"जीवाश्मविज्ञान": अवतरणों में अंतर

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इन भ्रूणीय अन्वेषणों के परिणामों का फ़ॉसिल विज्ञान के साथ विशेष संबंध है। ऐसे अनेक फ़ॉसिल जानकारी में हैं जो अपने में अपने से संबंधित आधुनिक जीवों की तुलना में भ्रूणीय, अथवा कम से कम डिंभीय, अथवा किशोरावसा के लक्षण दिखाते हैं। इसप्रकार के आदिम आवा भ्रूणीय प्रकारों के उदाहरण कशेरुकों में विशेष करके देखने को मिलते हैं, क्योंकि इनमें कंकाल जीवन के अति प्रारंभिक काल ही में अश्मीभूत हो जाते हैं। अत: आधुनिक जीवों की अप्रौढ़ अवस्थाओं की तुलना सीधे प्रौढ़ फ़ॉसिल से की जा सकती है।
 
==नामपद्धति और वर्गीकरण==
जीवाश्मों को निश्चित नाम देना जीवाश्म विज्ञानी के लिए इसलिए महत्व का है कि जीवाश्मों में वह अधिक यथार्थ विभेद कर सके। जीवाश्मों का नामकरण सामान्यत: उन्हीं सिद्धांतों पर आधारित है जिनपर प्राणियों का। प्राणिजगत् अनेक संघों में विभक्त है और प्रत्येक संघ अनेक वर्गों, गणों, कुलों, वंशों और जातियों में विभक्त है।
 
जीवाश्मों के कई प्रकार के प्ररूप होते हैं। यदि अन्वेषक किसी जाति के जीवाश्म के एक प्रतिरूप के आधार पर उस संपूर्ण जाति का वर्णन करता है, तो वह जीवाश्म प्रतिरूप उस जाति का नाम प्ररूप (Holotype) कहलाता है।
 
यदि किसी एक के नामप्ररूप का निश्चय करने में अन्वेषक अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन अतिरिक्त नमूनों को '''पैराटाइप''' (Paratype) कहते हैं।
 
यदि अन्वेषक बिना नामप्ररूप का निश्चय किए ही कई अन्य जीवाश्म नमूनों की सहायता लेता है, तो इन जीवाश्म नमूनों को '''सहप्ररूप''' (Cotype) कहते हैं।
 
यदि किसी जाति के जीवाश्म का सहप्ररूप उस जाति के प्रारंभिक वर्णन के पश्चात् की उस जाति का प्रारूप चुन जाता है, तो वह जीवाश्म प्ररूप '''लेक्टोटाइप''' (Lectotype) कहलाता है।
 
जिस प्रकार एक जाति के वर्णन के लिए जीवाश्म नमूने होते हैं उसी प्रकार एक वंश के वर्णन के लिए प्ररूप जाति अथवा ''''समजीनी'' (genotype) जीवाश्म होते हैं।
 
यदि कोई अन्वेषक किसी एक नए वंश का वर्णन किसी एक विशेष जाति के आधार पर करता है, तो वह जाति उस वंश के लिए '''जेनोहोलोटाइप''' (genoholotype) हो जाती है।
 
यदि अन्वेषक नए वंश के वर्णन में ऐसी जातियों की सूची दे देता है जिनको वह यह समझता है कि वे नए वंश के अंतर्गत आते हैं, तो इन सब जातियों को '''जेनोसिनटाइप''' कहते हैं।
 
बहुत से जेनोसिनटाइपों में से बाद में आदि अन्वेषक द्वारा अथवा बाद में किसी अन्य अन्वेषक द्वारा एक '''जेनोलेक्टोटाइप''' (genolectotype) छाँटा जा सकता है।
 
==भौमिकीय काल के अनुसार जीवाश्म==
भौमिकीय काल पाँच बृहत् भागों में बँटा हुआ है। ये क्रमश: आर्कियोजोइक '''महाकल्प''' (Archeozoic Era), '''प्राग्जीव महाकल्प''' (Proterozoic Era), '''पुराजीवी महाकल्प''' (Paleozoic Era), '''मध्यजीवी महाकल्प''' (Mesozoic Era) और '''नूतनजीव महाकल्प''' (Cenozoic Era) हैं, जिनमें आर्कियोज़ोइक महाकल्प सबसे प्राचीन है। भौमिकीय काल के इन पाँच महाकल्पों में विभाजन मुख्यत: इन महाकल्पों में मिलनेवाले प्राणियों और पादपों के जीवाश्मों पर ही आधारित है। इनमें से आर्कियोज़ोइक महाकल्प जीवशून्य था। इस महाकल्प में न किसी प्रकार के जीवजंतु और न पौधे ही थे। अत: इस काल के शैलों में हमको किसी भी प्रकार के जीवाश्म नहीं मिलते हैं। प्राग्जीव महाकल्प में प्रोटोज़ोआ जैसे अति साधारण प्रकार के जीवजंतु अस्तित्व में आए। परंतु इन साधारण जीवों में किसी भी प्रकार के कड़े भाग के अभाव के कारण वे शैलों में परिरक्षित न हो सके। अत: प्राग्जीव महाकल्प के शैलों में भी जीवाश्म नहीं मिलते। अन्य तीनों महाकल्प, अर्थात् पुराजीवी महाकल्प (Palaeozoic) मध्यजीवी महाकल्प (Mesozoic) और नूतनजीवी महाकल्प (Cenozoic) जीवाश्ममय हैं। इन महाकल्पों के अंतर्गत आनेवाले जितने भी छोटे से लेकर बड़े तक विभाजन हैं वे सब पूर्णत: उस काल में पाए जानेवाले जीवों के जीवाश्म पर ही आधारित हैं। अत: हम देखते हैं कि स्तरित शैलविज्ञानी का काम बिना जीवाश्म विज्ञान की सहायता के नहीं चल सकता। यही कारण है कि जीवाश्म विज्ञान स्तरित शैलविज्ञान का मेरुदंड कहलाता है।
 
मोटे तौर पर जीवाश्म विज्ञान के अधार पर निम्नलिखि चार मुख्य प्राणी तथा पादप जातीय महाकल्प स्थापित किए जा सकते हैं :
 
(1) पूर्व पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत कैंब्रियन (cambrian), ऑर्डोविशन (ordovician) और सिल्यूरियन (silurian) कल्प आते हैं।
 
(2) उत्तर पुराजीवी महाकल्प - इसके अंतर्गत डियोनी (devonian), कार्बनी (carboniferous) और परमियन कल्प आतें हैं।
 
(3) मध्यजीवी महाकल्प
 
(4) नूतनजीव महाकल्प - अभिनव काल भी इसके अंतर्गत है।
 
===पूर्व पुराजीवी महाकल्प के प्राणी===
प्राय: सब प्रमुख अकशेरुकी प्राणियों के प्रतिनिधि जीवाश्म कैंब्रिन स्तरों में पाए जाते हैं और उनमें से ट्राइलोबाइट जैसे कुछ प्राणी आदिक्रैंब्रियन काल में ही अपेक्षया अधिक विकसित हो चुके थे। अत: यह धारण कि कैंब्रियन स्तरों में पाए जानेवाले सब वर्गों के पूर्वज कैंब्रियन पूर्व काल में पाए जाते थे, बिलकुल उचित है, यद्यपि उनके अवशेष कैंब्रियन पूर्व शैलों में नहीं मिलते। यह कल्पना की जा सकती है कि कैंब्रियनपूर्व समुद्रों में सब प्रकार के प्राणी रहते थे, परंतु वे सब कोमलांगी पूर्वज थे, जिन्होंने अपने अस्तित्व के विषय में किसी भी प्रकार के चिह्र नहीं छोडें हैं। चूँकि सब प्रकार के प्राणी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पौधों पर निर्भर रहते हैं और पौधों में ही केवल अकार्बनिक खाद्य पदार्थ के परिपाचन की शक्ति होती है, अत: यह भी धारणा उचित प्रतीत होती है कि कैंब्रियन पूर्व काल में पौधे अस्तित्व में थे। परंतु यह आश्चर्य की बात है कि पौधों के अवशेष पुराजीवी महाकल्प के स्तरों में नहीं पाए गए हैं।
 
पूर्वपुराजीवी महाकल्प के प्राणीजगत् के मुख्य लक्षणों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
 
*पौधों का अभाव था।
 
*कशेरुकियों का भी अधिकांश रूप में अभाव रहा। यह अकशेरुकियों का युग था।
 
*आर्थोपोडा - इसमें टाइलोबाइट की अति प्रचुरता थी। अधिकांशत: ये उथले जलवासी थे और उनका उपयोग क्षेत्रीय जीवाश्म के रूप में किया जाता है। इनमें से कुछ गहरे जल के वासी थे, जो या तो बड़ी बड़ी आँखोंवाले थे, अथवा नेत्रहीन थे। क्रस्टेशिया (crustacia) विरल थे, किंतु यूरिप्टेरिडा (eurypterida) का सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य हो गया था।
 
*मोलस्का (Mollusca) - इसमें गैस्ट्रोपोडा का बाहुल्य था, किंतु लैम्लीब्रैंकिया प्रारंभिक प्ररूप में थे। सेफेलोपोडा का नॉटिलाइट के रूप में बाहुल्य था।
 
*ब्रैकियोपोडा (Brachiopoda) - इनका कैंब्रियन एवं सिल्यूरियन कल्प में बाहुल्य था। फॉस्फेटी कवचवाले प्राणी कैल्सियमी कवचवाले प्राणियों की अपेक्षा अधिक थे।
 
*एकाइनोडर्माटा (Echinodermata) - आदि सिस्टिड और क्राइनॉइड्स (crinoids) महत्व के थे।
 
*सीलेनूटरेटा (Coelenterata) - ग्रैपटोलाइटीज़ (Graptolites) अति महत्व के थे। वे अधिकांशत: गहरे और शांत जल के वासी थे।
 
*पाँरिफेरा (Porifera) - स्पंज महत्व के नहीं थे।
 
*प्रोटोज़ोआ (Protozoa) - यद्यपि रेडियोलेरिया और फोरैमिनीफेरा अति सरल आकार के थे, तथाप वे पूर्व पुराजीव महाकल्प में महत्व के नहीं थे।
 
===उत्तर पुराजीवी महाकल्प के प्राणी===
यह मत्स्य और पर्णांग समान स्थल पादपों का, जिन्हें '''टेरिडोस्पर्म्स''' कहते हैं, युग था। इनके साथ गोनियोटाइट्स, स्पीरीफेरिड बाहुपाद और र्यूगोस प्रवाल पाए जाते थे।
 
*पादप - बीजपादप परंतु पर्णांग समान टेरिडोस्पर्म्स, इस युग के मध्य कल्प में महत्व के हो गए थे।
 
*कशेरुकी - उपर्युक्त महांकल्प डेवोनी कल्प मत्स्यों का कल्प था। अन्य पाए जानेवाले कशेरुकियों में कुछ उभयचर और सरीसृप (Reptile) हैं, जो उच्चतर स्तरों में मिलते हैं।
 
*संधिपाद प्राणी (Arthropoda) - उपर्युक्त महाकल्प में ट्राइलोबाइंट्स का पतन प्रारंभ हुआ और कल्प के अंत तक वे तथा यूरेप्टेरिडिस मृत हो गए, परंतु कीटों की वृद्धि हुई।
 
*मोलस्का - उत्तर पुराजीवीमहाकल्प गोनिएटाइंटीज़ (goniatites) का कल्प था। ये इस काल में अति प्रचुर थे। इनके अतिरक्त अन्य सीधे अथवा कुंडलाकार ऐमोनाइटीज़ (Ammonites) भी बहुतायत में थे, जिनकी सीवनरेखा साधारण प्रकार की थी। नाटिलाइटीज़ का धीरे धीरे ह्रास प्रारंभ हो गया था।
 
*ब्रैकियोपोडा - उपर्युक्त महाकल्प में प्रोडक्टिड्स और स्पीरीफिरिड्स कहलानेवाले ब्रैकियोपोडा अत्यधिक फूले फले।
 
*एकाइनोडर्माटा - उत्तरपुराजीव महाकल्प ब्लास्टॉइड्स (Blastoids) का महाकल्प था, जिनके साथ आदिम एकाइनॉइड्स (Echinoids) पाए जाते हैं।
 
*सीलेंटरेटा - उपर्युक्त महाकल्प में ग्रैप्टोलाइट्स। मृत हो गए। प्रवालों में र्यूगोस प्रवाल अति महत्व के थे।
 
*प्रोटोजोआ - रेडियोलेरिया और फोरैमिनीफेरा, दोनों पूर्व पुराजीव महाकल्प की अपेक्षा इस कल्प में अधिक महत्व के हो गए थे।
 
===मध्यजीवी महाकल्प के प्राणी===
मध्यजीवी महाकल्प सरीसृपों और ऐमोनाइटीज़ का कल्प कहलाता है। इनके साथ बेलेम्नॉइटीज़ (Belemnites) ब्रैकियोपोडा में रिनकोनीलिड्स और प्रवालों की भी प्रधानता थी।
 
*पादप - उपर्युक्त महाकल्प साइकैड्स (cycads) और एकबीजपत्री पादपों का कल्प था। शंकुवृक्ष (conifer) और फर्न (fern) भी मिलते हैं।
 
*कशेरुकी - उपर्युक्त महाकल्प में सरीसृपों का अति बाहुल्य था। इस कल्प को सरीसृपों का कल्प कहा जाता है। सरीसृप वायु, जल और स्थलवासी थे। स्तनियों और पक्षियों का प्रादुर्भाव हो गया था, परंतु सरीसृपों की तुलना में वे नगण्य तथा अति छोटे आकार के थे और संख्या में भी बहुत कम थे।
 
*ऑर्थ्रोपोडा - ये महत्व के नही थे।
 
*मोलस्का - लैम्लीब्रैंकिया और गैस्ट्रोपोडा (Gastropoda) का अत्यधिक विकास हुआ। ऐमोनाइटीज़ और बेलेम्नॉइट्ीज का मध्यजीवीमहाकल्प के प्राणी जगत् में सबसे अधिक प्रधानता और बाहुल्य रहा। इनमें एमोनाइटीज़ अत्यधिक महत्व के थे। इनका उपयोग क्षेत्रीय जीवाश्म के रूप में होता है। वास्तव में यह कल्प इन्हीं जीवों का कल्प कहलाता है।
 
* ब्रैकियोपोड - मध्यजीवी महाकल्प में जिन ब्रैंकियोपोडा की प्रधानता थी वे टेरीब्रैटुलिट्स और रिनकोनीलिड्स के अंतर्गत आते हैं।
 
* एकाइनोडर्माटा - मध्यजीवी महाकल्प में सिस्टिड्स और ब्लैस्टाइड्स मृत हो गए।
 
* सीलेंटरेटा (अंतरगुहिका) - इनमें प्रवाल महत्व के थे।
 
* पॉरिफेरा (porifera) - इनमें स्पंज कभी कभी शैलनिर्माताओं के रूप में प्रसिद्ध थे।
 
* प्रोटोजोआ - इनमें फोरैमिनीफेरा महत्व के थे।
 
===नूतनजीव महाकल्प के प्राणी===
यह कल्प स्तनियों, पक्षियों, फोरैमिनीफेरों और आवृतबीजी (angiosperms) पादपों का काल था। प्राणी और पादपों के आधार पर हम नूतनजीव महाकल्प को आधुनिक समय से पृथक् नहीं रख सकते।
 
*पादप - नूतनजीवमहाकल्प में वर्तमान समय में पाए जानेवाले द्विबीजपत्री तथा एकबीजपत्री पादप, जिनमें ताड़ (palm) और उसी के समान अन्य पादप सम्मिलित हैं, पाए जाते हैं।
 
*कशेरुकी - मध्यजीवीमहाकल्प के विशाल और विख्यात सरीसृपों का अत्यधिक ह्रास और पतन हुआ और इनके बहुत से वर्ग और गण लुप्त हो गए। इनका सान स्तनियों ने ले लिया, जो इस नूतनजीव महाकल्प में अपने विकास की चरम सीमा तक पहुँचे और जिनकी इस कल्प में प्रधानता थी।
 
* ऑथोपोडानूतनजीवमहावकल्प - में वही ऑर्थ्रोपोडा मिलते हैं जो आजकल पाए जाते हैं।
 
* व्रैकियोपोडा - ये नूतनजीवमहाकल्प में विरल थे।
 
* मोलस्का - दोनों गैम्स्ट्रोपोडा और लैंम्लीब्रैंकिया नूतनजीवमहाकल्प में पाए जाते हैं।
 
* एकाइनोडर्माटा - ये नूतनजीवमहाकल्प में विरल थे।
 
* सीलेंटरेटा - नूतनजीवमहाकल्प में शैलमाला बनानेवाले मेडरीपोरेरिया प्रवाल आजकल के समान उष्ण जल में अत्यधिक फूले फले।
 
* पॉरिफेरा - ये महत्व के नहीं थे।
 
* प्रोटोजोआ - नूतनजीवमहाकल्प में फोरैमिनीफेरा अत्यधिक महत्व के हैं, जिनमें न्यूम्यूलाइटीज़ की इस कल्प के आदि में और ग्लोबिजेराइना की वर्तमान समय में प्रधानता है।
 
==जीवविकासीय प्रमाण==
संपूर्ण शैलों के अनुक्रम का क्रम भली भाँति निश्चय हो जाने और उनमें पाए जानेवाले जीवाश्मों की पहचान हो जाने के उपरांत यह पता चला कि जीवों के विकास में शनै:-शनै: प्रगति हुई। अति साधारण प्रकार के जीव सबसे पहले प्रकट हुए, जो सबसे प्राचीन अवसादी शैलों में पाए जाते हैं और इनके उपरांत जटिलतर जीव क्रमश: तरुणतर शैलों में आते गए। इस प्रकार संपूर्ण अकशेरुकी संघों के प्रतिनिधि, जो जीवाश्म रूप में परिरक्षण योग्य हैं, कैंब्रियन शैलों में मिलते हैं, परंतु प्रत्येक संघ के अंतर्गत पाए जानेवाले जीव अपनी रचना में प्राय: समान थे और बहुत कम परिवर्तन दिखाते थे। आकारीय आधार पर हम उन्हें अल्पविकसित वंश कह सकते हैं, परंतु बाद के युगों में पाए जानेवाले संघों मे से प्रत्येक संघ में मिलनेवाले जीवों की रचना अधिक भिन्न थी और इस तथ्य की पुष्टि किसी सीमा तक वंशों की संख्या में वृद्धि से हो जाती है। कशेरुकियों में रचना के आधार पर आदिम वर्ग समझा जानेवाला साइक्लोसोटोमाटा वर्ग है, जिसका सबसे पहले प्रादुर्भाव हुआ और जिसके उपरांत क्रमश: [[मत्स्य वर्ग|मत्स्य]], [[उभयचर]], [[सरीसृप]], [[पक्षी]] और [[स्तनी]] आए और ये वर्ग उसी क्रम से प्रकट होते गए जैसा उनकी रचना से आशा की जाती थी। अत: इस प्रकार से भौमिकीय युगों में जीवों की प्राप्ति का क्रम जीवविकास के सिद्धांत की सच्चाई प्रतिपादित करता है, क्योंकि जितने प्राचीनतर शैल होते हैं उतने ही सरल उनके ही सरल उनके जीव अवशेष होते हैं और जैसे जैसे भौमिकीय कालसारणी के अनुसार निकटतम शैलों का अध्ययन किया जाता है वैसे वैसे जटिल जीव अवशेष पाए जाते हैं।
 
जीवविकासीय सिद्धांत का प्रतिपादन करने के लिए घोड़े के विकास का अध्ययन अच्छा उदाहरण है। वह संपूर्ण सामग्री जिस पर घोड़े के विकास का इतिहास आधारित है, उत्तरी अमरीका के तृतीयक शैलों से प्राप्त की गई है। इसके विकास की मुख्य दिशाएँ ये हैं :
 
(1) आकार में वृद्धि, (2) गति में वृद्धि, (3) सिर और ग्रीवा में वृद्धि।
 
घोड़े का सबसे प्राचीनतम जीवाश्म ईओहिपस (Eohippus) है, जो निम्न ईओसीन शैलों में पाया गया है और जो आकर में [[बिल्ली]] से लेकर [[लोमड़ी]] के बराबर था। मध्य ईओसीन का घोड़ा ओरोहिपस (Orohippus) के नाम से जाना जाता है, जो आकार में ईओहिपस से कुछ ही बड़ा था। उत्तर ईओसीन का घोड़ा एपिहिपस (Epihippus) कहलाता है, जिसके विषय में पूरी जानकारी नहीं है। मेसोहिपस (Mesohippus) के नाम से प्रचलित घोड़ा, निम्नतर और मध्य ओलिगोसीन शैलों में मिलता है। यह आकार में भेड़ के बराबर, या उससे कुछ छोटा, था। मायोहिपस (Miohippus), जो उत्तर ओलिगोसीन और निम्नतर मायोसीन युग में पाया जाता था, भेड़ से कुछ ही बड़े आकार का था। पैराहिपस (Parahippus) निम्न मायोसीन युग में अति प्रचुर था। मध्य मायोसीन का घोड़ा, मेरिकिप्स (Merychippus) कहलाता था। जो पैराहिपस ही के समान था। प्लायोसीन युग का घोड़ा, प्लायोहिपस (Phiohippus) आकार में गधे के बराबर था, पर तृतीयक युग में मिलनेवाला घाड़ा वर्तमान काल में पाए जानेवाले घोड़े के बराबर था। इस प्रकार हम देखते हैं कि घोड़े के आकर में धीरे-धीरे वृद्धि हुई।
 
इसी प्रकार घोड़े की बाहु और पादों की आंतरिक रचना में परिवर्तन से उसकी गति में वृद्धि हुई। इस परिवर्तन का मुख्य लक्षण पार्श्व भागों का ह्रास और मध्य अथवा अक्षीय भाग का विस्तार और वर्धन था, जिससे वह दौड़ते समय दृढ़ता के साथ बोझा संभाल सके। इसी प्रकार कलाई के बीच की हड्डी को छोड़कर अन्य सबका ह्रास हो गया, जिससे कलाई दृढ़ हो गई। इसी प्रकार तीसरे अंगुल की वृद्धि हुई, आस पास के अन्य अंगुल लुप्त हो गए और अंत में केवल वही रह गया।
 
इसी प्रकार सिर और ग्रीवा में धीरे धीरे वृद्धि हुई, जिससे घोड़ा सुगमता से चर सके।
 
==बाहरी कड़ियाँ==