"निरुक्त": अवतरणों में अंतर

छो 103.252.171.159 (वार्ता) द्वारा किए बदलाव को InternetArchiveBot के बदलाव से पूर्ववत किया: स्पैम लिंक।
टैग: किए हुए कार्य को पूर्ववत करना SWViewer [1.4]
छो ऑटोमैटिड वर्तनी सुधार
 
पंक्ति 3:
'''निरुक्त''' वैदिक साहित्य के शब्द-व्युत्पत्ति (etymology) का विवेचन है। यह [[हिन्दू]] धर्म के छः [[वेदांग|वेदांगों]] में से एक है - इसका अर्थ: व्याख्या, [[व्युत्पत्तिशास्त्र|व्युत्पत्ति]] सम्बन्धी व्याख्या। इसमें मुख्यतः वेदों में आये हुए शब्दों की पुरानी व्युत्पत्ति का विवेचन है। निरुक्त में शब्दों के अर्थ निकालने के लिये छोटे-छोटे [[सूत्र]] दिये हुए हैं। इसके साथ ही इसमें कठिन एवं कम प्रयुक्त वैदिक शब्दों का संकलन (glossary) भी है। परम्परागत रूप से [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] के प्राचीन [[वैयाकरण]] (grammarian) '''[[यास्क]]''' को इसका जनक माना जाता है।
 
वैदिक शब्दों के दुरूह अर्थ को स्पष्ट करना ही निरुक्त का प्रयोजन है। ऋग्वेदभाष्य भूमिका में [[सायण]] ने कहा है ''अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्'' अर्थात् अर्थ की जानकारी की दृष्टि से स्वतंत्ररूप से जहाँ [[पद|पदों]] का संग्रह किया जाता है वही निरुक्त है। [[शिक्षा]] प्रभृत्ति छह [[वेदांग|वेदांगों]] में निरुक्त की गणना है। [[पाणिनि]] शिक्षा में "निरुक्त श्रोत्रमुचयते" इस वाक्य से निरुक्त को वेद का कान बतलाया है। यद्यपि इस शिक्षा में निरुक्त का क्रमप्राप्त चतुर्थ स्थान है तथापि उपयोग की दृष्टि से एवं आभ्यंतरअभ्यंतर तथा बाह्य विशेषताओं के कारण वेदों में यह प्रथम स्थान रखता है। निरुक्त की जानकारी के बिना भेद वेद के दुर्गम अर्थ का ज्ञान संभव नहीं है।
 
[[काशिकावृत्ति]] के अनुसार निरूक्त पाँच प्रकार का होता है— वर्णागम (अक्षर बढ़ाना) वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना), वर्णाधिकार (अक्षरों को वदलना), नाश (अक्षरों को छोड़ना) और धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ब करना। इस ग्रंथ में यास्क ने शाकटायन, गार्ग्य, शाकपूणि मुनियों के शब्द-व्युत्पत्ति के मतों-विचारों का उल्लेख किया है तथा उसपर अपने विचार दिए हैं।
पंक्ति 26:
निरुक्त के बारह अध्याय है। प्रथम में व्याकरण और शब्दशास्त्र पर सूक्ष्म विचार हैं। इतने प्राचीन काल में शब्दशास्त्र पर ऐसा गूढ़ विचार और कहीं नहीं देखा जाता। शब्दशास्त्र पर अनेक मत प्रचलित थे इसका पता यास्क के निरूक्त से लगता है। कुछ लोगों का मत था कि सभी शब्द [[धातु]]मूलक हैं और धातु क्रियापद मात्र हैं जिनमें [[प्रत्यय]] आदि लगाकर भिन्न शब्द बनते हैँ। इस मत के विरोधियों का कहना था कि कुछ शब्द धातुरुप क्रियापदों से बनते है पर सब नहीं, क्योंकि यदि 'अशं' से अश्व माना जाय तो प्रत्य़ेक चलने या आगे बढ़नेवाला पदार्थ अश्व कहलाएगा। यास्क ने इसी विरोधी मत का खंडन किया है। यास्क मुनि ने इसके उत्तर में कहा है कि जब एक क्रिया से एक पदार्थ का नाम पड़ जाता है तब वही क्रिया करनेवाले और पदार्थ को वह नाम नहीं दिया जाता। दूसरे पक्ष का एक और विरोध यह था कि यदि नाम इसी प्रकार दिए गए है तो किसी पदार्थ में जितने-जितने गुण हों उतने ही उसका नाम भी होने चाहिए। यास्क इसपर कहते है कि एक पदार्थ किसी एक गुण या कर्म से एक नाम को धारण करता है। इसी प्रकार और भी समझिए। दूसरे और तीसरे अध्याय में तीन निधंटुओं के शब्दों के अर्थ प्रायः व्यख्या सहित है। चौथे से छठें अध्याय तक चौथे निघंटु की व्याख्या है। सातवें से बारहवें तक पाँचवें निघंटु के वैदिक देवताओं की व्याख्या है।
 
== निरुक्त का महत्वमहत्त्व ==
निरुक्त की उपादेयता को देखकर अनेक पाश्चात्य विद्वान इस पर मुग्ध हुए हैं। उन्होंने भी इसपर लेखनकार्य किया है। सर्वप्रथम रॉथ ने जर्मन भाषा में निरुक्त की भूमिका का अनुवाद प्रकाशित किया है। जर्मन भाषा में लिखित इस अनुवाद का प्रो॰ मैकीशान ने आंग्ल अनुवाद किया है। यह [[मुंबई विश्वविद्यालय|बंबई विश्वविद्यालय]] द्वारा प्रकाशित है। स्कोल्ड ने जर्मन देश में रहकर इस विषय पर अध्ययन किया है और इसी विषय पर प्रबंध लिखकर प्रकाशित किया है।