"आर्थर लेवेलिन बाशम": अवतरणों में अंतर
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'''आर्थर लेवेलिन बाशम''' (Arthur Llewellyn Basham ; 24 मई, 1914 – 27 जनवरी, 1986) प्रसिद्ध इतिहासकार, [[भारतविद्या|भारतविद]] तथा अनेकों पुस्तकों के रचयिता थे। १९५० और १९६० के दशक में 'स्कूल ऑफ ओरिएण्टल ऐण्ड अफ्रिकन स्टडीज' के प्रोफेसर के रूप में उन्होने अनेकों भारतीय इतिहासकारों को पढ़ाया, जिनमें [[आर एस शर्मा]], [[रोमिला थापर]] तथा [[वी एस पाठक]] प्रमुख हैं।
[[इंग्लैण्ड|इंग्लैंड]] में पैदा हुए और पले-बढ़े बाशम को मुख्यतः [[प्राचीन भारत]] की [[संस्कृति]] पर लिखी उनकी अत्यंत लोकप्रिय और कालजयी रचना '''[[द वंडर दैट वाज़ इण्डिया|द वंडर दैट वाज़ इण्डिया : अ सर्वे ऑफ़ कल्चर ऑफ़ इण्डियन सब-कांटिनेंट बिफ़ोर द कमिंग ऑफ़ द मुस्लिम्स]]''' (1954) के लिए जाना जाता है। इतिहास-लेखन में वस्तुनिष्ठता के पैरोकार बाशम ने किसी ऐतिहासिक निर्णय पर पहुँचने के पूर्व इतिहासकार के लिए आवश्यक दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए अपने एक लेख में सुझाया है कि अपनी अभिधारणा सिद्ध करने के लिए इतिहासकार को बड़े पैमाने पर स्रोतों का प्रयोग करना चाहिए। लेकिन साथ ही उसे एक ऐसे बैरिस्टर की भूमिका से बचना भी चाहिए जिसका उद्देश्य केवल अपने पक्ष में फैसला करवाना होता है। बाशम हर ऐसी बात पर बल देने के पक्ष में नहीं थे जो इतिहासकार के तर्क को मजबूत बनाती हो या सर्वाधिक सकारात्मक आलोक में इसकी व्याख्या करती हो। न ही वे दूसरे पक्ष के सभी साक्ष्यों को दरकिनार करने की कोशिश करते थे। वस्तुतः, बाशम इस मान्यता में विश्वास रखते थे कि इतिहासकार की दृष्टि बैरिस्टर की नहीं जज की तरह होनी चाहिए, एक ऐसे जज की जो अपना निर्णय सुनाने से पहले सभी पक्षों को नज़र में रखते हुए बिना किसी पक्षपात के एक वस्तुनिष्ठ निष्कर्ष पर पहुँचता है।
==जीवन परिचय==
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