस्तोत्र || रावण
|-
| शिवमहिम्नःस्तव || पुष्पदत्त
|-
| शीलदूत || चरित्रसुंदरगणि
|-
| शुकदूत || गोस्वामी
|-
| श्रीरंगगद्य || रामानुज आचार्य
|-
| समयमातृका || क्षेमेन्द्र
|-
| सुभाषितरत्नभण्डागार || शिवदत्त
|-
| सूर्यशतक || मयूर
|-
| सौन्दर्यलहरी || शंकराचार्य
|-
| स्तोत्रावलि || उत्पलदेव
|-
| हंसदूत || वामनभट्टबाण
|}
 
राजशेखर ने भी मुक्तक नाम से ही चर्चा की है. आनंदवर्धन ने रस को महत्त्व प्रदान करते हुए मुक्तक के संबंध में कहा कि:<blockquote>”तत्र मुक्तकेषु रसबन्धाभिनिवेशिन: कवे: तदाश्रयमौचित्यम्”</blockquote>अर्थात् मुक्तकों में रस का अभिनिवेश या प्रतिष्ठा ही उसके बन्ध की व्यवस्थापिका है और कवि द्वारा उसी का आश्रय लेना औचित्य है.
 
'''हेमचंद्राचार्य''' ने मुक्तक शब्द के स्थान पर मुक्तकादि शब्द का प्रयोग किया. उन्होंने उसका लक्षण दण्डी की परम्परा में देते हुए कहा कि जो अनिबद्ध हों, वे मुक्तादि हैं.
 
आधुनिक युग में हिन्दी के '''आचार्य रामचंद्र शुक्ल''' ने मुक्तक पर विचार किया. उनके अनुसार:<blockquote>मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती, जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है. इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं, जिनमें हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है. '''यदि प्रबंध एक विस्तृत वनस्थली है, तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है.''' इसी से यह समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है. इसमें उत्तरोत्तर दृश्यों द्वारा संगठित पूर्ण जीवन या उसके किसी पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि एक रमणीय खण्ड-दृश्य इस प्रकार सहसा सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मंत्रमुग्ध सा हो जाता है. इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है.</blockquote>आचार्य शुक्ल ने अन्यत्र मुक्तक के लिए भाषा की समास शक्ति और कल्पना की समाहार शक्ति को आवश्यक बताया था. '''गोविंद त्रिगुणायत''' ने उसी से प्रभावित होकर निम्न परिभाषा प्रस्तुत की:<blockquote>मेरी समझ में मुक्तक उस रचना को कहते हैं जिसमें प्रबन्धत्व का अभाव होते हुए भी कवि अपनी कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समाज शक्ति के सहारे किसी एक रमणीय दृश्य, परिस्थिति, घटना या वस्तु का ऐसा चित्रात्मक एवं भावपूर्ण वर्णन प्रस्तुत करता है, जिससे पाठकों को प्रबंध जैसा आनंद आने लगता है.</blockquote>वस्तुत: यह परिभाषा त्रुटिपूर्ण है. प्रबंध जैसा आनंद कहना उचित नहीं है. ऐसे में मुक्तक की परिभाषा निम्न भी बताई गयी है:<blockquote>मुक्तक काव्य की वह विधा है जिसमें कथा का पूर्वापर संबंध न होते हुए भी त्वरित गति से साधारणीकरण करने की क्षमता होती है.</blockquote>मेरी दृष्टि में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परिभाषा पर्याप्त है. अंतत: उसे चुना हुआ गुलदस्ता की कहा जा सकता है.
 
== इन्हें भी देखें ==