"कथानक रूढ़ि": अवतरणों में अंतर
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दूसरा सूत्र है– "कथानक को गति और घुमाव देने के लिए इन अभिप्रायों का प्रयोग होता है।' [[कथानक]] में समय की गति घटनावली को खोलती चलती है और इसके साथ ही उसका घटना संयोजन, विश्व के युक्तियुक्त संघटन के अनुरूप तर्कसंगत कार्य-कारण-अंत-संबंधों पर आधारित रहता है। कथांतर्गत इस घटनावली को खोलने का अर्थ कथा को गति देना ही है और इसमें कथानक अभिप्रायों का प्रमुख हाथ रहता है। उदाहरण के लिए, "उपश्रुति' नामक अभिप्राय को लिया जा सकता है। प्रिया की खोज में निकला हुआ नायक जब जंगल में भटक जाता है तो कथा को आगे बढ़ाने का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है। ऐसे अवसर पर "उपश्रुति' नामक या किसी ऐसी ही अन्य कथानक रूढ़ि का प्रयोग करके कथा को गति दी जाती है। किसी वृक्ष के नीचे अथवा कोटर में लेटा हुआ निराश प्रेमी वृक्ष के ऊपर बैठे पक्षीयुगल की बातचीत अथवा पक्षी-समूह को किसी एक पक्षी द्वारा किसी कथा के सुनाए जाने के बीच कोई ऐसी सूचना पा जाता है कि उसे अपने प्रिया से मिलने का तरीका मालूम हो जाता है या यह विश्वास हो जाता है कि वह अपनी प्रिया को अवश्य ही प्राप्त कर सकेगा। कभी-कभी तो वक्ता पक्षी अगली सुबह स्वयं उसी जगह जानेवाला होता है जहाँ नायक को पहुँचना रहता है और फिर नायक बड़े कौशल से पक्षी की पूँछ में छिपकर अभीष्ट स्थल पर पहुँच जाता है। कथानक को घुमाव या नया मोड़ देने के सन्दर्भ में "स्त्री की दोहद कामना' को लिया जा सकता है। "दोहद' शब्द का निर्माण "द्विहृद' से हुआ है। आपन्नसत्वा नारी की दोहदकामना स्त्री के जीवन की अति सामान्य एवं परिचित घटना है। इस स्थिति में औरत कभी खट्टा मीठा खाने की इच्छा व्यक्त करती है तो कभी उसका मन चूल्हे की जली हुई मिट्टी खाने के लिए आतुर हो उठता है। पति गर्भवती पत्नी की प्रत्येक इच्छा पूरी करने के लिए तत्पर रहता है और उसकी दोहदकामना को पूर्ण करना अपना परम कर्तव्य समझता है। कथाकारों ने इस दोहदकामना को अभिप्राय के रूप में ग्रहण करके विभिन्न अवसरों पर विविध प्रकार से इसके चामत्कारिक तथा अद्भूत प्रयोग किए हैं और जैन कथाकारों ने तो इसे अपना सर्वाधिक प्रिय अभिप्राय बना लिया था। हर अर्हत अथवा चक्रवर्तिन् की उत्पत्ति के पूर्व उसकी माता कोई पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने की दोहदकामना करती दिखाई पड़ती है। "समरादित्य संक्षेप' और इसके आधार पर प्राकृत भाषा में रचित "समराइच्च कहा' में प्रमुख संभ्रांत व्यक्तियों के पुनर्जन्मों के अवसरों पर लगभग सभी गर्भिणी स्त्रियाँ दोहदकामना व्यक्त करती हैं। अन्य अनेक कथाओं में भी कथा को नया मोड़ देने के लिए नायिकाएँ चंद्रपान करने, की, पति के रक्त में स्नान करने की अथवा किसी रक्तवापी में स्नान करने की इच्छा व्यक्त करती देखी जाती हैं। नायक कृत्रिम रक्तवापी बनवाकर प्रिया को उसमें स्नान करवाता है। वापी से बाहर निकलने पर ऊपर से नीचे तक रक्तस्नात स्त्री को आकाश में मँडराता कोई भरुंड, गरुड़, अथवा गिद्ध मांसपिंड समझकर चोंच में दबाकर उड़ा ले जाता है। तत्पश्चात् नायक को उसे पाने के लिए अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं। कहीं राक्षसों से मुठभेड़ होती है तो कहीं किसी मंत्रविद् से निपटना पड़ता है और अंत में वह पत्नी को पा लेता है। इस प्रकार कथानक एक नई दिशा प्राप्त करके ही सामने नहीं आता, उसमें अनेक रोमांचक एवं अद्भुत घटनाओं का सन्निवेश भी हो जाता है। केवल यहीं नहीं कथा आरंभ करने एवं उसको चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने में भी इन कथानक अभिप्रायों से पर्याप्त सहायता ली जाती है। कोई हंस अथवा शुक नायक के हाथ लग जाता है और किसी सुंदरी का रूपगुण वर्णन करके उसे प्रेमातुर बना देता है। प्रेमिका को पाने के लिए नायक योगीवेश में निकल पड़ता है। इस प्रकार कथा का सुप्रारंभ होता है जो उत्तरोत्तर कौतूहलपूर्ण एवं जिज्ञासापूर्ण बनता जाता है। कथा का चामत्कारिक अंत करने के लिए बहुत बार नायक की अनुपस्थिति में किसी मनचले अथवा विषयी राजा या राजकुमार की ओर से कोई कुट्टनी नायिका के पास भेज दी जाती है। किंतु नायिका सत् से नहीं डिगती। नायक के लौट आने पर वह उक्त घटना उसे सुनाती है जिससे आगबूबला होकर नायक प्रतिद्वंद्वी से युद्ध ठान देता है और समरांगण में शत्रु को मारने में इतना घायल हो जाता है कि उसके स्वयं के प्राण भी नहीं बचते और नायिका उसके शव के साथ सती हो जाती है। पर-काय-प्रवेश आदि कुछ अभिप्रायों में संपूर्ण कथा का संघटन करने की क्षमता भी रहती है।
द्विवेदी जी के उपर्युक्त कथन से तीसरा सूत्र यह प्राप्त होता है कि "दीर्घकाल से व्यवहृत होनेवाले ये अभिप्राय थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और आगे चलकर कथानक रूढ़ियों में बदल जाते हैं।' प्रस्तुत पंक्तियों को सरसरी तौर पर देखने से ऐसा आभास होता है कि "कथानक अभिप्राय' और "कथानक रूढ़ि' भिन्नार्थक हैं। किंतु जरा गहरे पैठने पर यह भ्रम छिन्न-भिन्न हो जाता है, क्योंकि आरंभ में किसी भी अभिप्राय का प्रयोग किसी विशेष उद्देश्य को लेकर किया जाता है और ऐसा करते समय उक्त अभिप्राय के मूल में वास्तविकता की कोई न कोई मात्रा अवश्य रहती है। पश्चात् कल्पना के संयोजन से उक्त अभिप्राय को उत्तरोत्तर ऐसा रूप मिलता चला जाता है कि उसमें विश्वसीय
कथानक रूढ़ि जहाँ कथानक को गति या घुमाव देने अथवा चामत्कारिक ढंग से समाप्त करने आदि में असमर्थ रहती है वहाँ उसे कथारूढ़ि या मात्र रूढ़ि कहा जाएगा, कथानक रूढ़ि नहीं। उदाहरणस्वरूप नूर मुहम्मद कृत इंद्रावती के पूर्वार्ध में इंद्रावती से विवाह करने के लिए समुद्र से मोती निकाल लाने का अनुबंध "कथानक रूढ़ि' है क्योंकि उसी को पूरा करने जाने के कारण राजकुँवर को दुर्जनराय का बंदी बनना पड़ा और बुद्धसेन तथा इंद्रावती दोनों ने प्रयत्न करके कृपा नामक राजा के द्वारा दुर्जनराय का नाश करवाकर राजकुँवर को कैद से मुक्त करवाया। कथा का विस्तार भी हुआ और उसे एक नया मोड़ भी मिला। लेकिन रसरतन में ऐसी कोई शर्त न रहने से स्वयंवर में रंभा सूरसेन का सीधे वरण कर लेती है। कथा को इससे न कोई गति मिलती है और न ही किसी प्रकार का घुमाव अथवा विस्तार। अत: यहाँ स्वयंवर या विवाह एक कथारूढ़ि या रूढ़ि भर है जिसका आयोजन केवल कथा के कालानुक्रमिक वर्णन को व्यवस्थित रखने के लिए ही किया गया है।
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