"महाकाव्य": अवतरणों में अंतर

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== महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत ==
महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। [[अरस्तु|अरस्तू]] ने त्रासदी से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्वतत्त्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।
 
=== कथावस्तु ===
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*(2) उसका आयाम विस्तृत होना चाहिए जिसके अंतर्गत विविध उपाख्यानों का समावेश हो सके। "उसमें अपनी सीमाओं का विस्तार करने की बड़ी क्षमता होती है" क्योंकि त्रासदी की भांति वह रंगमंच की देशकाल संबंधी सीमाओं में परिबद्ध नहीं होता। उसमें अनेक घटनाओं का सहज समावेश हो सकता है जिससे एक ओर काव्य को घनत्व और गरिमा प्राप्त होती है और दूसरी ओर अनेक उपाख्यानों के नियोजन के कारण रोचक वैविध्य उत्पन्न हो जाता है।
*(3) किंतु कथानक का यह विस्तार अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। उसमें एक ही कार्य होना चाहिए जो आदि मध्य अवसान से युक्त एवं स्वत: पूर्ण हो। समस्त उपाख्यान इसी प्रमुख कार्य के साथ संबंद्ध और इस प्रकार से गुंफित हों कि उनका परिणाम एक ही हो।
*(4) इसके अतिरिक्त [[त्रासदी]] के वस्तुसंगठन के अन्य गुण -- पूर्वापरक्रम, संभाव्यता तथा कुतूहल—भी महाकाव्य में यथावत् विद्यमान रहते हैं। उसकी परिधि में अद्भुत एवं अतिप्राकृत तत्वतत्त्व के लिये अधिक अवकाश रहता है और कुतूहल की संभावना भी महाकाव्य में अपेक्षाकृत अधिक रहती है। कथानक के सभी कुतूहलवर्धक अंग, जैसे स्थितिविपर्यय, अभिज्ञान, संवृति और विवृति, महाकाव्य का भी उत्कर्ष करते हैं।
 
=== पात्र ===
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=== भाषा, शैली और छंद ===
[[अरस्तु|अरस्तू]] के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्वतत्त्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।
 
महाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। [[जॉन हेरिंगटन]] वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्वतत्त्व मानते हैं। [[फ़्रान्स|फ्रांस]] के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।
 
== सारांश ==
भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों के उपर्युक्त निरूपण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में ही महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में एक ही गुण पर बार-बार शब्दभेद से बल दिया गया है और वह है - भव्यता एवं गरिमा, जो औदात्य के अंग हैं। वास्तव में, महाकाव्य व्यक्ति की चेतना से अनुप्राणित न होकर समस्त युग एवं राष्ट्र की चेतना से अनुप्राणित होता है। इसी कारण उसके मूल तत्वतत्त्व देशकाल सापेक्ष न होकर सार्वभौम होते हैं -- जिनके अभाव में किसी भी देश अथवा युग की कोई रचना महाकाव्य नहीं बन सकती और जिनके सद्भाव में, परंपरागत शास्त्रीय लक्षणों की बाधा होने पर भी, किसी कृति को महाकाव्य के गौरव से वंचित करना संभव नहीं होता। ये मूल तत्वतत्त्व हैं -
 
*(1) उदात्त कथानक
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महाकाव्य के '''शैलीगत विकास''' में प्रसादात्मक शैली में रामायण, महाभारत, कालिदास, अश्वघोष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। अलंकारात्मक शैली, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्यों में प्राप्त होती है। श्लेषात्मक शैली, द्वयर्थक काव्यों में प्राप्त होती है। द्वयर्थक काव्य ध्नंजयकृत- द्विसन्धनकाव्य, कविराजसूरिकृत-राघवपाण्डवीय, राघवचूड़ामणिदीक्षितकृत-राघवायादव- पाण्डवीय।
 
'''महाकाव्यों का उद्भव''' [[ऋग्वेद]] के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और ऊषाउषा आदि के स्तुतिमंत्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन अख्यान आदि का विस्तृत रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में बदल गया। क्रौंचवध से दुःखी मनवाले महाकवि [[वाल्मीकि]] के वाणी से निकला व्याध-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्...) वाल्मीकिकृत रामायण के रूप में आदि काव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया तथा इसके प्रणेता वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ। वाल्मीकिकृत रामायण तथा [[रामायण]] के बाद [[वेदव्यास]]कृत [[महाभारत]] भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गये।
 
भारतीय परम्परा [[वेद]] को ही काव्य, शास्त्र आदि का उत्पत्तिस्थल मानती रही है। वैदिक मनीषी की सर्वाधिक मनोहर कल्पनायें ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ निकली हुई है। देवस्तुति के अतिरिक्त नाराशंसियों में भी काव्यात्मक रूप झलकता है। तत्कालीन उदार राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ नाराशंसी कहलाती है। ऐतरेयब्राह्मण की सप्तम पंचिका में [[शुनःशेप]] आख्यान एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’के अनेक अंश सुन्दर काव्य की छटा बखिरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्यतत्त्वों का अस्तित्त्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। संस्कृत महाकाव्य धरा की मूल उद्गम स्थली आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी विशेषताओं का दर्शन हो जाता है। संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की विकास-परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ - [[पाणिनि]], [[वररुचि]] तथा [[पतञ्जलि|पतंजलि]] का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य [[रुद्रट]] द्वारा रचित ‘[[काव्यालंकार सूत्र]]’ के टीकाकार [[नेमिसाधु]] ने पाणिनि द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविजय’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के [[महाभाष्य]] (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध होते हैं। इन सब प्रमाणों के आधर पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनि द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में [[राजशेखर]] ने पाणिनि को ‘व्याकरण’ तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है-
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* [[रावण वही]] (रावण वध)
* [[लीलाबई]] (लीलावती)
* [[सिरिचिन्हकव्वं]] (श्री चिन्हचिह्न काव्य)
* [[उसाणिरुद्म]] (उषानिरुद्ध)
* [[कंस वही]] (कंस वध)