"सियारामशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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उनकी भाषा शैली सहज, सरल साहित्यिक खड़ीबोली हिन्दी है। आपने व्यावहारिक शब्दावली का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। आपकी रचनाओं की शैली यथार्थ परक, सरस, वर्णनात्मक, विचारात्मक, चित्रात्मक एवं भावात्मक है।
he born on 2 aug 2020.
 
गुप्त जी के मौर्य विजय (१९१४ ई.), अनाथ (१९१७), दूर्वादल (१९१५-२४), विषाद (१९२५), आर्द्रा (१९२७), आत्मोत्सर्ग (१९३१), मृण्मयी (१९३६), बापू (१९३७), उन्मुक्त (१९४०), दैनिकी (१९४२), नकुल (१९४६), नोआखाली (१९४६), गीतासंवाद (१९४८) आदि काव्यों में मौर्य विजय और नकुल आख्यानात्मक हैं। शेष में भी कथा का सूत्र किसी न किसी रूप में दिखाई पड़ता है। मानव प्रेम के कारण कवि का निजी दु:ख, सामाजिक दु:ख के साथ एकाकार होता हुआ वर्णित हुआ है। विषाद में कवि ने अपने विधुर जीवन और आर्द्रा में अपनी पुत्री रमा की मृत्यु से उत्पन्न वेदना के वर्णन में जो भावोद्गार प्रकट किए हैं, वे बच्चन के प्रियावियोग और निराला जी की "सरोजस्मृति' के समान कलापूर्ण न होकर भी कम मार्मिक नहीं हैं। इसी प्रकार अपने हृदय की सचाई के कारण गुप्त जी द्वारा वर्णित जनता की दरिद्रता, कुरीतियों के विरुद्ध आक्रोश, विश्व शांति जैसे विषयों पर उनकी रचनाएँ किसी भी प्रगतिवादी कवि को पाठ पढ़ा सकती हैं। हिंदी में शुद्ध सात्विक भावोद्गारों के लिए गुप्त जी की रचनाएँ स्मरणीय रहेंगी। उनमें जीवन के श्रृंगार और उग्र पक्षों का चित्रण नहीं हो सका किंतु जीवन के प्रति करुणा का भाव जिस सहज और प्रत्यक्ष विधि पर गुप्त जी में व्यक्त हुआ है उससे उनका हिंदी काव्य में एक विशिष्ट स्थान बन गया है। हिंदी की गांधीवादी राष्ट्रीय धारा के वह प्रतिनिधि कवि हैं।