"गोरिल्ला युद्ध": अवतरणों में अंतर

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सन् 1941 के वसंत में जर्मनों ने यूगोस्लाविया पर अधिकार कर लिया। देश के अधिकृत होने के पश्चात् ही जोसिप व्रोज़ोविक (टिटो) की अध्यक्षता में वहाँ के लोगों ने एक छापामार दल बनाया जो शत्रु सेना के विरुद्ध कार्य करता था। शस्त्रों की आवश्यकता की पूर्ति वहाँ की जनता से, या शत्रुदल से छीने हुए शस्त्रों से, होती थी। जर्मनी और इटली की सैनिक टुकड़ियों ओर उनके अड्डों पर आक्रमण करके इन्होंने युद्ध का सामान प्राप्त किया। सफलता के साथ साथ इनकी संख्या में भी वृद्धि हुई। सन् 1943 ई. के अंत तक यह संख्या लगभग 1,50,000 हो गई। यह शक्ति युगोस्लाविया भर में फैली हुई थी और विशेष रूप से जंगलों और पहाड़ों में स्थित थी। संचार व्यवस्था, जहाँ तक संभव हो सकता था, शत्रु दल से छीने गए रेडियो सेटों से चलती थी। यूगोस्लाविया के इस दल का उद्देश्य शत्रु के उन संपन्न लक्ष्यों पर आक्रमण करना था जो दुर्बल थे और जहाँ आक्रमण होने की सबसे कम अपेक्षा की जाती थी। इसके अतिरिक्त किसी भी अवस्था में वे ऐसा अवसर नहीं देना चाहते थे कि शत्रु उनपर प्रत्याक्रमण कर सकें।
 
टिटो के पक्षावलंबी प्रदाय, आश्रय और सूचना के लिये नागरिकों पर आश्रित थे। सभी छापामार युद्धों में नागरिकों का व्यवहार अत्यंत महत्वमहत्त्व का होता है। नागरिकों ने छापामारों को जो सहायता दी थी उसका दंड उन्हें भुगतना पड़ा। सहस्त्रों पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे मौत के घाट उतार दिए गए। हजारों गाँव लूट लिए गए और जलाकर ध्वस्त कर दिए गए।
 
तीन वर्ष की अवधि में शत्रुदल ने सात बार छापामारों को नष्ट करने के लिये आक्रमण किए और वायुसेना का भी सहारा लिया, किंतु प्रत्येक बार टिटो के पक्षावलंबी किसी न किसी प्रकार बच गए और धुरी राष्ट्र पर ऐसे स्थान पर आक्रमण करने के लिये फिर प्रकट हुए जहाँ उनके आक्रमण की आशा नहीं की जा सकती थी। आधुनिक वायुसेना और छापामारों के सहयोग से क्या परिणाम निकल सकते हैं, युगोस्लाविया इसका प्रमाण है।
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यह सिद्ध हो चुका है कि छापामार युद्ध के सिद्धांत आज भी वही हैं जो युद्ध के आरंभिक समय में थे। आज भी छापामार तीव्र गति से चलते हैं, धोखा देकर शत्रुदल पर वहाँ आक्रमण करते हैं जहाँ वह सबसे अधिक दुर्बल होता है। साथ ही वे शत्रु को प्रत्याक्रमण करने का अवसर भी नहीं देते।
 
युद्ध में प्रयुक्त होनेवाले शस्त्रों, साज सामानों, सैनिक स्थापनों आदि व्यवस्थाओं की भेद्यता के साथ साथ ही, जिनकी सहायता से शीघ्रतापूर्वक आक्रमण या अंतध्र्वंस संभव है, छापामारों का क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। साथ ही आधुनिक युद्धविधियों में भी इस प्रकार के युद्ध का महत्वमहत्त्व बढ़ गया है। सुनिर्धारित लक्ष्य और युद्धकौशल की परमावश्यक शृंखलाओं के विनाश द्वारा शत्रु के आक्रमण की सारी योजनाओं को विफल बनाया जा सकता है। भौगोलिक परिस्थितियाँ भी अपना विशेष महत्वमहत्त्व रखती हैं और छापामारी के लिये सुविधाजनक कार्यक्षेत्र अत्यंत आवश्यक है।
 
द्वितीय विश्वयुद्ध में मोरचों के शीघ्र बढ़ने के फलस्वरूप छापामारों के शत्रुसेना में प्रवेश की संभावनाएँ बढ़ गर्इं और कहीं कहीं तो नियमित सेना की टुकड़ियाँ तक शत्रुदल के पृष्ठभाग पर पहुंच गई। अब तो छापामारों और नागरिकों के सहयोग से किए जा सकनेवाले छापामारी के कार्यों का क्षेत्र अत्यंत विशाल हो गया है। इस प्रकार के युद्धों में जनता की सहायता और शुभेच्छा प्राप्त करना अनिवार्य बन गया है।
 
रेडियो और विमान, इन दो आविष्कारों ने छापामार युद्ध में क्रांति ला दी। जहाँ छापामारों को इन साधनों से सहायता प्राप्त करने का मार्ग खुला वहाँ ये उपकरण उनका पीछा करने के काम भी आने लगे। फिर भी इनमें हानि की अपेक्षा लाभ अधिक हुआ। पहले छापामारों को अपने साथियों के समाचार कभी कभी ही मिल पाते थे, किंतु अब लघु वहनीय प्रेषकों की सहायता से उन्हें इच्छानुसार अपने साथियों से संपर्क स्थापित करने की सुविधा मिल गई। फिर वायुयानों, द्वारा छापा तथा अन्य सभी प्रकार की अनियमित सेनाओं को उतारने, उन्हें लेने, उनकी शक्ति को सुदृढ़ बनाने और प्रदाय तथा सामरिक महत्वमहत्त्व की अन्य वस्तुओं को उन्हें उपलब्ध कराने का भी कार्य संपन्न होने लगा।
 
छापामारों का प्रमुख कार्य है शत्रुसेना को उनके पृष्ठभाग से मिलने वाली सामग्री का विनाश करना। आणविक शस्त्रों के विकास को देखते हुए सामरिक नीति बदलेगी। सेनाएँ छोटी छोटी टुकड़ियों में विभाजित होंगी। प्रदाय स्त्रोतों, युद्ध आधारों, उद्योगों तथा अन्य सामरिक व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करना आवश्यक होगा। फलस्वरूप, यदि आणविक शक्ति का प्रयोग हुआ, तो छापामारों के लक्ष्य आकार में छोटे और संरक्षण अधिक हो जायँगे। परिणाम यह होगा कि छापामारी का क्षेत्र विशाल और अधिक प्रभावी बन जायगा। नियमित सेना भी छोटी छोटी टुकड़ियों में युद्ध करेगी। इन परिस्थितियों में छापामार युद्ध ही विशेष सफल हो सकेंगे। यह कहना अनुचित न होगा कि युद्ध में आणविक शस्त्रों का प्रयोग होने पर केवल छापामार युद्ध ही प्रमुख महत्वमहत्त्व का होगा और अन्य विधियों का साधारण उपयोग ही रह जायगा।
 
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