"शिया इस्लाम": अवतरणों में अंतर

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सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज मेंसे निकलने के बाद रास्ते मे [[ग़दीर]] के [[ख़ुम]] नामक [[मैदान]] के निकट अपने साथियों को संबोधित किया था।
पैग़म्बर ने वहां आदेश दिया कि पीछे छूट गए सभी लोगों को आने दिया जाए और आगे निकल गए लोगों को वापस बुला लिया जाए , इस तरह शिया इतिहासकारों के अनुसार वहां 125,000 (सवा लाख) लोग एकत्रित हुए , इसके पश्चात पैग़म्बर ने ऊंट के कजावे से एक [[मिम्बर]] बनाने की आज्ञा दी और उसपर [[अली]] का हाथ अपने हाथ में लेकर ऊपर उठाते हुए कहा "मन कुंतो मौला हो फहाज़ा अलीयून मौला " अर्थात " जिस जिस का मैं मौला (स्वामी) हूँ उस उस के मौला (स्वामी) [[अली]] हैं"
इसके पश्चात पैग़म्बर [[मुहम्मद]] ने प्रसिद्ध हदीस "अकमलतो लकुम दिनोकुम" अर्थात "आज धर्म पूर्ण हो गया " (धर्म पूरी तरह से समझा दिया गया ) ऐसा कहा ! (सुन्नी इतिहासकार मानते है कि ये हदीस ग़दीर में नही बल्कि आखरी हज मे आखरी प्रवचन मे मक्का मे सभी मुसलमानो के सामने कही जो पूरे अरब से आये थे उनके सामने कही गयी थी) और यही दुनिया भर मुस्लिम और गैर मुस्लिम इतिहासकारो मे स्वीकार्य है।
शिया किताबो के अनुसार इसी समय एक व्यक्ति ने पैग़म्बर से सवाल किया कि ये आप अपनी तरफ से कह रहे हैं या [[अल्लाह]] का पैगाम पहुंचा रहें है ? जिसके जवाब में पैग़म्बर ने कहा "ये [[अल्लाह]] की आज्ञा है जो मुझसे कहते हैं कि अगर ये (अली के उत्तराधिकार की घोषणा) ना पहुंचाया (किया) तो जैसे मैने कोई पैग़म्बरी का कार्य ही नहीं किया "
शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है।
हालांकि उक्त घटना का लगभग सटीक वर्णन सुन्नी इस्लाम की बहुधा किताबों में मिलता है जो शिया सम्प्रदाय के दावे को बल देता है !है।
 
हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े [[सहाबा|सहाबियों]] को बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता (दस्तावेज) लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो [[उमर]] ने कहा कि ये हिजयान (बीमारी की हालत में ) कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम सुन्नी हदीस किताब)। बहोत सी सुन्नी हदीस और इतिहासिक किताबो मे लिखा है कि मुहम्मद साहब ने मुँह से बोल कर बता दिया कि वो क्या लिखवाना चाहते है और इसमे इस्लामी रियासत किस तरह से स्थापित की जाए उसका वर्णन था जिसमे से एक वर्णन ये आता है कि यहूदियो को जिजाये अरब से बाहर निकाल दिया जाए।
शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो जहां [[अली]] एवं अन्य कुटुम्बी [[बनी हाशिम]] उनकी अंत्येष्टि का प्रबंध करने लगे वहीं [[उमर]] , [[अबूबकर]] और उनके अन्य साथी भी वहां ना आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे, [[अबु बक्र|अबु बक़र]] मदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) [[अबु बकर]] को खलीफा बनाने प‍र सहमत हो गये। शिया मान्यताओं के अनुसार [[मोहम्मद]] साहेब एवम अली के कबीले वाले यानि [[बनी हाशिम]] अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार [[अली]], जो [[मुहम्मद]] साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान [[फ़ातिमा]] से शादी की थी) ही [[मुहम्मद]] साहब के असली वारिस थे। परन्तु [[अबु बक़र]] पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद [[उमर]] को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे।
येशिया बातकिताबो ध्यानमें देनेवर्णन योग्य है किके अनुसार[[उमर]] का पुत्र [[अब्दुल्लाह बिन उमर]] ने अपने बाप के उलट [[अली]] को ही पैग़म्बर का वारिस माना और [[अबुबकर]] के बेटे [[मुहम्मद बिन अबुबकर]] ने भी अपने दादा यानी [[कहाफ़ा]] की तरह अली का ही साथ दिया!
=== उस्मान की ख़िलाफ़त ===
उमर के बाद तीसरे खलीफ़ा [[उस्मान बिन अफ़्फ़ान|उस्मान]] बने। [[उस्मान]] ने पैग़म्बर के समय के [[बद्र की लड़ाई]] और कई अन्य कई मार्को पर जारी किए हुए वृत्तियाँ अर्थात वज़ीफ़े जो तत्कालीन इस्लामी योद्धाओं को युद्ध में अपंगता या शहीद हो जाने के एवज में दिए जाते थे, बन्द कर दिए और [[बैतुल माल |सरकारी खजाने]] से बहुत अधिक खर्च अपनी इच्छा से करना शुरू कर दिया ! अपने संबंधियों को उच्च पद और गवर्नर नियुक्त कर दिया ! ये सब देख कर लोगों ने उनके खिलाफ बग़ावत की और उन्हें "नासिल" अर्थात गया"गबन करने वाला" घोषित करके उनके खिलाफ जंग छेड़ दी ! उस्मान ने बचने का बहुत प्रयत्न किया प‍रन्तु इनके समय में बाग़ियों लोगों ने मिस्र तथा इराक़ व अन्य स्थानो से आकर मदीना में आकर उस्मान के घर को घेर लिया ४० दिन तक उस्मान के घर को घेराव किया अन्त में उस्मान को मार डाला। उस्मान बिन अफ्फान को जब शहीद किया गया तब उनकी उम्र ७९(79) थी, उन्हें सर में बार बार वार कर के मारा गया उनकी पत्नी उनको बचाने बीच आयी इससे उनकी ऊँगली कट गयी, बागी उनके घर में पीछे की तरफ से अन्दर आये , जब उस्मान को विश्वास हो गया कि ये उन्हें मार कर छोड़ेंगे तो उन्होंने [[अली]] से रक्षा का अनुमोदन किया और अली की आज्ञानुसार "दारुल अमारा" यानी खलीफा के घर में उनके दोनों बेटों ने रसद पहुंचाई और सामने की तरफ़ से हज़रत अली के दोनों बेटे [[हुसैन इब्ने अली]] और [[हसन इब्ने अली]] ,रखवाली कर रहे थे ! [[उस्मान]] ने इनसे निवेदन किया कि किसी हालात में वो उनके घर के सामने के दरवाजे से ना हटें वरना बागी उन्हें मार डालेंगे , इसपर बागियों ने [[हुसैन]] और [[हसन]] से उलझना ठीक नहीं समझा और घर के पीछे से दाखिल होकर चुपचाप उस्मान को मार डाला !