"सियारामशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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गुप्त जी के मौर्य विजय (१९१४ ई.), अनाथ (१९१७), दूर्वादल (१९१५-२४), विषाद (१९२५), आर्द्रा (१९२७), आत्मोत्सर्ग (१९३१), मृण्मयी (१९३६), बापू (१९३७), उन्मुक्त (१९४०), दैनिकी (१९४२), नकुल (१९४६), नोआखाली (१९४६), गीतासंवाद (१९४८) आदि काव्यों में मौर्य विजय और नकुल आख्यानात्मक हैं। शेष में भी कथा का सूत्र किसी न किसी रूप में दिखाई पड़ता है। मानव प्रेम के कारण कवि का निजी दु:ख, सामाजिक दु:ख के साथ एकाकार होता हुआ वर्णित हुआ है। विषाद में कवि ने अपने विधुर जीवन और आर्द्रा में अपनी पुत्री रमा की मृत्यु से उत्पन्न वेदना के वर्णन में जो भावोद्गार प्रकट किए हैं, वे बच्चन के प्रियावियोग और निराला जी की "सरोजस्मृति' के समान कलापूर्ण न होकर भी कम मार्मिक नहीं हैं। इसी प्रकार अपने हृदय की सचाई के कारण गुप्त जी द्वारा वर्णित जनता की दरिद्रता, कुरीतियों के विरुद्ध आक्रोश, विश्व शांति जैसे विषयों पर उनकी रचनाएँ किसी भी प्रगतिवादी कवि को पाठ पढ़ा सकती हैं। हिंदी में शुद्ध सात्विक भावोद्गारों के लिए गुप्त जी की रचनाएँ स्मरणीय रहेंगी। उनमें जीवन के श्रृंगार और उग्र पक्षों का चित्रण नहीं हो सका किंतु जीवन के प्रति करुणा का भाव जिस सहज और प्रत्यक्ष विधि पर गुप्त जी में व्यक्त हुआ है उससे उनका हिंदी काव्य में एक विशिष्ट स्थान बन गया है। हिंदी की गांधीवादी राष्ट्रीय धारा के वह प्रतिनिधि कवि हैं।
 
काव्य रूपों की दृष्टि से उन्मुक्त नृत्य नाट्य के अतिरिक्त उन्होंने पुण्य पर्व नाटक (1932), झूठा सच निबंध संग्रह (1937), गोद, आकांक्षा और नारी उपन्यास तथा लघुकथाओं (मानुषी) की भी रचना की थी। उनके गद्य साहित्य में भी उनका मानव प्रेम ही व्यक्त हुआ है। कथा साहित्य की शिल्प विधि में नवीनता न होने पर भी नारी और दलित वर्ग के प्रति उनका दयाभाव देखते ही बनता है। समाज की समस्त असंगतियों के प्रति इस वैष्णव कवि ने कहीं समझौता नहीं किया किंतु उनका समाधान सर्वत्र गांधी जी की तरह उन्होंने वर्ग संघर्ष के आधार पर न करके हृदय परिवर्तन द्वारा ही किया है, अत: "गोद'
 
में शोभाराम मिथ्या कलंक की चिंता न कर उपेक्षित किशोरी को अपना लेता है; "अंतिम आकांक्षा' में रामलाल अपने मालिक के लिए सर्वस्व त्याग करता है और "नारी' के जमुना अकेले ही विपत्तिपथ पर अडिग भाव से चलती रहती है। गुप्त जी की मानुषी, कष्ट का प्रतिदान, चुक्खू प्रेत का पलायन, रामलीला आदि कथाओं में पीड़ित के प्रति संवेदना जगाने का प्रयत्न ही अधिक मिलता है। जाति वर्ण, दल वर्ग से परे शुद्ध मानवतावाद ही उनका कथ्य है। वस्तुत: अनेक काव्य भी पद्यबद्ध कथाएँ ही हैं और गद्य और पद्य में एक ही उक्त मंतव्य व्यक्त हुआ है। गुप्त जी के पद्य में नाटकीयता तथा कौशल का अभाव होने पर भी संतों जैसी निश्छलता और संकुलता का अप्रयोग उनके साहित्य को आधुनिक साहित्य के तुमुल कोलाहल में शांत, स्थिर, सात्विक घृतपीद का गौरव देता है जो हृदय की पशुता के अंधकार को दूर करने के लिए अपनी ज्योति में आत्म मग्न एवं निष्कंप भाव से स्थित है।