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→‎धातु एवं काष्ठ कला: नेपाल को नैपाल लिखा गया था
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धातु की मूर्तियाँ तीन प्रकार की होती थीं, ढली हुई, पीटी हुई और ढली पीटी हुई। ढाली हुई मूर्तियाँ प्रारंभ में मोम द्वारा बना ली जाती थीं। और फिर पतली महीन चिकनी मिट्टी के घोल में मूर्ति को डुबाकर एक मोटा आवरण बना लिया जाता था। नीचे लगी हुई मोम की नली द्वारा जो प्रत्येक मूर्ति के आवश्यकतानुसार स्थानों पर लगा ली जाती है गर्मी देकर मोम बाहर निकाल दिया जाता और उसी रिक्त स्थान को उन्हीं नलीवाले मार्ग से धातु द्वारा भर दिया जाता है। चाँदी, सोना, काँसा, पीतल और अष्टधातु की सभी मूर्तियाँ इसी प्रकार ढाली जाती हैं।
 
दूसरी प्रकार की मूर्तियों में धातु की चादर को पीछे की ओर से पीट पीटकर उभार लिया जाता है और इसे उभरे हुए विभिन्न अंग के खोलों को जोड़ दिया जाता है। कभी कभी ढली हुई मूर्तियों के अलंकरण पीटकर बनाते और बाद में जोड़ देते हैं या पीटी हुई मूर्तियों के सिंहासन अथवाअलंकरण ढले हुए रहते हैं। दक्षिण भारत, नैपालनेपाल और गुजरात ऐसी मूर्तियों का केंद्र रहा है और अब भी वहाँ परंपरागत शैली और विधि से इन मूर्तियों का निर्माण होता है, यद्यपि अब इनका लक्ष्य धार्मिक कम और अद्भुत वस्तुओं की रचना कर विदेशी मुद्रा अर्जन करना अधिक है। मूर्तियों के अतिरिक्त आराधना कार्य मंदिर और दैनिक जीवन में कार्य आनेवाली वस्तुएँ परंपरागत शैली में अब भी बनती है जैस कलश, धरती, प्रदीप, पूर्ण कुंभ घंटे, छीप लक्ष्मी, सरौते, चाकू इत्यादि जो अब र्निजीव और रुढ़िगत होने पर भी एक अपनी स्थानीय शैली का आकर्षण रचते हैं।
 
काष्ठ कला के अधिकतर प्राप्त नमूने हमें मध्ययुग से पूर्व के नहीं मिलते पर उनकी कलानिपुणता और कौशलपराकष्ठा देखकर सहज में ही मान लिया जा सकता है कि उस उच्च कोटि के स्तर तक पहुँचने के लिए इस प्रकार की कला की परंपरा बहुत पुरानी रही होगी। चंदन, अखरोट, शीशम, आवनूस, कटहल, शील, नीम, की काष्ठकला के सर्वोत्तम उदाहरण हमें काठमांडू (नेपाल), अहमदाबाद (गुजरात) के भवनों में और केरल की रथयात्रा के समय कार्य आनेवाले बड़े आकार के रथों में मिलते हैं। स्वतंत्र मूर्तियों की अपेक्षा इन सभी का ध्येय काष्ठ वस्तु कला का एक अलंकृत अंग होना था पर कलाकारों को अपनी अपनी शिल्प चतुरता और प्रौढ़ता दिखाने का काफी अवसर मिला है और ये लकड़ी के मकान, आराधना अथवा वासस्थान होने के कारण, धार्मिक विषय पर ही अधिक प्रोत्साहन होने पर भी हम पाते हैं कि धर्मनिरपेक्ष विषय जैसे शिकारी, पशुपक्षी, दैनिक जीवन में तल्लीन नरनारियों से इन भवनों की खुदाई ओतप्रोतओत-प्रोत है। खुदाई करने के बाद इन भवनों को वार्षिक समारोह के समय परिष्कृत करने के लिए तेल का प्रयोग अवश्य किया गया जिसके कारण काष्ठ जैसा माध्यम पक्का होकर समय और जलवायु के क्रूर प्रघातों को सह पाया है। कुछ भवन तो अब भी कल के बने हुए से नए दिखते हैं।
 
चंदन और अखरोट की लकड़ी जिसका मैसूर और कश्मीर केंद्र है कलात्मक प्रकार की छोटी और बड़ी दैनिक जीवन की वस्तुएँ और पशुपक्षी, कंधे, डब्बे इत्यादि बनाने के कार्य में लाई गई है। उसका विशेष कारण इस प्रकार की लकड़ी की दुर्लभता और बड़ी परिधि के पेड़ न होना ही है। मुगल काल में भी यह कला पनपी और आवनूस के कार्य के लिए, जिसके अलंकृत कंघे, कंघियाँ, कलमदान डब्बे इत्यादि बनाए जाते रहे। उत्तर प्रदेश के नगर नगीना और सहारनपुर विख्यात हुए। उसी काल से लकड़ी के ऊपर पीतल का तार, सीप अथवा विभिन्न प्रकार की लकड़ियों के मेल से फूल बूटे का जड़ाऊ काम (inlay work) भी प्रारंभ हुआ।