"भारतीय क्रांति दल": अवतरणों में अंतर

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1975 में प्रधानमंत्री श्रीमती [[इंदिरागांधी]] ने देश में फैली अशांति व अराजकता से निपटने के लिए आपात स्थिति लागू कर दी। देश में [[आपातकाल (भारत)|आपातकाल]] की घोषणा के बाद देशभर के विरोधी दलों के नेता एवं कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया उसी समय भारतीय क्रांति दल के नेताओं को भी जेल में बंद कर दिए गया, उसके बाद 1977 में सभी गैर कांग्रेसी दलों ने मिलकर जनता पार्टी के नाम से साझा मोर्चा बनाया था,संयुक्त रूप से कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़ा जिसमें भारतीय क्रांतिदल का विलय जनता पार्टी में हो गया, जनसंघ, तथा अन्य दल भी शामिल थे।
 
भारतीय क्रांति दल के अग्रणी नेता चौधरी कुंभाराम आर्य ..
 
इतिहास साक्षी है कि जिस समय किसान राजशाही की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, चारों और निराशा और बेबसी छाई हुई थी, उस समय उन्होंने किसान - कमेरे वर्ग को कर्मठता और स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया.
 
चौधरी साहब ने राजस्थान के किसानों को एक ही कलम में और एक ही रात में बिना किसी टैक्स के भूमि का मालिकाना हक दिला कर किसान की तकदीर ही बदल दी.
 
पंचायती राज विकेंद्रीकरण में महती भूमिका निभाई और सहकारिता के जन्मदाता और संस्थापक अध्यक्ष चौधरी साहब ही थे.
 
किसानों के हित के लिए राजफैड की स्थापना इन्होंने ही की थी.
 
आप दो दशक तक राजस्थान की राजनीति के किंग मेकर रहे.
2 बार राज्यसभा सदस्य, 1 बार लोकसभा सदस्य , 2 बार विधानसभा सदस्य निर्वाचित हुए.
 
मीणा और मेघवाल जाति को आरक्षण में सम्मिलित कराने में आप ही ने अहम भूमिका निभाई थी.
 
चौधरी साहब महान समाज सुधारक, कर्मयोग के महान प्रतिनिधि और महान विचारक थे जिन्होंने "किसान यूनियन क्यों " और "वर्ग चेतना" नामक प्रसिद्ध पुस्तकों की रचना की जो आज भी मानव मात्र के लिए सार्थक हैं.
 
उन्होंने कभी अपने पद एवं शक्तियों का दुरुपयोग नहीं किया.
 
चौधरी साहब ने अपने जीवनकाल में अनेक व्यक्तियों, संगठनों, पार्टियों व सिद्धान्तों को तराशा और शिखर तक पहुंचाया जिसका इतिहास साक्षी है.
 
राजस्थान का किसान चौ. कुंभाराम जी आर्य का ऋणी था, ऋणी है एवं युगों युगों तक ऋणी रहेगा.
 
महान स्वतंत्रता सेनानी, किसान पुरोधा चौधरी कुंभाराम जी आर्य की आज 106 वीं जयंती है और इस अवसर पर मैं युग पुरूष चौ. कुंभाराम जी आर्य को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए शीश झुकाकर कोटिशः नमन करता हूं.
 
जीवन परिचय....
 
एक गरीब किसान के घर 10 मई 1914 को चौधरी कुम्भाराम जी आर्य का जन्म हुआ। इनकी माता का नाम जीवणी एवं पिता का नाम श्री भैराराम सुंडा था। अपने पुत्र के जन्म समय में पंजाब की पटियाला रियासत के एक छोटे से गांव छोटा खैरा में यह परिवार निवास करता था। चौधरी कुम्भाराम आर्य के पूर्वज सीकर जिले के गांव कुदन के निवासी थे। गांव छोटा खैरा से विस्थापित होकर यह परिवार कुछ समय के लिए भादरा तहसील के गांव सोदानपुरा में रहे किन्तु वहाँ प्लेग फ़ैल जाने के कारण सोदानपुरा छोड़कर स्थायी रूप से तत्कालीन जिला श्रीगंगानानर के गांव फेफाना में स्थायी रूप से बस गए। 4 वर्ष की उम्र में ही इनके सिर से उनके पिता का साया उठ गया। मेहनत मजदूरी करके माँ जीवणी ने अपने पुत्र को गांव की स्कूल में दाखिला दिलाया। घर की कमजोर आर्थिक हालत के कारण वे प्राथमिक स्तर से आगे पढाई को जारी नही रख सके।
उस ज़माने में पढे लिखे लोग विरले ही मिलते थे। सन 1928 में चौदह वर्षीय कुम्भाराम अपनी भेड-बकरियों को छोड़कर माँ की इच्छा पूरी करने के लिए वन विभाग में नोकरी लग गए। बालपने में ही कुम्भा राम की शादी भूरी देव के साथ हो गयी। आपके दो लडके और पांच लडकियां हुई। एक पुत्र वधु श्रीमती सुचित्रा आर्य हनुमानगढ़ जिले की नोहर विधानसभा क्षेत्र से बिधायक रही हैं। पौत्र विशु आर्य भी नोहर पंचायत समिति के प्रधान रह चुके हैं।
किसान और ग्रामीण जनता उस वक्त बदहाली में थी। अंग्रेजों के जुल्म और राजा की अनगिनत लाग के कारण जन मानस दुखी था। गुलामी से मुक्ति पाने के लिए बचपन से ही वे आंदोलनों की बातें बड़े बुजुर्गों से ध्यानपूर्वक सुना करते थे। उनके जहन में भारत माता के नारे गूंजने लगे थे। नोकरी में रहते हुए भी लाहोर में हो रहे कोंग्रेस अधिवेशन को सुनने के लिए वे चले गए। सन 1931 में उन्हें वन विभाग की नोकरी से निकाल दिया गया किन्तु छः महीने बाद वे पुलिस विभाग में नोकरी लग गए।
 
पुलिस विभाग की नोकरी के साथ-साथ श्री कुम्भाराम शोषित और उत्पीडित ग्रामीण लोगों की सेवा करने का काम अधिक करते थे। आपस में झगड़ कर आए किसान और ग्रामीण जनों को वे मुकदमों और कोर्टों से बचने की नसीयत दिया करते थे। अपनी इस नोकरी के दौरान बेहतर कार्य करने के उपलक्ष में उन्हें अनेक प्रशस्ति पत्र प्राप्त हुए। किसान की दशा देखकर उनका क्रांतिकारी मन आन्दोलन करने को मचल उठता था। थानेदारी के पद पर रहते हुए जितनी मदद लोगों की वे कर सकते थे, उतनी करने का पूरा प्रयाश किया। सामंतवादी व्यवस्था में पुलिस की नोकरी करते हुए श्री आर्य पूरी निडरता के साथ जगह जगह चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलनों में भी भाग लिया करते थे। दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना उन्हें प्रिय था किन्तु उनका मानना था कि दर्शन ज्ञान प्रदान करता है फल नही, फल के लिए हमे व्यवहार (कर्मक्षेत्र) में उतरने की आवश्यकता है। व्यवहार हमारा जितना सरल और सुगम होगा उतना ही परिणाम अधिक सही निकलेगा।
 
भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध वे बेबाक कार्यवाही करते थे। हनुमानगढ़ में एक अत्याचारी तहसीलदार का वरदहस्त प्राप्त एक व्यापारी धडल्ले से कालाबाजारी करता था। कुम्भाराम जी ने उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखकर कार्यवाही करदी। मुंसिफ मजिस्ट्रेट को व्यापारी ने तहसीलदार के माध्यम से रिश्वत देकर जमानत करवानी चाही किन्तु पूरी साजिस का भंडाफोड करते हुए श्री आर्य ने तत्कालीन राजा को लिखकर भेज दिया। जांच के लिए राजा ने कमिश्नर बिहारीलाल को भेजा। तहसीलदार के विरुद्ध कई वकीलों ने भी शिकायत की हुई थी किन्तु रोबीले और खतरनाक कमिश्नर का इतना दबदबा था कि उनके सामने गवाही देने के लिए आने की कोई हिम्मत तक नही जुटा सका।
थानेदार कुम्भाराम जब उनके समक्ष बयान देने पहुंचे तो कमिश्नर ने उनके साथ बहुत ही बदतमीजी भरा व्यवहार किया। आपसी बातचीत में कमिश्नर ने श्री आर्य को डराने की नियत से उनपर पर हाथ उठाने का प्रयाश किया किन्तु शालीन स्वभाव के श्री आर्य सचेत थे। कमिश्नर के सम्मुख वे सीना तानकर खड़े हो गए। कमिश्नर की बढ़ती हुई बदतमीजियों का जबाब उन्होंने जब पिस्तौल से दिया तो कमिश्नर महोदय को भागकर बाथरूम में स्वयम को कैद करना पड़ा।
नोकरी में रहते हुए भी शेखावाटी में झुंझुनू, अलसीसर, मुकुन्दगढ़ आदि आंदोलनकारियों की सभाओं में आपने ओजस्वी विचारों से लोगों की चेतना को जागृत किया। शोषण के शिकार लोगों जागृत करने की नियत से वे अक्सर कहा करते थे कि जुल्म ढाहने वालों की उम्र आपके जाग उठने वाले चंद लम्हों की ही होती है। लोग आपको तब तक डराएंगे जब तक आप उनसे डरेंगे किन्तु लोग आपसे डरने लगेंगे, जब आप उन्हें डराने लगेंगे। अतः अब आवश्यकता है निर्भीक होकर अन्याय एवं अत्याचारों के विरुद्ध चल रहे आन्दोलन से जुड़ने की और इनके खिलाफ संघर्ष करने की।
 
आंदोलनों का दौर था। बीकानेर रियासत में किसानों के साथ बहुत अत्याचार हो रहा था। श्री कुम्भाराम को ग्रामीण और किसानों की पीड़ा भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। बीकानेर में उन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ने के लिए स्वःलिखित नियमावली बनाकर दी। जनता का एक हिमायती संगठन ‘प्रजापरिषद’ के गठन करने में श्री आर्य ने सहयोग दिया। गरीबों के मसीहा और आज़ादी के दीवाने श्री आर्य नोकरी के इस बंधन से मुक्त होना चाहते थे इसलिए उन्होंने नोकरी से इस्तीफा दे दिया। सरकार ने इसे स्वीकार नही किया। उनका मानना था कि व्यक्ति को सही समय पर सही निर्णय लेना चाहिए। आगे बढने के लिए निर्णय तो स्वयं आपको ही लेने होंगे। उनका मत था कि व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण फैसले स्वयं नही ले सकता तो फिर उसके जीवन के फैसले लोग ही करते हैं। लोग तो आपको यह सोचने का मौका भी नही देंगे कि फैसला आपके हित में हुआ है अथवा अहित में। जब आपके फैसले लोगों द्वारा लिए जायेंगे तो सक्षम शोषणकारी सताएं योंही आपके खून पसीने की कमाई को खाती रहेंगी।
 
सरकार स्वीकार करे या अस्वीकार, नोकरी से इस्तीफा देने का निर्णय उनका अपना था। तूफानों को भला किसने कैद किया है?
 
श्री आर्य जैसे तूफान को रोक पाने का सामर्थ्य किसी भी सरकार में न था। उदयपुर में आयोजित अखिल भारतीय देशी राज्य परिषदों का अधिवेशन सन 1945 में हुआ। कुम्भाराम जी ने इस अधिवेशन में पूरी सिद्दत से भाग लिया। पूरी रियासत में इस बात की चर्चा जोरों से हुई। सरकार ने कुम्भाराम का इस्तीफा स्वीकार करने की बजाय उन्हें नोकरी से बर्खास्त कर दिया। यह खबर रियासत की जनता में आग की तरह फ़ैल गयी। राजनिती के मैदान में कूदकर उन्होंने समस्त ग्रामीण जनता को संगठित करने का कार्य किया। श्री आर्य को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया किन्तु छूटकर आने के बाद शुरू हुए आंदोलनों ने सरकार के नासिक में दम कर दिया। उनके एक इशारे पर लोग मर मिटने को तैयार रहते थे। पूरी बीकानेर रियासत के ग्रामीण क्षेत्रों में धारा-144 हर 3-3 महीनों के लिए बढा-बढा कर सरकार तंग आ चुकी थी।
 
मिथ्या धारणाओं के बल चलने को इंसान के जीवन को वे अभिषप्त मानते थे। सार्थक और स्वाभिमानी जीवन जीने को प्रेरित करने वाले चौधरी कुम्भाराम खुद कर्मयोगी बनकर लोगों को कर्म की प्रधानता बतलाई। एक जुट होकर लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत किया। बीकानेर रियासत के समस्त ग्रामीण क्षेत्र पर चौधरी कुम्भाराम का प्रभाव इस कद्र हावी था कि लोग उनके एक आदेश पर स्वयं को न्योछावर करने को तैयार थे।
इंटेलिजेंस की रिपोर्ट और चौधरी कुम्भाराम आर्य के दबाब में आकर महाराजा सार्दुल सिंह ने लोकप्रिय सरकार के गठन की घोषणा कर दी और इस सरकार में 33 वर्षीय कुम्भाराम राजस्व मंत्री बने।
 
उन्होंने राजा के सामने जागीरदारी उन्मूलन प्रस्ताव रखकर देश और दुनिया को नई दिशा में सोचने को मजबूर किया। राजस्व मंत्री के रूप में उन्होंने ग्रामीण जनता के हित में अनेक फैसले लिए।
वह दिन भी जल्दी ही आ गया जब चौधरी कुम्भाराम जी का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण राजस्थान हो गया था। उन्होंने गांव-गांव घूमकर कोंग्रेस की रीतियों और नीतियों को लोगों के जहन में बिठाने का काम किया। श्री जयनारायण व्यास के नेतृत्व में गठीत अंतरिम सरकार में चौधरी कुम्भाराम आर्य राजस्थान के गृह मंत्री बने। व्यक्ति के स्वः विकास की प्रक्रिया की निरंतरता में जितना महत्त्व पूर्ण वे विकारों और व्यवधानों से निवृत होना मानते थे उतना ही वे व्यक्ति के क्रम और व्यवहार को महत्व देते थे। उनका मत था कि जीवन को सार्थकता प्रदान करने के सन्दर्भों में व्याप्त विकारों एवं व्यवधानों को दूर करने के लिए व्यक्ति द्वारा किये जाने वाला कर्म ही व्यक्तिगत सत्याग्रह कहलाता है। गृह मंत्री के रूप में उनके कार्य काल को राजस्थान की राजनीती में मील का पत्थर माना जाता है। पुरे राजस्थान में श्री आर्य की ख्याति दिनों दिन बढती जा रही थी।
 
श्री आर्य की ताकत से राजनितिक षड्यंत्रकारीयों में भय व्याप्त था। सन 1952 में हुए प्रथम विधान सभा चुनाओं में पार्टी की तरफ से श्री आर्य को चुरु से कांग्रेस उम्मीदवार की हैसियत से परचा दाखिल करने का आदेश हुआ था। श्री कुम्भाराम आर्य के विरुद्ध षड्यंत्र रचकर पार्टी के भीतर कांग्रेसजन ही उन्हें कमज़ोर करना चाहते थे क्योंकि राजस्थान की राजनिती में उनके दबदबे से वे अधिक चिंतित थे। षड्यंत्र के चलते आखिरी वक्त पर उन्हें सिम्बल नही दिया गया। फॉर्म उठा लेने की समय सीमा समाप्त हो चुकी थी। षड्यंत्रकारियों के द्वारा श्री आर्य के विरुद्ध रचे गए फरेब की जानकारी पंडित जवाहरलाल नेहरु को भी हो चुकी थी किन्तु अब समय निकल चूका था। पंडित नेहरु ने व्यथित मन से श्री आर्य से आग्रह किया कि वे पुरे राजस्थान में कोंग्रेस को जीताने के लिए प्रचार करें। स्वयं के क्षेत्र चुरु में प्रचार करने के लिए उन्हें मना किया गया। श्री आर्य ने ऐसा ही कियापूरे राजस्थान में वे कांग्रेस के पक्ष में चुनाव प्रचार करते रहे किन्तु स्वयं क्षेत्र चूरु एक बार भी नही गए। स्वयं को जितने से सम्बंधित किसी प्रकार की कोई अपील भी इन्होने जारी नही की। अपने वायदे पर सच्चे और खर्रे रहने वाले श्री आर्य ने अन्य किसी माध्यम से भी अपने पक्ष में कोई चुनाव प्रचार नही किया।
चुनाव आयोग ने श्री आर्य को चुनाव चिन्ह आवंटित किया था और मतपत्र में उनका नाम भी दिया गया था। किसी भी मतदान केन्द्र पर श्री आर्य का कोई एजेंट तक नही बैठा, किन्तु चूरु की जनता ने चौधरी साहब के चिन्ह पर मोहर लगाकर मतपेटियां भर दी। अंततः श्री आर्य भारी मतों से विजय हुए।
 
इस आम चुनाव में श्री जयनारायण व्यास चुनाव हार गए थे इसलिए प्रदेश में श्री टीकाराम पालीवाल की सरकार बनी। श्री व्यास जी बहुत ईमानदार और सैद्धांतिक इंसान थे। श्री आर्य के साथ उनका छोटा भाई और बड़े भसी जैसे दम्बन्ध थे। छ महीने बाद किशनगढ़ विधायक से इस्तीफा दिलाकर चौधरी साहब की मेहनत और लग्न ने व्यासजी को चुनाव जीत दिया। जीतकर श्री व्यास जी की सरकार बनी जिसमे श्री आर्य केबिनेट मन्त्री की हसियत से सरकार में शामिल हुए। राजस्थान में श्री आर्य किंग मेकर की भूमिका में थे। श्री जयनारायण व्यास एक ईमानदार नेता थे किन्तु उनके स्वाभाव में जिद्द थी। वे एक बार किसी से कोई बात की हाँ कर लेते थे उससे पलटना उनके लिए आसान नही था। उन्होंने से ही जीते हुए 21 जागीरदार विधयकों को कांग्रेस में शामिल करने का वचन दे दिया। इस पर दोनों में मतभेद बढ़ते गए और अंत मे व्यासजी की सरकार गिराकर 6 नवम्बर 1954 को श्री व्यास के स्थान पर श्री मोहन लाल सुखाडिया को मुख्यमंत्री बनाया गया। श्री सुखाडिया को मुख्यमंत्री बनाने से पहले उनसे श्री आर्य ने किसानों के हित में कार्य करने की शर्त रखी गयी थी जिसे श्री सुखाडिया ने स्वीकार कर लिया था। सन 1952 में बना लैंड रिफोर्मेसन एंड रिजम्पसन ऑफ जागीर एक्ट पर जागीरदारों द्वारा कोर्ट से स्टे लेलिया था। सन 1953 में निर्णय आ जाने के पश्चात चौधरी कुम्भाराम आर्य के सद्प्रयासों के कारण ही 16 जून 1954 को यह एक्ट पारित हो गया और इस प्रकार सीकर और खेतडी के जागीरें भी समाप्त हुई और किसान मुफ्त में जमीन का मालिक बन गया।
प्रशासन में उनकी पकड़ बहुत मजबूत थी। स्वयं वे एक अच्छे प्रशासक थे और ईमानदार राजनीतिज्ञ थे। जनता के हितार्थ फैसलों में अधिकारीयों की मनमानी कभी नही चलने देते थे। कलेक्टर और सेक्रेटरीयों को वे बड़ा बाबु कहकर पुकारते थे। जनता के काम में जब कोई प्रशासनिक अधिकारी टिप्पणी लिखकर भेजता कि अमुक कार्य क़ानूनी अड़चन के होते नही किया जा सकता तो श्री आर्य उस सचिव को कानून की किताब के साथ बुलाकर उस कानून को लाल पेन से काट कर कह दिया करते कि यह कानून अब समाप्त हो गया है। लोगों के हित में हम इस कानून को बदल देंगे आप यह काम कर दीजिए। वे सचमुच उस कानून में संशोधन करवा देते थे। उनका मानना था कि कानून के लिए व्यक्ति नही बना बल्कि व्यक्ति की सुविधा के लिए कानून होने चाहियें। जो कानून किसी व्यक्ति के लिए असुविधाजनक है उसे तुरंत बदल दिया जाना चाहिए।
 
कुम्भाराम जी द्वारा जनहित के कार्यों को वे जिस नियम से करते थे, लोग उसे कुम्भा एक्ट कह कर पुकारने लगे। रास्ते में चलते हुए लोग उन्हें अपनी पीड़ा बता देते और उनके काम वे साधारण कागज/कमीज या उसी के हाथ पर लिखकर अधिकारी के पास भेज देते और उनका काम हो जाता।
 
प्रशासन में वे न्यायसंगत व्यवस्था के हिमायती थे। चौधरी साहब का मत था कि प्रशासनिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिय जिसके अंदर सद्व्यवहार, सहानुभूति और सहयोग से परिपूर्ण हो। यह तब संभव है जब प्रशासन में भ्रष्टाचार, पक्षपात और कार्य की शिथिलता समाप्त हो।
किसान को मुफ्त में जमीन का मालिक बना देने वाले चौधरी कुम्भाराम जी ही थे। वर्तमान पंचायती राज व सहकारिता पद्धति के संस्थापक श्री आर्य ही थे।
सत्ता के विकेन्द्रीकरण के हिमायती श्री आर्य पंचायतों को अधिक अधिकारी देने की हिमायत करते थे। ग्राम पंचायत को एक स्वंतत्र सत्ता की तरह कार्य करने का अधिकार मिलना चाहिए। विकेन्द्रीकरण के नाम से रची गयी व्यवस्था के बारे में उनका कहना था कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण का छलावा रचने वाली राज्यसत्ता ने आज पंचायती राज को राज पंचायती बना दिया है।
 
श्री मोहनलाल सुखाडिया के कार्यकाल में जब कांगेस में चाटुकारिता चरम पर पहुंच गई। गरीबों के हित बात करना सरकारी आकाओं को अखरने लगा था। तत्कालीन सरकार पूंजीपतियों के हित में कार्य करने लगी थी। किसानों की अनदेखी श्री आर्य को कहाँ गवारा हो सकती थी। श्री आर्य ने राजस्थान में ‘जनता पार्टी’ के नाम से राजनितिक पार्टी बनायीं। इस पार्टी के वे स्वयं संस्थापक अध्यक्ष थे। भारतवर्ष में भी उस समय राजनितिक उथल पुथल जोरो पर थी। राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर भारतीय क्रांति दल का गठन उसी समय हुआ था। इस पार्टी का गठन देश के दिग्गज नेताओं ने मिलकर किया था। श्री आर्य को केन्द्रीय नेताओं ने दिल्ली आमंत्रित किया जहाँ श्री आर्य के विचारों के आधार पर राष्ट्रीय नेताओं ने समझोता करके ‘जनता पार्टी, का विलय भारतीय क्रांति दल में कर दिया और श्री आर्य इस नव गठित पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। तदुपरांत 1968 से 1974 तक वे राज्य सभा के सदस्य रहे।
 
सीकर से सन 1980 में वे लोक सभा के सांसद चुने गए। राष्ट्रीय राजनिति में भी उन्होंने अपनी अमिट छाप छोड़ी।
वे कहते थे कि जबतक किसान वर्ग जाति और धर्म को परे रख कर अपने वर्ग हित में संगठित नही होगा तब तक शोषणकारी सत्ता उन्हें यूंही नोच नोंच कर खाती रहेंगी। जिस दिन किसान संगठित हो गया उस दिन वह सत्ता का स्वामी बन जायेगा। किसान का सत्ताशीन होना देश और दुनिया के हित में भी होगा।
उन्होंने अपनी पुस्तक वर्गचेतना में किसान की दशा और दिशा को सटीक उकेरा है। वे वास्तविक जननायक थे। जमीन उनके लिए माँ थी और किसान और मजदूर उनके लिए भगवान थे। ऐसे महान योद्धा को मैं बारंबार नमन करता हूँ और उन्हें भावभीनी श्रद्धाजली अर्पित करता हूँ।