"प्रतिमा": अवतरणों में अंतर

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किसी भी वस्तु, व्यक्ति, पशु, या पक्षी की प्रतिमा प्रतिमा कही जा सकती है परंतु भारत में प्रतिमाविज्ञान एवं प्रतिमा कला या मूर्तिकला का जन्म तथा विकास एवं प्रोल्लास देवार्चा से पनपा। सभी ध्यानी, योगी, ज्ञानी नहीं हो सकते थे, अत: 'भावना' के लिये प्रतिमा की कल्पना हुई। कालांतर पाकर पौराणिक पूर्तधर्म (देवतायननिर्माण, देवप्रतिष्ठा एवं देवार्चन) ने प्रतिमानिर्माण की परंपरा में महान योगदान दिया। देवमंदिरों के निर्माण में न केवल गर्भगृह के प्रधान देवता के निर्माण की आवश्यकता हुई वरन् देवगृह के सभी अंगों, भित्तियों, शिखरों आदि पर भी प्रतिमाओं के चित्रणों का एक अनिवार्य अंग प्रस्फुटित हुआ। इस प्रकार प्रधान देवों के साथ साथ परिवार देवों तथा भित्तिदेवताओं की भी प्रतिमाएँ बनने लगीं। मंदिर की भित्तियाँ पौराणिक आख्यानों के चित्रणों से भी विभूषित होने लगीं। अत: हिंदू प्रासाद या विमान पुरुषाकार (विराट् पुरुष के उपलक्षण पर विनिर्मित या प्रतिपादित) हैं अत: नाना उपलक्षणों, प्रतीकों, की पूर्ति के लिये यक्ष, गंधर्व, किन्नर, कूष्मांड, ऋषिगण, वसुगण, शार्दूल, मिथुन, सुर, सुंदरी, वाहन, आयुध आदि भी चित्रित होने लगे जिनकी प्रतिमाएँ भारतीय मूर्तिकला के समुज्वल निदर्शन हैं।
 
उपासना परंपरा में नाना संप्रदायों, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सोर, बौद्ध, (विशेषकर वज्रयान) एवं जैन आदि धार्मिक संप्रदायों मेमें अपनी अपनी धारणाओं के अनुसार प्रतिमा में देवों एवं देवियों के अगणित रूप परिकल्पित किए गए। पुराणों, आगमों, तंत्रों की आधारशिला पर यह वृंहण बहुत आगे बढ़ गया।
 
== सिद्धांत ==