"प्राकृतिक चिकित्सा": अवतरणों में अंतर

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'''प्राकृतिक चिकित्सा''' (नेचुरोपैथी / naturopathy) एक वैकल्पिक चिकित्सा-पद्धति एवं दर्शन है जिसमें 'प्राकृतिक', 'स्व-चिकित्सा' (self-healing), 'अनाक्रामक' (non-invasive) आदि कहीं जाने वाली प्राकृतिक रूप से वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग होता है। प्राकृतिक चिकित्सा का दर्शन और विधियाँ [[प्राणतत्त्ववाद]] (vitalism ) और [[लोक चिकित्सा]] पर आधारित हैं न कि प्रमाण-आधारित चिकित्सा (EBM) पर। <ref>Jagtenberg, Tom; Evans, Sue; Grant, Airdre; Howden, Ian; et al. (April 2006). [https://works.bepress.com/airdre_grant/4/download/ "Evidence-based medicine and naturopathy"]{{Dead link|date=जनवरी 2021 |bot=InternetArchiveBot }}. Journal of Alternative and Complementary Medicine. 12 (3): 323–328. doi:10.1089/acm.2006.12.323. PMID 16646733.</ref> भारत में एक्युप्रेशर योग नेेेचुरोपैथी परम्परागत पद्धति का विकास प्रचार प्रसार बेेेसिक परशििक्षण एक्युप्रेशर योग नेचुरोपैथी काउंसिल नेेेचुआजलालपुर गोपालगंज बिहार द्वारा संस्थापक डा0 श्री प्रकाश बरनवाल के संंयोजन में हो रहा है।
 
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=== जल चिकित्सा ===
मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।
 
पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।
 
मनुष्य−शरीर तीन चौथाई भाग से अधिक जल से ही बना है। हमारे रक्त , माँस, मज्जा में जो आद्रता या नमी का अंश है वह पानी के कारण ही है। मल, मूत्र, पसीना और तरह−तरह के रस, सब पानी के ही रूपान्तर होते हैं। यदि शरीर में पानी की कमी हो जाती है तो तरह−तरह के रोग उठ खड़े होते हैं पानी की कमी से ही गर्मी में अनेक लोग लू लगकर मर जाते हैं। जुकाम में पानी की भाप लेने से बहुत लाभ होता है। इसी प्रकार सिर दर्द और गठिया के दर्द में भी इस उपचार से निरोगता प्राप्त होती है, शरीर में जब फोड़े फुँसी अधिक निकलने लगते हैं और मल्हम आदि से कोई लाभ नहीं होता तो जलोपचार उनको चमत्कारी ढंग से ठीक कर देता है।
 
पेट−दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं एलोपैथिक डाक्टर भी रबड़ की थैली या बोतल में गर्म पानी भर कर सेक करवाते हैं। कब्ज के रोग में गर्म पानी पीना बड़ा लाभकारी होता है और जो नित्य प्रति सुबह गर्म पानी नियम से पीते रहते हैं उनका कब्ज धीरे-धीरे अवश्य ठीक हो जाता है।
 
रोगों और शारीरिक पीड़ा के निवारण के लिये गर्म पानी का प्रयोग तो साधारण गृहस्थों के यहाँ भी सदा से होता आया है, पर ठंडे पानी के लाभों को थोड़े ही लोग समझते हैं, यद्यपि ठंडा पानी गर्म पानी की अपेक्षा अधिक रोग निवारक सिद्ध हुआ है। ज्वर, चर्म, रोग में ठंडे पानी से भीगी हुई चादर को पूरी तरह लपेटे रहने से आश्चर्यजनक लाभ पहुँचता है। उन्माद तथा सन्निपात के रोगियों के सिर पर खूब ठण्डे जल में भीगा हुआ कपड़ा लपेट देने से शान्ति मिलती है। शरीर के किसी भी भाग में चोट लगकर खून बह रहा हो बर्फ के जल में भीगा हुआ कपड़ा लगाने से खून बहना रुक जाता है। नाक से खून का बहना भी पानी से सिर को धोने तथा मिट्टी के सूँघने, लपेटने से ठीक होता है। इसी प्रकार अन्य अंगों के विकार भी जल के प्रयोग से सहज में दूर हो जाते हैं। जर्मनी के डाक्टर लुई कूने ने अपने ग्रंथ में बहुत स्पष्ट रूप से यह समझा दिया है कि जल−चिकित्सा ही सर्वोत्तम है। उसमें किसी प्रकार का खर्च नहीं है और सादा जल का प्रयोग करने से शरीर में कोई नया विकार भी उत्पन्न होना संभव नहीं है।
 
--------;स्नान की वैज्ञानिक विधि'''---
स्नान के लिये बहता हुआ साफ पानी सबसे अच्छा होता है। वह न मिल सके तो कुँआ, तालाब आदि का ताजा पानी भी काम दे सकता है। बहते हुये और ताजा पानी में जो प्राण तत्व पाया जाता है वह बर्तनों में कई घंटों तक रखे पानी में नहीं रहता। इसलिये अगर रखे हुये पानी से ही काम लेना पड़े तो उसे एक बर्तन से दूसरे बर्तन में बार−बार कुछ ऊँचाई से डालने से उसमें प्राण−शक्ति का संचार हो जाता है। स्नान का पानी सदैव ठण्डा ही होना चाहिये, हाँ उसका तापक्रम ऋतु के अनुसार इतना रखा जा सकता है जिसे अपना शरीर सहज में सहन कर सके। अपनी शक्ति से अधिक ठण्डे पानी, से स्नान करना जिससे मन प्रसन्न होने के बजाय संकुचित हो, लाभदायक नहीं होता। इसी प्रकार गर्म पानी से स्नान करना भी हानिकारक है, सिवाय किसी विशेष बीमारी की अवस्था के जिसमें इस प्रकार के स्नान का विधान हो। पानी अधिक ठण्डा जान पड़े तो उसे धूप में रख कर या गर्म पानी मिला कर सहने योग्य बनाया जा सकता है। बहुत ठण्डे पानी में अधिक देर तक स्नान करने से रक्त −संचारण क्रिया में बाधा पड़ती है।
 
स्नान करते समय शरीर को खूब मलना आवश्यक है जिससे मैल छूट कर देह के भीतर की गर्मी को उत्तेजना मिले और रक्त−संचरण ठीक ढंग से होने लगे। इसके लिये शरीर को किसी मोटे और खुरदरे तौलिये से रगड़ना ठीक रहता है। इससे शरीर के रोम कूप भली प्रकार खुल जाते हैं और भीतर का मैल पसीने के रूप में आसानी से निकल सकता है। पीठ, रीढ़ की हड्डी, चूतड़, लिंगेन्द्रिय, आदि की सफाई करने का बहुत से लोग ध्यान नहीं रखते। पर इन स्थानों की सफाई की और भी अधिक आवश्यकता होती है। इसलिये आधुनिक सिद्धान्तानुसार एकान्त कमरे में नंगे होकर स्नान करने को अधिक लाभदायक बतलाया गया है। कुछ भी हो स्नान में जल्दबाजी न करके समस्त अंगों को भली प्रकार रगड़ना और साफ करना आवश्यक है।
 
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=== ठण्डे पानी की प्रतिक्रिया===
इन सब विधियों से जो लाभ होता है उसका मूल कारण ठण्डे पानी की प्रतिक्रिया ही होती है। जिस प्रकार नंगे बदन पर ठंडे पानी के छींटे मारने से फुरफुरी सी आती है और रोंये खड़े हो जाते हैं और उसी के फल से बाद में रक्त संचार की गति तेज हो जाती है। इसी प्रकार उक्त स्नानों और पट्टियों के प्रयोग में जहाँ शीतल पानी का स्पर्श होता है वहाँ पहले तो गर्मी की कमी हो जाती है, पर बाद में उस कमी की पूर्ति के लिए भीतर का रक्त वहाँ खिंच आता है। इस प्रकार जब रक्त की गति तेज होती है तो उसके साथ दूषित विजातीय द्रव्य भी बहकर मलाशय की तरफ ढकेले जाते हैं। इस प्रकार जल के प्रभाव से रोगों का निवारण होता है और सुस्त तथा निर्बल अंगों को नवीन चेतना प्राप्त होती है।
 
अधिकाँश रोगों की जड़ पेट सम्बन्धी खराबी अथवा कब्ज ही होती है। उसका दूषित विकार नीचे के हिस्से में ही रहता है। कटिस्नान द्वारा इसी भाग को चैतन्य किया जाता है। इससे पुराने और सड़े मल के निकलने में सहायता मिलती है। कठिन अवस्था में कटिस्नान और एनीमा दोनों का एक साथ प्रयोग किया जाता है जिससे शरीर की शुद्धि शीघ्रतापूर्वक होती है। पुरुष और स्त्रियों के प्रजनन अंगों का अग्रभाग समस्त स्नायविक नाड़ी−जालवा केन्द्र माना गया है। उसे शीतलता पहुँचाकर वहाँ की हानिकारक गर्मी को निकाल देने से समस्त शरीर को नव−जीवन और स्फूर्ति की प्राप्ति होती है। रीढ़ के बीच होकर ही ज्ञान तंतुओं का मुख्य संस्थान है, इसलिए रीढ़ को जलधारा द्वारा अथवा कपड़े की पट्टी द्वारा ठण्डक पहुँचाने से मस्तिष्क की निर्बलता दूर होती है। गीली चादर लपेटने का असर समस्त देह पर पड़ता है और ज्वर, चेचक, रक्त , जिगर, दमा, क्षय, शोथ, खुजली जैसे शरीरव्यापी रोगों पर उसका बहुत हितकारी प्रभाव पड़ता है।