"ज्ञानरंजन": अवतरणों में अंतर

छो 117.203.14.210 (Talk) के संपादनों को हटाकर अनुनाद सिंह के आखिरी अवतरण को पूर्ववत किया
टैग: वापस लिया
पंक्ति 30:
ज्ञानरंजन का जन्म 21 नवंबर 1936 को [[महाराष्ट्र]] के [[अकोला]] में हुआ था।<ref name="क">''कबाड़खाना'', ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, परिवर्धित संस्करण-2002, अंतिम आवरण फ्लैप पर लेखक परिचय में उल्लिखित।</ref><ref>''प्रतिनिधि कहानियाँ'', ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, नवम संस्करण-2015, पृष्ठ-i.</ref> बचपन और किशोरावस्था का अधिकांश समय [[अजमेर]], [[दिल्ली]] एवं [[बनारस]] में बीता तथा उच्च शिक्षा [[इलाहाबाद]] में संपन्न हुई। लंबे समय से उनका स्थायी निवास [[मध्यप्रदेश]] के [[जबलपुर]] में है। आज भी उनका प्रिय शहर इलाहाबाद ही है। जबलपुर का स्थान उसके बाद ही आता है।<ref>[[पाखी (पत्रिका)]] (सितम्बर 2012), सं॰-प्रेम भारद्वाज, पृष्ठ-17.</ref>
 
== लेखन-कार्य ==
== रचनात्मक परिचय ==
ज्ञानरंजन साठोत्तरी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक के रूप में मान्य हैं। साठोत्तरी पीढ़ी के 'चार यार' के रूप में प्रसिद्ध मंडली के चारों सदस्य -- ज्ञानरंजन, [[दूधनाथ सिंह]], [[काशीनाथ सिंह]] एवं [[रवीन्द्र कालिया]] में से सबसे पहले सर्वाधिक प्रसिद्धि ज्ञानरंजन को ही प्राप्त हुई; हालांकि ये चारों अपने ढंग के श्रेष्ठ कहानीकार रहे हैं। प्रकाशित संग्रह के रूप में ज्ञानरंजन के छह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, लेकिन यह बहुचर्चित तथ्य है कि इनकी कहानियों की कुल संख्या 25 है, जो कि '''सपना नहीं''' नामक संकलन में एकत्र प्रकाशित हैं। कम लिखने के संबंध में अनेक लोगों ने अनेक तरह की बातें कही हैं। किसी ने अनुभव के चूक जाने की बात की, तो किसी ने अगली पारी से पहले का विराम माना, तो किसी ने पहल जैसी पत्रिका की संपादकीय विवशता; परंतु स्वयं ज्ञानरंजन की नजर में कहानी-लेखन बंद करने का प्रमुख कारण उनके अपने दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठता की कसौटी ही रही है। जो भी लिखें या तो सर्वोत्तम हो या फिर हो ही नहीं।<ref>पाखी (सितम्बर 2012), सं॰-प्रेम भारद्वाज, पृ॰-16.</ref> यही कारण है कि पुस्तक रूप में प्रकाशित 25 कहानियों में से किसी एक कहानी को भी किसी मान्य समीक्षक ने कमजोर या उपेक्षा के योग्य के रूप में विवेचित नहीं किया। ज्ञानरंजन साठोत्तरी पीढ़ी के लेखक हैं और [[अकहानी]] में शामिल लेखकों के मित्र भी। इसके बावजूद 'अकहानी' को दुःखद परिणति तक पहुँचाने वाली न्यूनताओं से उनकी कहानियाँ प्रायः मुक्त रही हैं। उनकी एक सुप्रसिद्ध कहानी 'घंटा' की समीक्षा करते हुए हिंदी कहानी के शीर्षस्थ समीक्षक [[सुरेन्द्र चौधरी]] ने लिखा था कि ''कथानकहीनता के सदृश्य के बावजूद 'अकहानी' के संयोजन से 'घंटा' का संयोजन अनिवार्यतः भिन्न है।''<ref>''हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ'', सुरेन्द्र चौधरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1995, पृ॰-164.</ref> ''घंटा में मानव-संबंधों की विडंबना प्रत्यक्ष है। मानव-संबंधों की विडंबना की यह कहानी पूरे समय की विडंबना से गुजर जाती है।''<ref>हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ, पूर्ववत्, पृ॰-161.</ref> चौधरी जी के इस विवेचनात्मक कथन में अनायास ही कहानी-समीक्षा का एक प्राथमिक परंतु व्यापक प्रतिमान भी झलक उठा है। ज्ञानरंजन की अधिसंख्य कहानियों में स्पष्ट दिखने वाली वैयक्तिकता रचनात्मकता के ही रास्ते जिस सफलता से सामाजिक हो जाती है, वह उनकी निजी और खास विशेषता है। 'घंटा' के अतिरिक्त संबंध, पिता, बहिर्गमन, फेंस के इधर और उधर आदि कहानियों ने भी एक तरह से अपने नाम का प्रतिमान रच डाला है।