इतनी उन्नत सभ्यता-संस्कृति के धरोहर को अपने अंदर समेटे रहने के बावजूद सदियों से चले आ रहे बाह्य सांस्कृतिक आक्रमणों की मार से दोतरफा विचारधारा का शिकार होकर सटीक जानकारी के अभाव में व सरकार की दोषपूर्ण व भेदभावपूर्ण नीतियों के वजह से आज ये समुदाय भटकाव की स्थिति से गुजर रहा है। अपने इतिहास, भाषा-सभ्यता-संस्कृति के प्रति सामाजिक स्तर पर क्रांतिकारी जागरूकता लाकर ही इनके पहचान और अस्तित्व को बचाया जा सकता है, जिसमें समाज के सभी वर्गों को आगे आकर अपनी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करनी और निभानी होगी।
==कुड़मी आदिवासियों की व्यथा==
टोटेमिक (गुस्टिधारि) कुड़मि आदिवासि समुदाय, जो 1950 तक मुंडा, उरांव, हो, संथाल आदि अन्य आदिवासि समुदायों के साथ आदिम जनजाति की सूचि में शामिल थी, 1950 में अनुसूचित जनजाति की सूचि बनाये जाने के समय भूलवश या किसी गहरी साजिश के तहत बिना किसी नोटिफिकेशन के उसमें शामिल करने से छोड़ दिये गये। जबकि डॉ. हृदयनाथ कुंजरू की 12 सदस्यीय रिपोर्ट में भी साफ लिखा हुआ है, कि 1950 में उन्हीं जनजातियों को अनुसूचित जनजाति (शिड्युल ट्राइब) की सूचि में शामिल किया गया, जो 1931 की प्रिमिटिव ट्राइब की सूचि में शामिल थे, तो फिर कुड़मियों के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया गया? सम्भवत: या यकीनन आदिवासियों की प्रतिशतता कम करने और कुड़मियों के जमीनों का हस्तांतरण करने के कुटिल उद्देश्य से।
जो भी हो, आज कुड़मि आदिवासि समुदाय आदिवासि होते हुए भी, भारतीय उत्तराधिकार कानून 1865 एवं 1925 के प्रावधानों से मुक्त रहने के बावजूद, झारखंड सरकार के दस्तावेज में "गैर सरकारी आदिवासि" के रूप नामित/चिन्हित होने के बाद भी पिछले 66 सालों से अपनी खोई हुई पहचान, अस्तित्व, व हक-अधिकार वापस पाने को संघर्षरत है, मगर सरकारी उदासीनता और महज वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा बनकर इस्तेमाल होते रहने के कारण अपने हक-अधिकार से महरूम है। "अनुसूचित जनजाति का दर्जा हमारा संवैधानिक और जन्मसिद्ध अधिकार है और हम हर हाल में इसे लेकर रहेंगे", इसी प्रण के साथ समाज के सभी वर्गों को सकारात्मक व सटीक दिशा में आगे आने का क्रांतिकारी आह्वान है, क्योंकि इसी में समाज और राज्य की भलाई अंतर्निहित है। :
===इतिहास===
कुड़मी आदिवासी समुदाय को 1950 में बिना किसी नोटिफेकशन के अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने से छोड़ दिया गया, जबकि वो पूर्व की जनगणना में आदिम जनजाति की सूची में शामिल थे, मगर 1950 में क्यों छोड़ दिया गया, इसके कारण अग्यात हैं। आखिर कुड़मी जनजाति के साथ ऐसा अन्याय क्यों किया गया? ये एक बहुत बड़ी साजिश का हिस्सा थी, जिसका मकसद आदिवासियों की जनसंख्या व प्रतिशतता कम करना एवं कुड़मियों के जमीनों का हस्तांतरण करने का एक सोची समझी चाल थी। उदाहरणस्वरूप इस शांतिप्रिय कृषिजीवि समुदाय को अन्नायपूर्वक विकास के नाम पर अपने जमीनों से नाना प्रकार से बेदखल किया गया एवं यह परंपरा आज भी बदस्तूर जारी है। यह बेदखल कल-कारखाना, जलाशय (डैम), भूगर्भ (माइन्स) खनन, शिक्षण-प्रशिक्षण संस्था, ताप-विद्युत संस्था एवं महानगर निर्माण आदि के नाम पर किया गया है। इसका ज्वलंत उदाहरण हैं - जमशेदपुर, बोकारो, धनबाद, रांची, हजारीबाग, पुरूलिया, रायरंगपुर, राउरकेला आदि नगरें एवं चाण्डिल, हीराकुंड, मैथन, तिलैया, कंसावती आदि जलाशय तथा टाटा, बीएसएल आदि जैसे प्लांट, जहां सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं कुड़मी समाज के लोग और बदले में मिला है सिर्फ और सिर्फ विस्थापन। इन 67 सालों में इस समुदाय का जो हर क्षेत्र में नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई कैसे होगी? तब से लेकर निरंतर अविराम कुड़मी आदिवासी समुदाय को अ.ज.जा. की सूची में शामिल करने के प्रयास जारी हैं। जाने कितने मेमोरेंडम दिये गये कितने आंदोलन किये गये, मगर धोखा, छल व ठगी के अलावे अब तक कुछ नहीं मिला। लोग इसे आरक्षण से जोड़कर देखते हैं, मगर ये सिर्फ आरक्षण के लिये नहीं, वरन हमारे असल पहचान को बनाये रखने व अस्तित्व को बचाये रखने के लिये भी है। ये किसी के हक छीनने के लिये भी नहीं, ये तो हमारा संवैधानिक अधिकार है एवं इससे किसी का हक किसी रूप में नहीं छिनेगा, बल्कि आदिवासियों की शक्ति और सामर्थ्य बढ़ेगी व 'छठवीं अनुसूची' के मापदंड पूरे होंगे। कई बार कुड़मी आदिवासियों एवं अन्य आदिवासियों को एक ना होने देने के मकसद से इनके बीच दरार पैदा करने के लिये गलतफहमी फैलाई जाती है। जैसे, अन्य आदिवासियों से कहा जाता है, कि ये आपका हक छीनना चाहते हैं और कुड़मी आदिवासियों से कहते हैं, ये आपको आपका हक देना नहीं चाहते। इस षडयंत्र के उद्देश्य को भी समझने की महती आवश्यकता है।
समय समय पर कई आदिवासी बुद्धिजीवियों एवं नेताओं ने भी कुड़मियों को अनुसूचित जनजाति में शामिल ना करने को अनुचित करार दिया है और कुड़मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की वकालत की है, जिसमें डॉ रामदयाल मुंडा से लेकर डॉ निर्मल मिंज, शिबू सोरेन, सूर्य सिंह बेसरा आदि प्रमुख हैं। जेएमएम पार्टी की मेनुफेस्टो में हमेशा ये मुद्दा शामिल रहा। झारखंड के वर्तमान सीएम रघुवर दास (भाजपा) भी 2009 लोक सभा चुनाव के दौरान ये बात कह चुके हैं। अर्जुन मुंडा सरकार (भाजपा) दो बार केंद्र से अनुशंसा कर चुकी है। जमशेदपुर के दिवंगत सांसद शहीद सुनील महतो (झामुमो), जमशेदपुर की पूर्व सांसद आभा महतो (भाजपा) और उड़ीसा के सांसद रवींद्र कुमार जेना संसद में आवाज उठा चुके हैं। इसके अलावे कई विधायकों (गुरूचरण नायक, जगरनाथ महतो आदि) और सांसदों ने समय समय पर विधान सभा और संसद में इसके समर्थन में बात रखी है। मगर फिर भी 67 साल बीत जाने के बाद भी कुड़मी समुदाय को अब तक एसटी सूची में शामिल ना कर इसपर सिर्फ राजनीति करना बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण है और सम्पूर्ण कुड़मी समुदाय को उसके वाजिब हक से महरूम रखकर उनके विश्वास पर कुठाराघात है। पिछले लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा के माननीय सांसद श्री लक्ष्मण गिलुआ जी ने कुड़मी विकास मोर्चा के सचिव को लिखित पत्र देकर ये आश्वासन दिया था, कि सांसद बनने के बाद वो कुड़मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल कराने की मांग को संसद में उचित ढंग से रखेंगे, मगर दो साल बीत जाने के बाद भी माननीय सांसद महोदय ने इस दिशा में अब तक कोई पहल नहीं की, जो अपने आप में कई सवाल और विरोधाभास खड़े करती है तथा इनके वोट की राजनीति की पोल खोलते हुए इनके कथनी और करनी के अंतर को साफ तौर पर उजागर करती है। मगर ये अन्याय सिर्फ कुड़मी आदिवासियों के प्रति नहीं, बल्कि गौर से सोचा और समझा जाय तो सम्पूर्ण आदिवासी समुदाय के साथ है।
ग्यातव्य हो, कि बिहार एवं उड़ीसा सरकार द्वारा जारी अधिसूचना संख्या 3563-J दिनांक 08 दिसंबर 1931 के द्वारा उक्त अधिसूचना संख्या नोटिफिकेशन नं. 550 (दिनांक 02 मई 1913) में दर्ज जनजातियों (मुण्डा, उरांव, हो, संथाल, भूमिज, खड़िया, घासी, गोंड, कान्ध, कोरवा, कुड़मी, माल-सौरिया और पान) को जनजाति घोषित करते हुए भारतीय उत्तराधिकार कानून 1865 एवं 1925 के प्रावधानों से मुक्त रखा गया है। अर्थात् ये सभी भारत में लागू हिन्दु लॉ या मुस्लिम लॉ के बजाय आदिवासियों के अपने पारम्परिक सामाजिक शासन व्यवस्था "कस्टमरी लॉ" से संचालित/शासित होते हैं, जिसके अंतर्गत कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यव्स्थापिका तीनों शासन तंत्र अंतर्निहित हैं। यहां तक कि "झारखंड मामलों से सम्बन्धित समिति की रिपोर्ट मई 1990", जो 30 मार्च 1992 को तत्कालीन गृह राज्यमंत्री एम. एम. जैकब ने संसद के दोनों सदनों में पेश की थी, में झारखंड के कुड़मी/कुरमी (महतो) समुदाय को "गैर सरकारी आदिवासी" के रूप में नामित/चिन्हित किया गया है। यहां उल्लेख करना आवश्यक है, कि आदिवासी तो आदिवासी ही होते हैं, सरकारी और गैर सरकारी का क्या तात्पर्य? सम्भवत: कुड़मी आदिवासी को, जो सरकारी सूची (एसटी सूची) में शामिल ना होने के कारण उक्त रिपोर्ट में गैर सरकारी आदिवासी कहा गया है।
भारत की जनगणना 1911, वॉल्यूम। वी, बिहार, उड़ीसा और सिक्किम भाग -1 का वर्णन है: कुडमी प्राचीन बिहार की महान खेती जातियां हैं, लेकिन बाद में छोटा नागपुर उड़ीसा राज्यों में भी एक आदिवासी जनजाति का नाम है, जिन्होंने अपने नाम के साथ एक मंत्र दिया है। कठिन "आर", जबकि बिहारी जातियां नरम "आर" का उपयोग करती हैं। वर्तनी में अंतर करना असंभव था और इसलिए उन्हें एक साथ रखा गया है। "[पृष्ठ 512, पैरा 1012]। समय के साथ छोटा नागपुर की कुड़मी बिहार के कुर्मी के साथ जुड़ गई और दोनों ने महतो (जिसका अर्थ ग्राम प्रधान) उपनाम के रूप में इस्तेमाल किया, उनके बीच अंतर करना असंभव हो गया। छोटा नागपुर की कुडमी को ब्रिटिश राज द्वारा 1865 में शुरू किए गए भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की शर्तों के तहत एक अधिसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था क्योंकि उनके उत्तराधिकार के प्रथागत नियम हैं। 1913 में, उन्हें एक आदिम जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया।
छोटानागपुर के कुड़मियो का खान पान प्रायः जंगल से मिलने वाले आहार केंद,बड़, जोयङ, महुआ (फलहार) में एवं घोंंगा,खरहा, सुुअर,भेड़ (माँसाहार) आदि है
धनबाद के गजेटियर के अनुसार, 1929 में मुज़फ़्फ़रपुर में आयोजित एक सम्मेलन में, छोटानागपुर की टुकड़ी को एक प्रस्ताव के माध्यम से कुर्मी तह में भर्ती कराया गया था। मानभूम के तीन प्रतिनिधियों ने सम्मेलन में छोटानागपुर कुरमियों का प्रतिनिधित्व किया। यह निर्णय लिया गया कि छोटानागपुर के कुडमी और बिहार के कुर्मियों के बीच कोई अंतर नहीं है। गजेटियर बताता है कि कॉन्क्लेव में भाग लेने वाले तीन प्रतिनिधियों ने एक जनेऊ (पवित्र धागा) दान किया। घाघजुरी के एक अन्य सम्मेलन में, उत्तर प्रदेश और बिहार के मानभूम, कुर्मियों ने भाग लिया और इस बात पर सहमति बनी कि बिहार के कुर्मियों और छोटानागपुर के बीच अंतर-भोजन और अंतर-विवाह होगा। लेकिन दोनों में विवाह नही होता है, बिहार और उत्तरप्रदेश के कुर्मी स्वयं को क्षत्रिय मानते है और छोटानागपुर के कुड़मी/कुरमी को अछूत मानते है।<ref>{{Cite news|url=https://m.telegraphindia.com/states/jharkhand/tribal-welfare-or-poll-pursuit-tribes-at-crossroads/cid/1600040|title=Tribal welfare or poll pursuit - Tribes at crossroads|website=telegraphindia|access-date=18 मई 2019|archive-url=https://web.archive.org/web/20190518102324/https://m.telegraphindia.com/states/jharkhand/tribal-welfare-or-poll-pursuit-tribes-at-crossroads/cid/1600040|archive-date=18 मई 2019|url-status=dead}}</ref>
==संस्कृति==
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