"आश्रम": अवतरणों में अंतर
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प्राचीन काल में व्यक्तिगत व्यवस्था के दो स्तंभ थे - [[पुरुषार्थ]] और [[आश्रम]]<ref>{{Cite web|url=https://www.keshavyogi.online/2021/04/%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20.html|title=वैदिक धर्म में पुरुषार्थ व आश्रम व्यवस्था तथा वैदिक साहित्य व वेदांग आदि का वर्णन|access-date=2021-05-07}}</ref>। सामाजिक प्रकृति-गुण, कर्म और स्वभाव-के आधार पर वर्गीकरण चार वर्णो में हुआ था।
व्यक्तिगत संस्कार के लिए उसके जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया था। ये चार आश्रम थे-
(१) ब्रह्मचर्य, (२) गार्हस्थ्य, (३) वानप्रस्थ और (४) संन्यास।
[[अमरकोश]] (७.४) पर टीका करते हुए भानु जी दीक्षित ने 'आश्रम' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है: '''आश्राम्यन्त्यत्र। अनेन वा। श्रमु तपसि। घं्ा। यद्वा आ समंताछ्रमोऽत्र। स्वधर्मसाधनक्लेशात्'''। अर्थात् जिसमें स्म्यक् प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा [https://www.keshavyogi.online/2021/04/%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20%20.html आश्रम जीवन] की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। आश्रम का अर्थ 'अवस्थाविशेष' 'विश्राम का स्थान', 'ऋषिमुनियों के रहने का पवित्र स्थान' आदि भी किया गया है।
आश्रमसंस्था का प्रादुर्भाव वैदिक युग में हो चुका था, किंतु उसके विकसित और दृढ़ होने में काफी समय लगा। वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य अथवा गार्हपत्य का स्वतंत्र विकास का उल्लेख नहीं मिलता। इन दोनों का संयुक्त अस्तित्व बहुत दिनों तक बना रहा और इनको वैखानस, पर्व्राािट्, यति, मुनि, श्रमण आदि से अभिहित किया जाता था। वैदिक काल में कर्म तथा कर्मकांड की प्रधानता होने के कारण निवृत्तिमार्ग अथवा संन्यास को विशेष प्रोत्साहन नहीं था। वैदिक साहित्य के अंतिम चरण उपनिषदों में निवृत्ति और संन्यास पर जोर दिया जाने लगा और यह स्वीकार कर लिया गया था कि जिस समय जीवन में उत्कट वैराग्य उत्पन्न हो उस समय से वैराग्य से प्रेरित होकर संन्यास ग्रहण किया जा सकता है। फिर भी संन्यास अथवा श्रमण धर्म के प्रति उपेक्षा और अनास्था का भाव था।
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