"मीरा बाई": अवतरणों में अंतर

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वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को [[विष]] देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह [[द्वारका]] और [[वृन्दावन]] गई। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध [[खानवा का युद्ध]] उसी समय हुआ था। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य  बनी।
 
भक्त शिरोमणी माँ मीरा बार्इ का जन्म जोधपुर के राठौर वंश में श्रावण शुक्ल प्रतिपद 1560 शुक्रवार सन 1503 को हुआ था। इनके पिता का नाम राव रतनसिंह राठौर था इनके दादा का नाम राव दूदा तथा परदादा का नाम महाराज राव जोधा था। मीरा बार्इ अपने पिता की इकलौती बेटी थी। दूदा के पांच पुत्र - पुत्रिया थी। रतनसिंह जी चौथी संतान थे दूदा धर्मात्मा व उदार वैष्णव थे। मीराबार्इ की मा कृष्ण की उपासिका थी, मीराबार्इ का हृदय बचपन से ही श्रीकृष्ण के प्रेम से भरा हुआ था।
 
मीराबार्इ बाल्यकाल से ही कुशाग्र बुद्धि रही। हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती भाषा में वह पारंगत थी। मीरा बार्इ एक कवियत्री थी उनकी रचनाओं व पदों में मार्मिकता, काव्य संगीत एवं नृत्यकला का अच्छा समन्यवय मिलता है।
 
बहुत से लोगों का कहना था कि मीराबार्इ की माताजी उनके बचपन के दिनों में ही स्वर्ग सिधार गर्इ। किन्तु यह ठीक नहीं है कर्इ लेखकों ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि मीराबार्इ की माता का देहावसान तब हुआ जब मीरा बार्इ लगभग 10 वर्ष की हो गर्इ थी। अब मीराबार्इ की देखभाल कौन करे तब रावदूदाजी ने उन्हें अपने पास बुला लिया। मीरा वहां भी दिन रात श्रीकृष्ण की पूजन करती एवं टूटे फूटे शब्दों में उनके भजन बनाया करती व गाती रहती थी। कृष्णभक्ति, उदार वैष्णव भावना तथा साधू सन्तों की सेवा का भाव मीरा को बचपन में ही अपने परिवार से प्राप्त हो गया था।
 
धीरे - धीरे मीरा सयानी हो गयी घर के लोगों को उनके विवाह की चिन्ता हुर्इ। उस समय मेवाड़ के सिंहासन पर राणा सांगा आसीन थे।महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर भोजराज के साथ 15 वर्ष की आयु में सन 1581 में विवाह सम्पन्न हो गया विवाह सम्पन्न हो जाने के पश्चात मीरां अपने ससुराल में रहने लगी। वह अपने साथ कृष्ण भगवान की मूर्ति ले गर्इ, दिन रात पूजा पाठ में लीन रहती व उनके भजन पद गाया करती। मीराबार्इ को जब पूजा पाठ से अवकाश मिलता अपने पति कुंवर भोजराज की सेवा करती थी। मीरा बार्इ श्रीकृष्ण की पुजारिन होने के साथ - साथ पाति की भी पुजारिन थी किन्तु अधिक दिनाें तक मीरा बार्इ को पति का सुख न मिल सका ग्रहस्थ जीवन के 7 - 8 वर्ष पश्चात कुंवर भोजराज का देहावसान हो गया पति के प्यार से वंचित मीरा ने गिरधर गोपाल को ही अपना सर्वस्व बना लिया। सन 1526 में पति भोजराज की मृत्यु के उपरान्त मीराबार्इ एकदम बदल गर्इ वह दिनरात कृष्ण भक्ति में लीन रहने लगी। मीरा ने रैदास के भक्ति पूर्ण पदों को खूब गाया एवं रैदास को अपना गुरू मान लिया। पति की मृत्यु का दुख तो झेल ही रही थी कि ससुर साहब राणा सांगा युद्ध में बाबर से हार गये इस लड़ार्इ में उनके पिता रतनसिंह राठौर व काका रायमल भी वीरगति को प्राप्त हो गये। राणा सांगा ने बाबर से लड़ने की पुन: तैयारी की, किन्तु रास्ते में परच नामक स्थान पर अचानक दिवंगत हो गये। यह घटना सन 1536 की है। राणां के दिवंगत होने के बाद कुंवर भोजराज जी के छोटे भार्इ रतनसिंह मेवाड़ की गादी पर बैठे 14-15 वर्ष पश्चात उनकी भी मृत्यु हो गर्इ। तत्पश्चात सौतेले भार्इ विक्रमादित्य ने राजगादी प्राप्त की। उन्होंने 9 वर्ष तक शासन किया। 1598 विक्रमी संवत में विक्रमादित्य को भी मार डाला गया। विक्रमादित्य को मीरां की कृष्णभकित अच्छी नही लगती थी तथा वे मीराबार्इ की सर्वत्र ख्याति से खिन्न थे। विक्रमादित्य ने मीराबार्इ को बहुत समझाया किन्तु सब विफल रहा उन्होंने मीराबार्इ को समझाने हेतु उनकी दो सहेलियां चम्पा और चमेली को नियत किया किन्तु दोनो सहेलियां साधु सन्यासिनी बन गर्इ। राणा विक्रमादित्य ने मीराबार्इ को मार डालना ही उचित समझा।
 
मीरा बार्इ की एक ननद थी उदा बार्इ, सर्वप्रथम उदाबार्इ के माध्यम से मीराबार्इ के आराध्य श्रीकृष्ण की मूर्ति चोरी करवार्इ परन्तु जब मीरा बार्इ पूजा करने हेतु मंदिर में आर्इ तो मूर्ति स्वत: प्रकट हो गर्इ । उदाबार्इ पर भी मीराबार्इ की भक्ति और प्रेम का प्रभाव पड़ा और वह भी कृष्ण की पुजारिन बन गर्इ। मीरा को उसकी सास ने भी बहुत समझाया लेकिन सब विफल रहा।राणाजी ने मीराबार्इ को मरवाने के लिए जहर का प्याला तैयार कर उनके मुसाहिब जो बीजाबरगी जाति के महाजन थे उनके द्वारा चरणामृत के रूप् में भेंजा वह भी उन्होंने पी लिया। जहर का तनिक भी असर नहीं हुआ। उन्होंने मीरा को मारने हेतु कर्इ विषैले सर्प मंगवाये व पिटारी में बंद कर मीरा के पास भेजे मीरा ने पिटारी खोली तो सांपो के स्थान पर सालिगराम गिरधर गोपाल की मूर्ति व पुष्पों की माला निकली। मीरा को मारने हेतु कांटो की सेज भी भेजी जिससे उस पर सोते ही शरीर में जहर फैल जाए उसका भी कोर्इ असर नहीं हुआ। इस प्रकार से कर्इ प्रकार की योजनायें बनाकर राणा विक्रमादित्य ने मीरा को मारने की कोशिश की किंतु जांको राखे सांर्इयां , मार सके न कोय।
 
माँ मीरा की मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि द्वारका में एक बार जब रणछोड़ जी के मंदिर में गर्इ तो वहीं उनकी मूर्ति में समा गर्इ यह घटना सन 1583 के लगभग की है।
 
मीरा बार्इ एक चिंतक थी जो नारी जाग्रति एवं सच्ची श्रद्धा का अलख जगाने वाली जाग्रसत नारी के रूप् में जानी जाती है। पर्दा प्रथा का उस समय में विरोध करना कोर्इ कम साहस का कार्य नहीं था इसी प्रकार मेेरे तो गिरधर गोपाल, दुसरो न कोय के आधार पर गौरी पूजा नहीं करने का साहस करना सबके बस की बात नहीं है इस प्रकार मीरा बार्इ परम साध्वी, चिंतक, अटूट विश्वासी, कवियत्री, विविध भाषाओं का ज्ञान रखने वाली , तार्किक एवं संत शिरोमणी मानी जाने योग्य थी, है, और युगों - युगों तक रहेगी।<center></center>
 
== इन्हें भी देखें==