"रीति काल": अवतरणों में अंतर

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रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे। [[केशवदास]] (ओरछा), प्रताप सिंह (चरखारी), [[बिहारी]] (जयपुर, आमेर), [[मतिराम]] (बूँदी), [[भूषण]] (पन्ना), [[चिंतामणि]] (नागपुर), [[देव]] (पिहानी), [[भिखारीदास]] (प्रतापगढ़-अवध), रघुनाथ (काशी), [[बेनी]] (किशनगढ़), [[गंग]] (दिल्ली), टीकाराम (बड़ौदा), [[ग्वाल]] (पंजाब), चन्द्रशेखर बाजपेई (पटियाला), हरनाम (कपूरथला), कुलपति मिश्र (जयपुर), नेवाज (पन्ना), सुरति मिश्र (दिल्ली), कवीन्द्र उदयनाथ (अमेठी), ऋषिनाथ (काशी), रतन कवि (श्रीनगर-गढ़वाल), [[बेनी बन्दीजन]] (अवध), [[बेनी प्रवीन]] (लखनऊ), ब्रह्मदत्त (काशी), ठाकुर बुन्देलखण्डी (जैतपुर), [[बोधा]] (पन्ना), गुमान मिश्र (पिहानी) आदि और अनेक कवि तो राजा ही थे, जैसे- महाराज जसवन्त सिंह (तिर्वा), भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि (दतिया के जमींदार), महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह)।
 
रीतिकाव्य रचना का आरंभ एक संस्कृतज्ञ ने किया। ये थे आचार्य [[केशवदास]], जिनकी सर्वप्रसिद्ध रचनाएँ [[कविप्रिया]], [[रसिकप्रिया]] और [[रामचंद्रिका]] हैं। कविप्रिया में अलंकार और रसिकप्रिया में रस का सोदाहरण निरूपण है। लक्षण दोहों में और उदाहरण कवित्तसवैए में हैं। लक्षण-लक्ष्य-ग्रंथों की यही परंपरा रीतिकाव्य में विकसित हुई। रामचंद्रिका केशव का [[प्रबंधकाव्य]] है जिसमें भक्ति की तन्मयता के स्थान पर एक सजग कलाकार की प्रखर कलाचेतना प्रस्फुटित हुई। केशव के कई दशक बाद [[चिंतामणि]]

से लेकर अठारहवीं सदी तक हिंदी में रीतिकाव्य का अजस्र स्रोत प्रवाहित हुआ जिसमें नर-नारी-जीवन के रमणीय पक्षों और तत्संबंधी सरस संवेदनाओं की अत्यंत कलात्मक अभिव्यक्ति व्यापक रूप में हुई।
 
== परिचय ==