"कान्यकुब्ज ब्राह्मण": अवतरणों में अंतर

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कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के उपनाम -कन्नौजिया,
बाजपेई, [[द्विवेदी]], [[त्रिवेदी]], [[त्रिपाठी]], तिवारी, उप्रेती, अग्निहोत्री, [], [[पांडेय]], [ चौबे, शुक्ला, अवस्थी, [[चतुर्वेदी]], दुबे,भट्ट, दीक्षित, बेनर्जी, चटर्जी, मुखर्जी, भट्टाचार्य, गांगुली, चक्रवर्ती,राय,, आदि|
 
डा० अभय सोशियोलोजिस्ट की पुस्तक 'आदिगौंङ भूमि के हार ब्राह्मणों का इतिहास तथा वंशबेलि' नामक शोध पुस्तक के अनुसार, "वाल्मीकिकृत रामायण के विवरण की संगति करने पर, कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूलत: गांधार क्षेत्र के 'महियाल सारस्वत ब्राह्मण' कुल के 'ब्रह्मदत्त' तथा आदिगौंङ क्षेत्र अंतर्गत गाधिपुर(गाजीपुर), बलिया, बक्सर आदि क्षेत्रों में राज करने वाले तत्कालीन 'अयाचक भूमि के हार ब्राह्मण' राजा 'कुशनाभ' की संतति, महान संस्कारी सौ कन्याओं के विवाहोपरांत 'ब्रह्मदत्त' जी को काम्पिल्य का राजा बनाने तथा इस क्षेत्र में निवास करते हुये अपनी श्रेष्ठ अयाचक ब्राह्मण वंश की वृद्धि से संबंधित है। यह तत्कालीन 'कांपिल्य'राज्य कानपुर, फर्रूखाबाद, कन्नौज आदि को अपनी परिधि में समाहित किये हुये था। अपने सतीत्व तथा महान संस्कारों के कारण प्रमुख देवता 'वरूण' द्वारा दिये गये विवाह प्रस्ताव को ठुकरा कर अपने पिता के निर्णय को ही अपना सब कुछ बतलाने वाली महानतम संस्कारी सतसम्पन्न उन सौ 'अयाचक (भूमिहार) ब्राह्मण'कन्यागण को प्रारंभ में वरूण देव ने कुपित होकर कुब्जा हो जाने का श्राप दे दिया था। किंतु उक्त महान कन्यागण, अपने पिता को ही अपने विवाह हेतु वर चुनने का अधिकारी बतलाती रहीं और जरा भी भयभीत नहीं हुईं। कालांतर में उन कन्याओं के अयाचक (भूमिहार) कुल में जन्में पिता ने अपने ही कुल के अंग गांधार स्थित (सारस्वत महियाल ब्राह्मण) 'ब्रह्मदत्त' जी से अपनी उन कुब्जा हो चुकी महान सती कन्याओं का विवाह करके ब्रह्मदत्त जी को अपने विस्तृत राजक्षेत्र में से 'कांम्पिल्य' क्षेत्र का राजा बना दिया जिसका क्षेत्र आज के कानपुर, कन्नौज, फर्रूखाबाद आदि क्षेत्रों में फैला हुआ था और उसे अपनी महान महान कन्याओं की इस महान गाथा की स्मृति में कान्यकुब्ज क्षेत्र नाम दिया। ब्रह्मदत्त जी राजा होने के साथ ही महान तपस्वी भी थे और विवाहोपरांत उक्त सती किंतु कुब्जा हो चुकी कन्याओं को छूते ही वे सौ सती कन्यागण पुन: पूर्ववत् स्वस्थ तथा सानन्द हो गयीं। पिता की गरिमा तता अपने सत् की रक्षा हेतु कुब्जा हो जाने का श्राप भी स्वीकार करने किंतु अपनी परिवार की गरिमा से टस से मस न होने वाली इन्ही 'महान सौ सती अयाघक भूमिहार-ब्राह्मण कन्याओं' से जन्मी संतानें 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण' कहलायीं जो इनकी महान परम्परा को व्यक्त करती हैं कि इन महान मातृशक्ति ने कुब्जा हो जाना स्वीकार किया किंतु अपने पिता की गरिमा को आंच नहीं आने दी। यह है 'आदिगौंङ अयाचक भूमिहार ब्राह्मण'कुल की महान परम्परा जिसमें से पितृपक्ष तथा मातृपक्ष दोनों ही ओर से 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण बंधु' निकले हैं।