"मृच्छकटिकम्": अवतरणों में अंतर

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'''तीसरा अंक (संधिच्छेद)''' : शार्विलक नाम का ब्राह्मण वसन्तसेना की दासी मदनिका से प्रेम करता है। उसे दासत्व से छुड़ाने के लिए वह एक रात चारुदत्त के घर में [[सेंध]] लगाकर वसन्तसेना द्वारा धरोहर रखे गए सोने के सारे आभूषण चुरा लेता है। उधर चारुदत्त की पतिव्रता पत्नी धूता अपने पति को लोकनिन्दा से बचाने के लिए, चुराए गए आभूषाणों के बदले में अपनी कीमती रत्नावली देती है, चारुदत्त वह रत्नावली देकर [[विदूषक]] मैत्रेय को वसन्तसेना के घर भेजता है।
 
'''चौथा अंक (मदनिका-शर्विलक)''' : शार्विलक चुराए हुए आभूषाण लेकर मदनिका को दासत्व से मुक्त कराने के लिए वसन्तसेना के घर पहुँचता है। चोरी की बात सुनकर मदनिका बहुत दुखी होती है। इस गलती को सुधारने की भावना से वह शार्विलक को यह समझाती है कि चोरी के आभूषाण वसन्तसेना को सौंप देने से न वह चोर रहेगा, न चारुदत्त के सिर पर ऋण रहेगा और वसन्तसेना के आभूषण उसे वापिसवापस मिल जाएँगे, शार्विलक ऐसा ही करता है। वह वसन्तसेना से कहता है कि चारुदत्त ने यह संदेश भेजा है कि घर जर्जर होने से हम स्वर्णपात्र को सुरक्षित नहीं रख सकते, अतः आप इसे अपने पास रखें। वसन्तसेना संदेश के बदले में कुछ ले जाने की बात कहकर मदनिका को शार्विलक को सौंप देती है। इसी अंक में विदूषक वसन्तसेना से मिलकर कहता है कि स्वर्णपात्र [[जुआ|जुए]] में हार गए हैं इसलिए यह रत्नावली स्वीकार करें। वसन्तसेना वास्तविकता जानती है, पर कुछ नहीं करती। वह शाम को चारुदत्त के घर आने का निश्चय करती है।
 
'''पाँचवाँ अंक (दुर्दिन)''' : इस अंक में वर्षा-ऋतु वर्णन हुआ है। वसन्तसेना चारुदत्त से मिलती है और वर्षा की झड़ी के कारण रात उसी के घर रुक जाती है।
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ये इसकी विशेषताएँ हैं। इस नाटक की राजनीतिक विशेषता यह है कि इसमें क्षत्रिय राजा बुरा बताया गया है। गोप-पुत्र 'आर्यक' एक ग्वाला है, जिसे कवि राजा बनाता है। यद्यपि कवि वर्णाश्रम को मानता है, पर वह गोप को ही राजा बनाता है।
 
ऐसा लगता है कि यह मूलकथा पुरानी है और सम्भवतः यह घटना कोई वास्तविक घटना है जो किंवदन्ती में रह गई। दासप्रथा के लड़खड़ाते समाज का चित्रण बहुत सुन्दर हुआ है और यह हमें [[चाणक्य]] के समय में मिलता है, जब ‘आर्य’ शब्द ‘नागरिक’ ([[रोमन]] : 'Citizen') के रूप में प्रयुक्त मिलता है। हो सकता है, कोई पुरानी किंवदन्ती चाणक्य के बाद के समय में इस कथा में उतर आई हो। [[महात्मा बुद्ध|बुद्ध]] के समय में व्यापारियों का उत्कर्ष भी काफी हुआ था। तब उज्जयिनी का राज्य अलग था, कोसल का अलग। यहाँ भी उज्जयिनी का वर्णन है। एक जगह लगता है कि उस समय भी [[भारत]] की एकता का आभास था, जब कहा गया है कि 'सारी पृथ्वी आर्यक ने जीत ली' – वह पृथ्वी जिसकी कैलासकैलाश पताका है। देखा जाए तो कवि यथार्थवादी था और निष्पक्ष था। उसने सबकी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दिखाई हैं और बड़ी गहराई से चित्रण किया है। यही उसकी सफलता का कारण है।
 
== रचनाकार एवं रचनाकाल ==
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=== प्राचीनता ===
मृच्छकटिक’ की कथा का केन्द्र है उज्जयिनी। वह इतना बड़ा नगर है कि [[पाटलिपुत्र]] का संवाहक उसकी प्रसिद्धि सुनकर बसने को, धन्धा प्राप्त करने को, आता है। उस समय वह पाटलिपुत्र को महानगर नहीं कहता। इसका मतलब है कि उस समय पाटलिपुत्र से अधिक महत्वमहत्त्व उज्जयिनी का था। स्पष्ट ही पाटलिपुत्र बुद्ध के समय में पाटलिपुत्र (ग्राम) था, जबकि उज्जयिनी में महासेन चण्ड प्रद्योत का समृद्ध राज्य था। दूसरी प्राचीनता है कि इसमें दास प्रथा बहुत है। दास-दासी धन देकर आज़ाद कर लिए जाते थे। उस समाज में [[गणिका]] भी वधू बन जाती थी। यह सब बातें ऐसे समाज की हैं, जहाँ ज़्यादा कड़ाई नहीं मिलती, जो बाद में चालू हुई थी। बल्कि कवि ने गणिका को वधू बनाकर समाज में एक नया आदर्श रखा है। उसमें विद्रोह की भावना है। अत्याचारी को वह पशु की तरह मरवाता है, स्त्री को ऊँचा उठाता तथा दास स्थावरक को आज़ाद करता है। यों कह सकते हैं कि यह नाटक जोकि शास्त्रीय शब्दों में प्रकरण है – बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। कौन जानता है, ऐसे न जाने कितने सामाजिक नाटक काल के गाल में खो गए। [[हूण|हूणों]] से लेकर तुर्कों तक के विध्वंसों ने न जाने कितने ग्रन्थ-रत्न जला डाले !
 
== अनुवाद एवं टीकाएँ ==