"शिया इस्लाम": अवतरणों में अंतर

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== खलीफा अली और परवर्ती विवाद ==
अब फिर से ख़लीफा का पद खाली था और इस्लामी साम्राज्य बड़ा हो रहा था। मुसलमानों को हज़रत अली के अलावा कोई न दिखा पर अली खलीफ़ा बनने को न माने। कइ दिन शुरा के लोग खलीफा के पद को न भर सके। अन्त में अली को विवश किया गया तो आप ने कहा कि मेरे खिलाफत में ''इलाही निजाम'' (ईश्वर शासन) चलेगा। उन्हें चौथा खलीफ़ा नियुक्त किया गया। अली अपने इन्साफ़ के लिये मशहूर थे ,अली के खलीफा बनने पर पूर्व खलीफा उस्मान के कातिलो का बदला लेने और उनको सजा देने की मांग उठने लगी लेकिन वख्त और मुसलमानों के हालात देख कर अली ने उस वख्त कोई कदम नहीं उठाया पर [[उस्मान]] के समर्थक लोगो को ये न रास आया तो उन्होंने [[उस्मान]] के कातिलो को सजा दिलवाने के फौज़ इक्क्ठी की। शियाओ का मानना है कि असल में ये फौज शाम के शासक [[माविया]] के भड़काने पर एकत्र हुए थी क्योंकि [[उस्मान]] के पश्चात वो [[खलीफा]] का अपने अपने लिए चाहता था, पर मुसलमानों का बहुमत उसके विपक्ष और अली के पक्ष में था ! अली ने कहा उस्मान के कतिलो को सजा जरुर मिलेगी, पर जब अली को इस फौज के असली मकसद का पता चला, जो बिना [[अली]] की आज्ञा के अवैध रूप से और अली को पद से हटाने के लिए एकत्र हुए थी, तो अली ने इन्हें मदीने से पहले ही रोक दिया, यहीं पर [[जमल]] नामक जंग हुई, और विद्रोही बुरी तरह हर गए ! [[मुआविया]] [[शाम|सीरिया]] वापस भाग गया और पैग़म्बर की पत्नी [[आयेशा]] को अली ने अपनी रक्षा में ले लिया ! कुछ समय बाद [[सीरिया]] के सूबेदार [[मुआविया प्रथम|मुआविया]] ने फिर अली का विरोध किया। मुआविया तीसरे खलीफ़ा उस्मान का रिश्तेदार था, और उसी [[हजरत उस्मान]] के कतिलो के सजा की मांग से [[सिफ्फीन]] में जंग हुई जिसमें[[ख़्वारेज]] नामक फ़ितने का जन्म हुआऔर लड़ाई जितने के बावजूद विद्रोह की वजह से अली को काफी दुःख हुआ और वो वापस कूफ़ा चले गए !मुआविया बार बार अली से उलझता रहा और उनके शासित प्रदेशों में लूट मार करता रहा ! सन् ६६१ में [[कूफ़ा]] में एक मस्जिद में इमाम अली को ख़वारिज के गिरोह के एक व्यक्ति ने धोके से शहीद कर दिया गया। ख़वारिज गिरोह वाले अली के कट्टर समर्थक हुआ करते थे लेकिन अली ने जब मुआविया के साथ शांति समझौता और संधि कर ली तो ये अली के खिलाफ हो गए। इसके बाद मुआविया ने अपने को इस्लाम का ख़लीफ़ा घोषित कर दिया, जबकि मदीने के और अली के समर्थकों ने अली के ज्येष्ठ पुत्र [[हसन]]बिन अली के हाथ पर बैयत की और उन्हें खलीफा बनाया ! [[हसन]] पैग़म्बर के सीधे वंशज थे !
=== इमाम हसन और इमाम हुसैन ===
[[चित्र:ImamAliMosqueNajafIraq.JPG|right|thumb|320px|इराक़ के [[नजफ़]] में इमाम अली की मजार]]
हज़रत अली और सैद्धांतिक रूप से मुहम्मद सo साहब के रिश्तेदारों के समर्थकों ने उनके पुत्र हसन के प्रति निष्ठा दिखाई, लेकिन कुछ उनका साथ छोड़ गए। हसन इब्ने अली ने जंग न की बल्कि मुआविया के साथ सन्धि कर ली। असल में अली के समय में [[सिफ्फीन की लड़ाई]] के पश्चात माविया ने खुद को बिना किसी शूरा के खलीफा घोषित कर दिया था एवं [[दमिश्क]] को अपनी राजधानी घोषित कर रखी थी। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलीफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बड़ी सेना तैयार कर रहे थे अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा: ''या तो युद्ध या फिर अधीनता''। इमाम हसन ने अधीनता नहीं स्वीकार की परन्तु वो मुसलमानों का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे। मुआविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया।
[[हसन]] से सीधे उलझना या उनका खून बहाना कितना मंहगा साबित हो सकता है ये मुआविया भांप गया था, पर उसका पुत्र [[यज़ीद]] इतना भी समझदार ना निकला और वो [[हसन]] के पश्चात [[हुसैन]] से सीधे उलझ गया जिसके कारण उसका पतन हो गया !
 
असल में [[हसन]] इमाम का पद अपने पिता के पश्चात पहले ही पा चुके थे और इस पद के अंतर्गत वो धार्मिक कार्यों के सर्वोच्च अधिकारी थे, जिसे किसी तरह जंग से नहीं बदला नही जा सकता था बल्कि शास्त्रार्थ ([[हदीस]], [[शरीयत]] , [[क़ुरआन]] एवं परमेश्वर के विधान की सम्पूर्ण व्याख्या ) के ज़रिए ही पाया जा सकता था ! मुआविया धर्म और विधि का इतना ज्ञानी नहीं था को वो शास्त्रार्थ करके इमाम [[हसन]] को हरा सके ! वहीं इमाम [[हसन]] पैग़म्बर की एकमात्र पुत्री [[फातिमा]] के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते "इब्ने रसूलल्लाह" (पैग़म्बर के पुत्र /वारिस) कहलाये जाते थे और इस विषय में मुआविया कुछ नहीं कर सकता था ! मुआविया का मकसद केवल अपने पिता [[अबूसूफियान]] की [[बद्र]] [[खंदक]] और अन्य कई जंगों की हार का बदला [[मुहम्मद]] और [[अली]] के वंशजों से लेना मात्र था !
मुआविया से शिया समुदाय खासी नफरत रखता है लेकिन सुन्नी उन्हे एक अच्छा मुहम्मद साहब के साथी मानते है जिन्हीने क़ुरान को एक किताबी रूप मे लाने में मदद किये और मुआविया के लिए खुद मुहम्मद साहब ने अच्छी दुआ अल्लाह से की थी, सुन्नी ये मानते है कि शिया किताबो मे माविया के खिलाफ लिखी गयी गलत बाते झूट और नफरत, फ़िरक़ा वारियत से प्रभावित है
 
शियाओ के अनुसार असल में [[हसन]] इमाम का पद अपने पिता के पश्चात पहले ही पा चुके थे और इस पद के अंतर्गत वो धार्मिक कार्यों के सर्वोच्च अधिकारी थे, जिसे किसी तरह जंग से नहीं बदला नही जा सकता था बल्कि शास्त्रार्थ ([[हदीस]], [[शरीयत]] , [[क़ुरआन]] एवं परमेश्वर के विधान की सम्पूर्ण व्याख्या ) के ज़रिए ही पाया जा सकता था ! मुआविया धर्म और विधि का इतना ज्ञानी नहीं था को वो शास्त्रार्थ करके इमाम [[हसन]] को हरा सके ! वहीं इमाम [[हसन]] पैग़म्बर की एकमात्र पुत्री [[फातिमा]] के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते "इब्ने रसूलल्लाह" (पैग़म्बर के पुत्र /वारिस) कहलाये जाते थे और इस विषय में मुआविया कुछ नहीं कर सकता था ! मुआविया का मकसद केवल अपने पिता [[अबूसूफियान]] की [[बद्र]] [[खंदक]] और अन्य कई जंगों की हार का बदला [[मुहम्मद]] और [[अली]] के वंशजों से लेना मात्र था !
इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सि‍र्फ सत्ता सौंपी। इन शर्तो में से कुछ ये हैं: -
* वो सिर्फ सत्ता के कामों तक सीमित रहेगा यानि धर्म में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा।