"व्यवस्थापिका": अवतरणों में अंतर

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{{विलय|कार्यकारिणी (सरकार)|date=सितंबर 2018}}
किसी देश या राज्य के शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सरकार की आवश्यकता पड़ती है। सरकार ही वह यन्त्र होता है जो राज्य के उद्देश्यों या लक्ष्यों को अमली जामा पहनाता है। अपने उत्तरदायित्वों का वहन करने के लिए सरकार शासन कार्यों को अपने तीन अंगों में बाँटकर उन्हें पूरा करने का प्रबन्ध करती है। सरकार के तीन अंग - व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका होते हैं। इन तीनों अंगों में व्यवस्थापिका ही सरकार का सर्वोच्च अंग है। व्यवस्थापिका का प्रमुख कार्य सरकार के लिए कानून या विधि-निर्माण का कार्य करना है। अध्यक्षात्मक सरकार में तो विधायिका इस कार्य को स्वतन्त्रतापूर्वक करती है, लेकिन संसदीय प्रजातन्त्र में यह कार्य कार्यपालिका के साथ मिलकर किया जाता है। लेकिन यह बात सबसे अधिक महत्व रखती है कि प्रत्येक शासन-व्यवस्था में कानून निर्माण का उत्तरदायित्व विधायिका के ही कन्धों पर होता है। लोकतन्त्र के विकास के साथ-साथ विधायिका का भी विकास हुआ है।
'''व्यवस्थापिका''' भारतीय जनतंत्र के तीन अंगों में से एक है। अन्य दो अंग हैं - [[कार्यकारिणी (सरकार)|कार्यपालिका]] और [[न्यायपालिका]]।
व्यवस्थापिका का अर्थ
साधारण शब्दों में विधायिका या व्यवस्थापिका सरकार का वह अंग है जो कानून निर्माण का कार्य करता है। इसे आमतौर पर संसद के नाम से जाना जाता है। संसद शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द 'Parler' जिसका शाब्दिक अर्थ है - बातचीत करना या बोलना तथा लेटिन शब्द 'parliamentum' से हुई है। संसद को अंग्रेजी में 'Parliament' कहा जाता है। लेटिन शब्द 'Parliamentum' का प्रयोग भी बातचीत के लिए ही होता रहा है। इस प्रकार संसद शब्द का प्रयोग व्यक्तियों की उस संस्था के लिए प्रयोग किया जाता है जो चर्चा या विचार-विमर्श के लिए एकत्रित हुए हों। आज सरकार के कार्यों के सन्दर्भ में संसद को व्यवस्थापिका या विधायिका का नाम दिया जाता है, जिसका सम्बन्ध कानून निर्माण से है।
व्यवस्थापिका की परिभाषा
कुछ विद्वानों ने व्यवस्थापिका को परिभाषित करते हुए कहा है :-
गिलक्राइस्ट के अनुसार - “विधानमण्डल सरकार की शक्ति का अधिक भाग है, जिसका सरकार के वित्त तथा कानून निर्माण दोनों पर अधिकार होता है।
एलेन बाल के अनुसार - “विधायिका, कार्यपालिका का परामर्शदाता निकाय है।”
लेकिन आधुनिक समय में विधायिका कार्यपालिका का परामर्शदात्री निकाय न होकर एक विशेष प्रकार का संगठन है, जिसका शासन-व्यवस्था के संचालन में महत्वपूर्ण कार्य होता है। आधुनिक समय में “व्यवस्थापिका व्यक्तियों का ऐसा सामूहिक संगठन है जो कानून बनाने के अधिकार से युक्त होता है।”
 
[[भारत]] की स्वतंत्र न्यायपालिका का शीर्ष [[भारत का उच्चतम न्यायालय|सर्वोच्च न्यायालय]] है, जिसका प्रधान प्रधान न्यायाधीश होता है। [[भारत का उच्चतम न्यायालय|सर्वोच्च न्यायालय]] को अपने नये मामलों तथा उच्च न्यायालयों के विवादों, दोनो को देखने का अधिकार है। भारत में 25 [[उच्च न्यायालय]] हैं, जिनके अधिकार और उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा सीमित हैं। [[कार्यकारिणी (सरकार)|कार्यपालिका]] और [[न्यायपालिका]] के परस्पर मतभेद या विवाद का सुलह [[राष्ट्रपति]] करता है।
आधुनिक समय में व्यवस्थापिका की सही परिभाषा फाईनर ने दी है। उसका कहना है कि “विधायिका सरकार का वह अंग है जिसका कार्य जनमत या जनता की इच्छा को कानून निर्माण में लगाना और कार्यपालिका के कार्यों का निर्देशन, निरीक्षण एवं नियन्त्रण करना है।”
व्यवस्थापिका संघ के तीन महत्वपूर्ण अंगों में से एक है, ये अंग है व्यवस्थापिका या विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका|ये तीनों ही किसी संविधानिक निकाय के आधारभुत स्तम्भ होते हैं |
 
[[श्रेणी:राजनीति]]
व्यवस्थापिका या विधायिका को संसद कहा जाता है। जिसका गठन राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा से मिलकर होता है। इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 79 में है। आपको बता दें कि भारतीय संविधान लोकसभा और राज्यसभा को कुछ अपवादों को छोड़कर कानून निर्माण की शक्तियों में समान अधिकार देता है।
[[श्रेणी:समाजशास्त्र]]
 
व्यवस्थापिका सरकार का महत्वपूर्ण अंग है और इसका कार्य कानूनों का निर्माण करना, उनमें संशोधन करना तथा उन्हें निरस्त करना है।
व्यवस्थापिका के विधायी या कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य
व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य
1.कार्यपालिका पर नियन्त्रण
2. व्यवस्थापिका के न्यायिक कार्य
3.व्यवस्थापिका के वित्तीय कार्य
4. व्यवस्थापिका के संविधान में संशोधन सम्बन्धी कार्य
5.व्यवस्थापिका के निर्वाचन सम्बन्धी कार्य
6.व्यवस्थापिका के विमर्शात्मक कार्य
7. व्यवस्थापिका के अन्य कार्य
8.व्यवस्थापिका के विधायी या कानून-निर्माण सम्बन्धी कार्य -
आधुनिक समय में आधारभूत संविधानिक कानूनों को छोड़कर शेष सभी तरह के कानून विधानमण्डल या व्यवस्थापिका द्वारा ही बनाए जाते हैं। जन इच्छा का प्रतिनिधि होने के नाते जनमत की मांगों व दबावों को कानून का रूप देना विधायिका का प्रमुख कर्त्तव्य बनता है। इसी कारण रिनाऊ ने लिखा है - “आधुनिक संसद एक प्रकार के वे कारखाने हैं जिनका कार्य कानून का निर्माण करना है। यहां जनमत के नाम के कच्चे माल को प्रस्तावों, नीतियों और कानूनों में बदला जाता है।” विधायिका समाज में शान्ति बनाए रखने तथा नागरिकों के विकास के लिए अनेक प्रकार के कानून बनाती है। देश की बदली हुई परिस्थितियों में पुराने कानूनों में परिवर्तन या उन्हें रद्द भी करती है।
 
संसदीय सरकार में अधिकतर बिल मन्त्रियों के द्वारा विधानपालिका में पेश किए जाते हैं, क्योंकि मन्त्रीमण्डल का संसद में बहुमत होता है। अध्यक्षात्मक सरकार में मन्त्रियों की बजाय बिलों के बारे में केवल सन्देश राष्ट्रपति ही भेज सकता है। उन्हें स्वीकार करना या न करना विधायिका की मर्जी है। लेकिन विधायिका भी अपनी मर्जी से कानून बनाने को स्वतन्त्र नहीं है। उस पर कुछ संविधानिक प्रतिबन्ध भी हैं। वह संविधान को कानूनी सीमा में रहकर कानूनों का निर्माण कर सकती है। लेकिन स्थिति चाहे कुछ भी हो, कानून निर्माण का कार्य विधायिका को ही करना पड़ता है। इस कार्य में वह अपनी समितियों की सहायता लेती है। ब्रिटेन में तो संसदीय सर्वोच्चता होने के कारण कानून निर्माण पर पूरा अधिकार विधायिका का ही है।
 
संघात्मक शासन प्रणाली वाले भारत जैसे देशों में व्यवस्थापिका को शक्तियों का विकेन्द्रीकरण होने के कारण संसद राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर ही कानून बना पाती है। कानून बनने से पहले उस पर कार्यपालिका के अध्यक्ष के हस्ताक्षर करवाने भी जरूरी होते हैं। हालांकि कार्यपालिका अध्यक्ष उस पर पुर्नविचार करने के लिए बिल को विधायिका के पास लौटा सकता है, लेकिन अन्त में हस्ताक्षर करना उसकी मजबूरी सी बन गई है। कानून बनाने के इस काम में विधायिका को भी आज अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन अन्त में वह कानून-निर्माण में सफलता प्राप्त कर ही लेती है।
कार्यपालिका पर नियन्त्रण -
कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखना भी विधायिका का ही प्रमुख कार्य है। संसदीय शासन प्रणाली में यह नियन्त्रण प्रत्यक्ष रहता है, क्योंकि मन्त्रीमण्डल का चुनाव उसके द्वारा ही किया जाता है और यह उसके प्रति ही उत्तरदायी होता है। संसदीय शासन प्रणाली मे विधायिका द्वारा नियन्त्रण के अनेक साधनों - कार्यपालिका से प्रश्न व पूरक प्रश्न पूछना, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, कटौती तथा निन्दा प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव आदि का प्रयोग किया जाता है। इसमें व्यवस्थापिका धन की मांग को अस्वीकार करके या कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत नीति, प्रस्ताव या विधेयक को अस्वीकार करके भी नियन्त्रण रख सकती है। इंग्लैण्ड तथा भारत में यही व्यवस्था है।
 
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली वाले देशों में शक्तियों का पृथक्करण होने के कारण विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण कर पाना सम्भव नहीं है। इसलिए वह धन की मांग या आवश्यक व्यवस्थापन पारित न करके र्कापालिका को नियन्त्रित रखने का प्रयास करती है। राष्ट्रपति द्वारा की गई नियुक्तियों या सन्धियों का अनुमोदन रोककर भी वह नियन्त्रण की व्यवस्था कर सकती है। राष्ट्रपति पर महाभियोग के लिए जांच आयोग की नियुक्ति करके भी व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर नियन्त्रण रखती है। इस प्रकार शासन व्यवस्था चाहे कोई भी हो, उसमें व्यवस्थापिका का कम या अधिक नियन्त्रण कार्यपालिका पर अवश्य रहता है। भारत में यह नियन्त्रण प्रत्यक्ष व अधिक है, जबकि अमेरिका में अप्रत्यक्ष व कम है।
व्यवस्थापिका के न्यायिक कार्य -
यद्यपि न्यायिक कार्य सम्पन्न करना न्यायपालिका का कार्य है, लेकिन आज अनेक देशों में व्यवस्थापिकाएं भी पूर्ण या अर्द्ध-न्यायिक कार्य करती हैं। इंग्लैण्ड में हाऊस ऑफ लार्डस जो संसद का उपरि सदन है, अपील का सर्वोच्च न्यायालय है। अमेरिका में राष्ट्रपति के खिलाफ लगाए गए महाभियोग के बारे में अन्तिम निर्णय देने के लिए सीनेट न्यायालय के रूप में बैठती है। भारत में राष्ट्रपति पर इसी तरह महाभियोग की सुनवाई व निर्णय की व्यवस्था राज्य सभा (उपरी सदन) करती है। स्वीटजरलैण्ड में राष्ट्रीय सभा को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त होने के कारण वह भी न्यायिक कार्य करने वाली व्यवस्थापिका कहलाती है। लेकिन भारत तथा अमेरिका में आज तक किसी राष्ट्रपति को महाभियोग का परिणाम नहीं भुगतना पड़ा है। अत: व्यवस्थापिका न्यायिक कार्य भी करती है।
व्यवस्थापिका के वित्तीय कार्य -
प्रत्येक देश में राष्ट्रीय वित्त को सही ढंग से खर्च करने के लिए सुव्यवस्था व्यवस्थापिकाएं ही करती हैं। वास्तव में धन ही किसी राजनीतिक व्यवस्था व समाज का आभार होता है। यदि इसका दुरुपयोग किया गया तो राजनीतिक व्यवस्था पर आने वाले संकटों से कोई नहीं बचा सकता। मेडिसन ने लिखा है - “जिसके पास वित्तीय शक्ति है, उसी के पास वास्तविक शक्तियां होती हैं।” प्रजातन्त्रीय देशों में वित्तीय शक्ति पर नियन्त्रण की व्यवस्था विधायिका के निम्न सदन (निर्वाचित सदन) को सौंपी गई है। उसकी स्वीकृति के बिना एक भी पैसा खर्च नहीं किया जा सकता। नए कर लगाना तथा अनावश्यक करों को समाप्त करना भी व्यवस्थापिका का ही कार्य है। वित्त विधेयक भी हमेशा निचले सदन में ही पेश किया जाता है। वह धन कटौती का प्रस्ताव पेश कर सकता है। अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में वित्त विधेयक पूर्ण रूप से कार्यपालिका द्वारा ही तैयार कराकर विधायिका के पास भेजा जाता है, लेकिन प्राय: विधायिका उसमें से कुछ राशि काटकर उसे पास करती है। यद्धपि विधायिका की वित्तीय शक्तियों पर भी सभी देशों में अनेक प्रतिबन्ध हैं लेकिन अन्तिम रूप में किसी न किसी तरह व्यवस्थापिकाएं वित्तीय कार्यों का सम्पादन सफलता के साथ करने में कामयाब हो ही जाती है।
व्यवस्थापिका के संविधान में संशोधन सम्बन्धी कार्य -
व्यवस्थापिका को संविधान में संशोधन करने का भी अधिकार प्राप्त होता है। कुछ देशों में तो यह अधिकार पूर्ण रूप से प्राप्त है और कुछ में आंशिक। कूुछ देशों में तो विधायिका साधारण बहुमत से संविधान में संशोधन कर देती है, लेकिन कुछ में विशेष प्रक्रिया के तहत ही संशोधन करना पड़ता है। भारत में यह कार्य संसद तीन तरह से कर सकती है - (1) संसद के साधारण बहुमत से (2) संसद के दो तिहाई बहुमत से (3) संसद के दो तिहाई बहुमत तथा आधे से अधिक राज्यों की स्वीकृति से। ब्रिटेन में यह कार्य साधारण बहुमत द्वारा ही सम्पन्न हो जाता है। स्विटजरलैण्ड में संशोधन सम्बन्धी प्रस्ताव जनता के सामने जन-निर्णय के लिए पेश किए जाते हैं। वहां जनता को संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखने का अधिकार है। संशोधन प्रस्ताव पर कैंटनो की स्वीकृति आवश्यक होती है। अमेरिका, जर्मनी, स्विटजरलैण्ड आदि देशों में संसद को संधोधन का आंशिक ही अधिकार प्राप्त है, जबकि भारत तथा ब्रिटेन में उसे संशोधन करने का पूरा अधिकार प्राप्त है। संशोधन का यह अधिकार संसदीय देशों में व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता को सिद्ध करता है।
व्यवस्थापिका के निर्वाचन सम्बन्धी कार्य -
संसार के सभी देशों में विधायिका को चुनाव सम्बन्धी कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में राष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों के चुने हुए सदस्य तथा प्रान्तीय विधानसभाओं के सदस्यों द्वारा मिलकर किया जाता है। स्विटजरलैण्ड में राष्ट्रीय सभा, मन्त्रीपरिषद्, न्यायधीशों तथा प्रधान सेनापति का चुनाव करती है। रूस में सुप्रीम सोवियत (संसद) ही कार्यपालिका के सदस्य तथा सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों का चुनाव करती है। इंग्लैण्ड तथा भारत में निम्न सदन स्पीकर का चुनाव करता है। चीन में संघीय राष्ट्रपति संसद के द्वारा ही चुना जाता है। अमेरिका में कांग्रेस निर्वाचनों, निर्वाचन विवरणों तथा सदस्यों की निर्वाचन सम्बन्धी योग्यताओं का निर्णय करने का अधिकार रखती है। जापान में डाइट (संसद) प्रधानमन्त्री का चुनाव करती है। इस तरह सभी देशों में व्यवस्थापिका निर्वाचन सम्बन्धी कार्य भी करती है।
व्यवस्थापिका के विमर्शात्मक कार्य -
कोई भी कानून तभी लोकप्रिय हो सकता है, जब वह व्यापक सूझ-बूझ व विचार-विमर्श से निर्मित हो। इसलिए व्यवस्थापिका अच्छे कानून का निर्माण करने के लिए व्यापक विचार-विमर्श करती है। व्यवस्थापिका अनेक हितों, दृष्टिकोणों और समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाला सभा स्थल है। इसमें सार्वजनिक विषयों, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय विषयों के बारे में व्यापक विचार-विनिमय होता है। इसमें शासन सम्बन्धी सारी बातों पर आवश्यक विचार करके ही निर्णय किया जाता है। अपना कार्य सही ढंग से करके वास्तव में व्यवस्थापिका उचित व्यवस्थापन कार्य ही करती है। इस कार्य को करने में व्यवस्थापिका की समितियां उसका पूरा सहयोग करती है।
व्यवस्थापिका के अन्य कार्य -
आज का युग कल्याणकारी राज्यों का युग है। संसदीय पद्धति के विकसित हो जाने से कानून बनाने तथा प्रशासन पर नियन्त्रण रखने का कार्य कार्यपालिका भी करने लगी है। लेकिन इससे व्यवस्थापिका का बोझ कम नहीं हुआ है। वह आज अनेक उत्तरदायित्वों से लदी हुई है। उसे उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त भी कार्य करने पड़ते हैं। लोकमत का निर्माण करने, जनमत को शिक्षित करने, जनता की शिकायत दूर करने, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर नजर रखने, प्रतिनिधित्व करने, हित-स्वरूपीकरण और हित-समूहीकरण करने, राजनीतिक समाजीकरण तथा पर्यवेक्षण व निगरानी सम्बन्धी कार्य भी आज विधायिका को ही करने पड़ते हैं। ये कार्य संसदीय देशों में तो व्यवस्थापिका के महत्वपूर्ण कार्य बन रहे हैं। इसी कारण फ्रेडिक ने लिखा है - “आधुनिक समय में एक प्रतिनिधि सभा का मूल कार्य कानून-निर्माण उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि आम जनता की राजनीतिक शिक्षा, प्रचार-कार्य तथा विभिन्न मतों, विचारों और मतभेदों का एकीकरण है।” लेकिन व्यवस्थापिका की यह भूमिका लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्थाओं तक ही सिमटकर रह जाती है। अधिनायकवादी देशों में उसकी भूमिका सिकुड़ जाती है।
व्यवस्थापिका की भूमिका का मूल्यांकन
यद्यपि व्यवस्थापिकाएं प्रत्येक देश में पाई जाती हैं और कुछ या अधिक कार्यों का निष्पादन भी करती हैं, लेकिन आज उनकी भूमिका सिकुड़ रही है। अधिकतर देशों में तो उनके कार्यों का निष्पादन औपचारिकता मात्र रह गया है। आज संवैधानिक देशों में व्यवस्थापिकों की भूमिका विधि-निर्माण में कम हो रही है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि लोकतन्त्रीय देशों में इसकी भूमिका महत्वहीन हो गई है। इन देशों में सरकारी और अन्य राजनीतिक कार्य इन्हीं के द्वारा पूरे किए जाते हैं। अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में सरकार के कार्यों पर विधायिका का प्रभाव स्वतन्त्र व अधिक है। ब्रिटेन में संसदीय प्रणाली होने के कारण इनका प्रभाव द्विदलीय व्यवस्था के तहत कार्यपालिका जितना ही है, किन्तु भारत में व्यवस्थापिका का प्रभाव कम है। सोवियत संघ में एकदल के आधिपत्य के कारण यह भारत या अमरीका जितनी भी प्रभावी नहीं है।
 
आज भारत में संसद की वह स्थिति नहीं है जो 26 जून 1975 से पहले थी, लेकिन ब्रिटेन की संसद आज भी आदर की संस्था है। इसका जो कुछ भी प्रभाव है, वह इस कारण है कि यह राजनीतिक सत्ता को वैधता प्रदान करती है। जनता को राजनीतिक शिक्षा देने तथा काण्डों का भाण्डाफोड़ करने में आज व्यवस्थापिका अपनी भूमिका बेखूबी निभा रही है। स्वेच्छाचारी देशों में भी व्यवस्थापिका के बिना शासकों का काम नहीं चल सकता। इण्डोनेशिया और पाकिस्तान में सैनिक शासन के बाद भी किसी न किसी रूप में व्यवस्थापिकाएं अवश्य हैं। बर्मा में जनरल बेविन आज भी इसके कारण ही शासन कर रहे हैं। नेपाल मे लोकतन्त्र का गला घोटने के बाद भी राष्ट्रीय पंचायत के रूप में व्यवस्थापिका आज भी मौजूद है। तानाशाही देशों में व्यवस्थाएं चाहे दिखावा मात्र ही क्यों न हो, हैं अवश्य। कुछ तानाशाही देशों में तो व्यवस्थापिकाएं बहुत महत्वपूर्ण हैं। यूगोस्लाविया में मार्शल टीटो आज भी व्यवस्थापिका को ही काफी महत्व देते हैं। इसलिए तानाशाही देशों में व्यवस्थापिकाओं की भूमिका शासक वर्ग की सोच पर निर्भर करती है। इसी तरह सर्वसत्ताधिकारवादी देशों में व्यवस्थापिका की भूमिका का मुख्य नियामक, निर्देशक व नियन्त्रक साम्यवादी दल होता है। विकासशील देशों में संस्थागत आधारों के अभाव में व्यवस्थापिकाएं न तो सरकारी कार्यों का ठीक तरह से निष्पादन कर पा रही हैं और न ही राजनीतिक कार्यों का। इन देशों में व्यवस्थापिकाएं हंगामा स्थल बनकर रह गई हैं। इन देशों में व्यवस्थापिकाओं की भूमिकाओं को प्रभावी रखने के लिए अनुकूल संस्कृति का निर्माण व विकास नहीं हो पाया है। बहुदलीय प्रणाली तथा सांझा सरकार के प्रतिमान ने आज व्यवस्थापिका की भूमिका को धराशाही कर दिया है। लेकिन धीरे-धीरे विकासशील देशों में व्यवस्थापिकाओं की भूमिका में सुधार होता नजर आ रहा है। अत: सार रूप में कहा जा सकता है कि व्यवस्थापिकाओं की भूमिका राजनीतिक व्यवस्था तथा शासन-प्रणाली विशेष की प्रकृति पर निर्भर करता है।