"कुड़माली भाषा": अवतरणों में अंतर

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'''कुड़माली भाषा''' [[झारखण्ड]] की एक प्रमुख भाषा है। इसे '''कुरमाली''', '''कुड़मालि''' भी लिखते और बोलते हैं। यह एक अन्तर-प्रान्तीय भाषा है जिसका विस्तार क्षेत्र "उड़िष्य शिखर, नागपुर, आधा-आधी खड़गपुर" [[लोकोक्ति]] से ज्ञात होता है। कुड़मालि के क्षेत्र राजनितिक मानचित्र द्वारा परिसीमित नहीं किया जा सकता। यह केवल [[छोटा नागपुर पठार|छोटानागपुर]] में ही नहीं, बल्कि [[ओडिशा|उड़ीसा]] में [[क्योंझर]], [[बोनई]], [[बामडा]], [[मयूरगंज]], [[सुंदरगढ़]], [[पश्चिम बंगाल]] के अंतर्गत [[पुरुलिया]], [[पूर्वपश्चिम मेदिनीपुर जिला|मिदनापुर]], [[बंकुरा]], [[मालदा जिला|मालदा]], [[दिनाजपुर]] के सीमावर्ती इलाकों, जो [[बिहार]] से सटे हैं, एवं छोटानागपुर के [[राँची]], [[हज़ारीबाग|हजारीबाग]], [[गिरीडीह|गिरिडीह]], [[धनबाद]], [[सिंहभूम]], एवं, बिहार के [[भागलपुर]] इलाके व [[संथाल परगना|संथाल परगने]]<ref>{{Cite book|url=https://books.google.com/books/about/Language_and_Literature.html?id=ZxBWUA0esHkC|title=Kudmali is the mother tongue of the Kudmis|pages=119}}</ref><ref>{{Cite web|url=https://www.ethnologue.com/language/kyw|title=Ethnologue}}</ref><ref>{{Cite book|url=https://books.google.com/books/about/Know_Your_State_Jharkhand.html?id=3hrzDwAAQBAJ|title=Kudmali Language|pages=277}}</ref> में भी बोली जाती है। यह भाषा केवल [[कुड़मी महतो]] तक ही सीमित नहीं, बल्कि इनके साथ निवास करने वाले अन्य जातियों के भाव-विनियम का भी साधन है। यह मुख्यतः [[देवनागरी|देवनागरी लिपि]] में लिखी जाती है, परन्तु इसके साहित्य [[बाङ्ला भाषा|बांग्ला]] और [[ओड़िया भाषा|उड़िया]] में भी उपलब्ध है।
 
कुछ विद्वानों का विचार है कि [[चर्यापद]] की भाषा, कुड़माली के सबसे निकट है। <ref>Basu, Sajal (1994). [https://books.google.com/?id=DnVuAAAAMAAJ&q=kurmali&dq=kurmali Jharkhand movement: ethnicity and culture of silence – Sajal Basu – Google Books]. Retrieved 25 August 2012.</ref> व्यापार की [[बोली]] के रूप में इसे 'पंचपरगनिया' ([[बांग्ला]] : পঞ্চপরগনিয়া) कहा जाता है, जिसका अर्थ ह यह पाँच परगनों में बोली जाती है। इसे टमरिया भी कहते हैं।
 
==नामकरण==
छोटानागपुर की अन्य जनजातियों की भाषाओं मुंडा-मुंडारी, संताल-संताली, हो-हो, खड़िया-खड़िया की भांति कुड़माली भाषा का नामकरण [[कुड़मी महतो|कुड़मी जनजाति]] नाम पर हुआ है। यह ‘कुड़म’ शब्द में 'आली' [[प्रत्यय]] लगाकर कुड़माली बना है।
 
==कुछ वाक्यांश==
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==कुड़माली भाषा और साहित्य==
कुड़माली [[बाङ्ला भाषा|बांग्ला]], [[ओड़िसी|ओडिसी]] और [[असमिया भाषा|असमिया]] की भांति मागधी अपभ्रंश प्रसुत है और इन्ही की तरह एक निश्चित भाषा है। बिहारी वर्ग की भाषाओँ से इसका प्रयाप्त साम्य परिलक्षित होता है। इनमे अनेक समानताओं के बावजूद कुड़माली की अपनी निजी विशेषतायें हैं जो अन्य [[मागधी]]-प्रसूत भाषाओ से पृथक करती है। कुड़माली की ध्वनिगत विशेषतायें, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, सुर, ताल, लय, विविध गीत इसके पार्थक्य के आधारभूत कारण हैं। इसमें [[कुरमाली लोक-गीत|लोक-गीतों]], लोक-कथाओं, लोकोक्तियों और पहेलियों की संख्या बहुत है। कुड़माली लोकसाहित्य में लोकगीतों के बाद लोक-कथाओं, पहेलियों, और लोकोक्तियों का स्थान है। इन लोकगीतों, लोक-कथाओं एवं लोकोक्तियों में कुड़माली जीवन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है। इन विधाओं की विविध रचनाओं से ज्ञात होता है कि कुड़माली साहित्य जितना समृध है, भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से भी उतना ही उत्कृष्ट।
{{See also|कुरमाली लोक-गीत|कुरमाली लोक-कथायें}}
कुड़माली भाषा का नामकरण छोटानागपुर की अन्य भाषाओं- [[मुंडारी]], [[संताली]], [[हो]], [[खड़िया]] की भांति [[कुड़मी महतो|कुड़मि जनजाति]] के नाम पर हुआ है। यह ‘कुड़म’ शब्द में ‘आली’ प्रत्यय लगाकर बना है। कुड़माली [[बाङ्ला भाषा|बांग्ला]], [[ओड़िसी|ओडिसी]] और [[असमिया भाषा|असमिया]] की भांति मागधी अपभ्रंश प्रसुत है और इन्ही की तरह एक निश्चित भाषा है। बिहारी वर्ग की भाषाओँ से इसका प्रयाप्त साम्य परिलक्षित होता है। इनमे अनेक समानताओं के बावजूद कुड़माली की अपनी निजी विशेषतायें हैं जो अन्य [[मागधी]]-प्रसूत भाषाओ से पृथक करती है। कुड़माली की ध्वनिगत विशेषतायें, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, सुर, ताल, लय, विविध गीत इसके पार्थक्य के आधारभूत कारण हैं। इसमें [[कुरमाली लोक-गीत|लोक-गीतों]], लोक-कथाओं, लोकोक्तियों और पहेलियों की संख्या बहुत है। कुड़माली लोकसाहित्य में लोकगीतों के बाद लोक-कथाओं, पहेलियों, और लोकोक्तियों का स्थान है। इन लोकगीतों, लोक-कथाओं एवं लोकोक्तियों में कुड़माली जीवन की छाप स्पष्ट परिलक्षित होती है। इन विधाओं की विविध रचनाओं से ज्ञात होता है कि कुड़माली साहित्य जितना समृध है, भाव-सौन्दर्य की दृष्टि से भी उतना ही उत्कृष्ट।
 
== कुड़मालि साहित्य व विकास यात्रा ==
अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से कुड़मालि लोकसाहित्य को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है।
*१. आदिकाल (अस्मरणीय काल से सन १७५० ई. तक),
*२. मध्य काल (सन १७५०-१९५० ई. तक),
*३. आधुनिक युग (सन १९५० से अब तक)
 
===आदिकाल===
इसके अंतर्गत कुड़मालि के लोकगीतों- ढप, बिहा, डमकच, सरहुल, नटुआ, वंदना, करम, एढेइया, उधवा, कुआंरीझुपान, ढाबका, महराई, इत्यादि लोककथाएँ, लोकोक्तियाँ, और पहेलियाँ हैं, जिनके रचयिता अज्ञात हैं।
 
===मध्यकाल===
मध्यकाल में कुड़मालि के जनकवियों में विनन्द सिंह, गौरंगिया, बरजुराम, नरोत्तमा, पीताम्बर, दीना, उदय, खेप, बोघा, रामकृष्ण, त्रिलोक्य नाथ मंडल, हांड़ीराम, डीमा, जगा, हलधरा को रखा गया है।
 
===आधुनिक काल===
इस काल के प्रसिद्ध कवियों में सृष्टिधर, महिपाल, भवप्रीता, महीम, श्रीकांत, काशीनाथ, हराधन, लाखिकांत, केशवचन्द्र, मानसिंह, अनंत केशरियार, सुनील, जगन्नाथ, रामेश्वर इत्यादि हैं। चूँकि कुरमाली एक अंतरप्रांतीय भाषा है, अतः आधुनिक काल में देवनागरी, बँगला, और उड़िया लिपि में साहित्य का भरपूर विकास हुआ है।
 
यों तो कुङमाली शिष्ट साहित्य का प्रारंभ कुङमाली के मध्य काल से मन जाता है, परन्तु इसका उत्कृष्ट काल सन १९०० ई. से ही है। सर्वप्रथम ग्रियर्सन महोदय ने सन १९०३ ई. में “भारत का भाषा सर्वेक्षण” में कुड़मालि भाषा के व्याकरणिक विशेषताओं का विस्तृत एवं वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया। सन १९२१ में स्व. निरंजन महतो ने गीत-संग्रह “नेठापाला”, सन १९७० में श्री बुधु महतो ने “करम-गीत” प्रकाशित कराई. सन १९५३ में श्री राजेंद्र प्रसाद महतो ने स्वरचित पुस्तक “कपिला मंगल” प्रकाशित कराई. इसी वर्ष श्री चक्रवर्ती देवकी नंदन प्रसाद की दो पुस्तकें “न धरे आँखी जल आँखी पाते” तथा “केते अकुहा भाषा, केते उत्तला आसा” प्रकाशित हुईं. सन १९५६ के आस-पास स्व. रजा उपेन्द्र नाथ सिंह ने विनंदन आदि कवियों विनंदन सिंह और गौरंगिया के गीतों का संग्रह कर “आदि झूमर संगीत” और और “ताल-मंजरी” नामक दो पुस्तकें प्रकाशित करायी. सन १९५८ में डा. विश्वनाथ प्रसाद एवं श्री सुधाकर झा शास्त्री ने “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ मानभून एंड धलभूम” में कुड़माली भाषा के गीतों के साथ-साथ व्याकरणिक विशेषताओं पर प्रकाश डाला। इसके पूर्व सन १९५७-५८ में अपने लघु शोध प्रबंध के लिए “छोटानागपुर के कुङमाली लोकगीतों का अध्ययन” में लगभग ३०० गीतों का संकलन प्रस्तुत किया। फिर इन्होने ही सन १९६२ में “कुड़माली बोली: एक भाषा तात्विक अध्ययन” नमक शोध-पत्र लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि ली। सन १९७५ ई. के बाद से अबतक अनेकानेक गध्य-पद्य काव्य-ग्रंथो का प्रकाशन हो चूका है। <br />
१९८२ ई. के पश्चात कुड़माली साहित्य विषय-वस्तु की दृष्टी से एक नया मोड़ ले रहा है। जिसे हम कुड़मालि के आधुनिक साहित्य ही कह सकते हैं। कुड़मालि लोक साहित्य के संग्रह और आधुनिक व्याख्या के सम्बन्ध में कई लेखक और कवियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है जिनमे सर्वश्री एच. एन.सिंह, शशिभूषण महतो, डा. परमेश्वरी प्र. महतो, वृन्दावन महतो, डा.संतोष कुमारी जैन, डा. नंदकिशोर सिंह, श्याम सुन्दर महतो, आदि प्रमुख हैं।
 
== कुड़मालि साहित्य के प्रकार ==
साधारणतः कुड़माली साहित्य को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:- (क) कुड़माली लोक साहित्य और (ख) कुड़माली शिष्ट साहित्य।
 
===लोक साहित्य===
लोक साहित्य में उन साहित्यों को रखते हैं, जिनके उद्गम, काल-निर्धारण, या लेखक सम्बन्धी कोई निश्चित अनुमान लगाना संभव नहीं है। यह साहित्य उन राढ़ सभ्यता के उस विकसित परंपरागत ज्ञान और साहित्य का संकलन होता है जो की पीढ़ी-दर-पीढ़ी सदियों से लोक-कथा, लोक-गीत, आदि में अबतक कुड़माली-भाषी लोगो को विरासत में मिली है। कुड़माली लोक-साहित्य की जो सामग्रियाँ मिलती हैं, उन्हें हम मोटे तौर पर पांच वर्गों में रख सकते हैं:-
*१. कुड़माली-लोकगीत,
*२. कुड़माली लोक-कथाएं,
*३. कुड़माली लोक-नाट्य,
*४. कुड़माली-कहावतें, और
*५. कुड़माली-पहेलियां.
 
==== कुड़माली लोक-गीत ====
[[कुरमाली भाषा|कुड़माली]] में लोकगीतों की संख्या बहुल है। आज भी ये गीत लोक-मुख में जीवित है। गीत अत्यंत सरस और मर्मस्पर्शी है। कुड़माली गीतों की परंपरा अति प्राचीन है। कोई भी अनुष्ठान गीत एवं नृत्य के बिना संपन्न नहीं होता। अधिकांश गीत नृत्यगीत हैं। राग के द्वारा ही गीतों के पार्थक्य और वैशिष्ट्य को समझा जा सकता है। कुड़माली जीवन के हरेक पहलू, विविध दृष्टिकोण और बहुआयामी विचार-धाराओं को कुड़माली लोकगीत संस्पर्श करता है।
 
कुड़माली लोक-गीतों की प्रमुख विशेषता यह है कि अधिकांश गीत प्रश्नोत्तर के रूप में हैं। छन्द-विधान के नियम से पुर्णतः मुक्त है। इसके अपने छंद हैं जो गेय हैं। गीतों के ले द्वारा ही शैलीगत तत्व को पहचाना जा सकता है। कहीं-कहीं स्वतः अलंकारो का प्रयोग हुआ है।
 
कुड़माली लोकगीतों को कई वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे (क) संस्कार-गीत, (ख) ऋतु-गीत, (ग) देवी-देवताओं के गीत, (घ) श्रम-गीत, (ड) खेल-गीत, (च) जाती-गीत, (छ) प्रबंध गीत आदि।
 
कुड़माली के प्रमुख लोकगीत हैं: उधवा, ढप, बिहा, दमकच, सरहुल, नटुआ, डाइडधरा, जावा-करम, एधेइया, डाबका, बंदना, कुवांरी- झुपान आदि।
 
साधारणतः कुड़माली के लोक-गीतों में प्रकृति का चित्रण प्रयाप्त मात्रा में मिलता है। करम गीतों में अंकुरोदय, पुनर्विवाह, कृषि-कर्म, हास्य-व्यंग्य, जीवन-यापन की पद्धिति का उल्लेख मिलता है। विवाह गीतों में कुङमाली संस्कृति, सामाजिक व्यवहार, खान-पान, दैनिक कर्म, रहन-सहन की छाप परिलक्षित होती है।
 
कुड़माली समाज में कन्या का महत्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार वन की शोभा पुष्प है, उसी प्रकार घर की शोभा कन्या होती है।
कुङमाली के कुवांरी झुपान गीतों में जादू-टोना, तंत्र-मन्त्र एवं अंध-विश्वास का वर्णन मिलता है। डाइडधरा, ढप आदि गीतों में उच्च कोटि का दार्शनिक भाव झलकता है। वहीं डमकच गीतों में भाव-सौंदर्य के साथ-साथ हास्य का पूट भी मिलता है।
 
==== कुड़माली लोक-कथाएँ ====
कुड़माली में लोक-कथाओं का विशाल भण्डार मिलता है। साधारणतः लोक-कथाओ का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना ही रहा है, परन्तु ये एक पूर्ण विकसित भाषा से कम शिक्षाप्रद, दार्शनिक भाव से ओत-प्रोत हैं। लोग रात को घर में खलियान के कुम्बा या धन्धौरा के चारो ओर जाड़े की लम्बी रात काटने के लिए कहानियां कहते हैं। कुङमाली लोक-कथाओ में अलौकिक और असम्भव बातों की भरमार रहती है। एक उल्लेखनीय बात यह है कि जो लोक-कथायें अमेरिका, यूरोप एवं हमारे देश के अन्य लोक-भाषाओं में प्रचलित हैं, थोड़ा-बहुत अन्तर के साथ कुङमाली में भी उपलब्ध है। कुड़माली के लोक-कथाओं को मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांटा जा सकता है:
*१. धार्मिक लोक-कथाएं- यथा ‘कर्मा-धर्मा’, तीन ठकुराइन, आर-नि-रहम, आदि।
 
*२. शिक्षा-प्रद लोक-कथाएं- यथा बुद्धिक-दाम, राइकस-आर-अमरी, गरखिया-आर-राजकुमारी, अटुकारा-राजा, मूंगा-
मोती, करम-कापाड़, आदि।
 
*३. मनोरंजन प्रधान लोक-कथाएं- यथा बाउना, बाड़ा-सियार, पुइतु-बुढा, सियारेक-चाउछाली, बेनिया-आर-चरवाहा आदि।
 
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष में आते हैं कि कुरमाली लोकगीतों में जीवन के विभिन्न पहलुओं का यथार्थ और सजीव चित्रण हुआ है।
 
==== कुड़माली लोक-नाट्य ====
भारत में में [[लोकनाट्य]] की परम्परा बहुत प्राचीन है। यद्यपि लोक-नाट्यो में नाटक के सभी तत्व नहीं मिलते है, फिर भी नाटक के कुछ न कुछ तत्व तो अवश्य ही मिलते हैं। वस्तुतः साहित्यिक नाटक के नीव ये लोक-नाट्य ही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं कुरमाली के प्रमुख लोक-नाट्य हैं:-
*(क) [[छौ नृत्य]]
*(ख) [[नटुआ नृत्य]]
*(ग) [[डमकच]], और
*(घ) [[मछानी]]
 
''' छौ नृत्य'''' : इस नृत्य में नर्तक अपने मुंह पर मुखौटा धारण करता है और अपने अंग-प्रत्यंग के हाव-भाव द्वारा भावो को अभिव्यक्त करता है। कथा-वस्तू के रूप में पहले गीत गया जाता है। गीत के द्वारा ही दृश्य भी बदला जाता है। यह मौसमी नृत्य है। परन्तु, अपनी प्रचुर लोकप्रियता के कारण अब यह नृत्य देशी अखाड़े से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच पर आ गया है।
 
'''नटुआ नृत्य''' : यह कुड़माली का बहुत पुराना नृत्य है। गीतों के द्वरा कथावस्तु का परिचय दिया जाता है। यह वीर रस का नृत्य है। नर्तक अपने शरीर को रंगीन फीतों से सुसज्जित करता है और अपने हाथो में ढाल और तलवार लेकर नृत्य करता है। उसकी भंगिमा युद्ध की स्तिथि की होती है। इस नृत्य को देख कोई अपरिचित दर्शक राजस्थानी राजपूतों के नृत्यों से तुलना कर सकता है।
 
'''डमकच''' : यह विवाह के अवसर पर होने वाला नृत्य है। जब वर विवाह करने के लिए चला जाता है तो स्त्रियाँ मर्दों के पोशाक पहनकर नृत्य करती हैं। कभी-कभी वे विवाह का अभिनय भी करती तो कभी-कभी किसी अन्य कथावस्तु को लेकर अभिनय करती हैं। गीत प्रश्नोत्तर के रूप में होते हैं, जिसे हम कथोप-कथन शैली कह सकते हैं।
 
''' मछानी''' : लोक नृत्य में स्त्री-पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं। गीतों के द्वारा एक-दूसरे को प्रश्न करते हैं। गीत ही इसकी कथावस्तु है। बीच-बीच में गध्य-शैली का प्रयोग होता है। इस नृत्य में दृश्य भी बदलते हैं। कथावस्तु व्यंग्यात्मक शैली में होती है।
 
==== कुड़माली कहावतें (लोकोक्तियाँ) ====
किसी भी भाषा का साहित्य उस समाज का दर्पण होता है। [[मुहावरा|कहावतें]] और [[लोकोक्ति|लोकोक्तियाँ]] उस समाज, जाति के आचार-विचार, रीति-रिवाज, जीवन-दर्शन, हास-परिहास, जीवन-पद्धति, व्यवसाय आदि की अभिव्यक्ति व दिग्दर्शित होती है। झारखण्ड के कुङमि का मुख्य पेशा कृषि है। कुङमाली-लोकोक्तियों में कृषि का सम्बन्ध स्पष्ट झलकता है। इन लोकोक्तियों में मुख्यतः अच्छी फसल होने के संकेत, विनाश के कारण, अवसर तथा स्तिथि का दिग्दर्शन होता है। इन सब के अतिरिक्त इसमें हास्य, व्यंग्य, ललकार, चेतावनी, सूचना, सूक्तियों के द्वारा गूढ़ बातों की शिक्षा दी जाती है। कुङमाली लोकोक्तियों में आचार-विचार, रीति-रिवाज, आर्थिक, धार्मिक, राजनितिक, सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यंजना मिलती है।
 
१. धर्म सम्बन्धी - यथा “जेइ करेइ पुइन, से हेई ढीपा सुइन”.<br />
 
२. निति सम्बन्धी _ यथा “हेंठ मुड़िइआ, बेड़े एड़िइआ”.<br />
 
३. कृषि सम्बन्धी - यथा “आमे बाम, तेंतेरिये टान”.<br />
 
४. पुष्टि सम्बन्धी - यथा “एक बहुइं ठाकुर, दुई बहुइं कुकुर, तीन बहुइं देखे भकार-भुकुर”.<br />
 
५. शिक्षा सम्बन्धी - यथा “नदी धारक चास, मिछाय कर आसघु, सल चट नहाई परे”.<br />
 
६. आलोचना सम्बन्धी - यथा “सुमेक धन साइताने खाय, बांचे से अदालत जाए.”.<br />
 
७. सूचना सम्बन्धी - यथा “सावनेक गाछी आर बाछी, डंगुआ जेनिक घार आर दामडा गरुक हार”.<br />
 
८. अर्थ सम्बन्धी - यथा “माछेक मायेक पुतेक सक, आधा साँप आधा बक..” .<br />
 
९. व्यंग्य - यथा “कण विहाइं दुई गड़े आरता.”.<br />
 
१०. संस्कृति - यथा “हांड़ी किनथिन ठंकी के आर केनिआइ, करतीन देखि के...”.<br />
 
११. जाति सम्बन्धी - यथा “बांस बने डोम काना, घासी खाजे कुमनी, आर चासा खाजे डीमनी..”
 
==== पहेलियाँ ====
कुङमाली लोक-भाषा में पहेलियों का प्रचुर भण्डार है। ग्रामीण जनता कृषि कार्य से मुक्त होकर सायं-काल में गाँव के किसी सामुदायिक जगह पर इकठ्ठा होते हैं, बुजुर्ग अपने ज्ञान और अनुभव को बाँटते हैं। साथ ही बच्चो, व नवयुवकों से विभिन्न प्रकार की पहेलियाँ पूछ कर एक-दूसरे का मनोरंजन करते हैं। इससे न केवल लोगों का मनोरंजन यवं ज्ञान-वर्धन होता है बल्कि बच्चों के तर्क-क्षमता के साथ स्वस्थ मानसिक विकास होता है।
कुङमाली भाषा के कुछ प्रमुख पहेलियाँ और उनका हिंदी अनुवाद:-<br />
 
१. डुंगरि उपरें पिलेई गाछ बिन बातांसे हिलेई गाछ - (उत्तर: नेज, पूंछ).<br />
 
२. लक-लक डांडी चक-चक पात, खाईतके मधुरस उलगेइत के कपास - (उत्तर: आंखू बाड़ी, गुड़बाड़ी).<br />
 
३. उलुक घड़ा ढुलुक चांपे, काठ खाइके सिंदूर हागे- (उत्तर: आइग ).<br />
 
४. सिर रे सिटका भुइयें पटका - (उत्तर: सिंघन, नेटा ).<br />
 
५. डूडकु ऊपर भूटकु नाचेई - (उत्तर: टेंगला, बुडिया, टांगा).<br />
 
६. डूबी-डूबी जाई पूंछे चारा खाई - (उत्तर: सुई )
 
===शिष्ट साहित्य===
मध्य-काल (सन १७५०-१८५०) से शिष्ट साहित्य का प्रदुर्भव माना जा सकता है। सन १४८५ ई. के आस-पास चैतन्य महाप्रभु के पदार्पण झारखण्ड प्रदेश में होने -से वैष्णव-भावना का प्रचार-प्रसार हुआ। तत्कालीन कवियों ने रामायण और महाभारत से कथा-वस्तु लेकर गीतों की रचना की। राम-कृष्ण को अपना नायक मानकर उनकी लीलाओं को ललित-पदों में रचकर गीतों का रूप दिया।
 
मध्य काल के कुड़माली लोककवियों में बरजू राम, नरोत्तमा, गौरंगिया, दुर्योधन, पीताम्बर, दिना, रामकृष्णा, विनन्द सिंह आदि प्रमुख थे। इस युग के कवियों की रचनाओं में अलंकार, तुक और छंद का भी सचेत प्रयोग हुआ है।
 
==सन्दर्भ==
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[[श्रेणी:झारखंड की भाषाएँ]]
[[श्रेणी:आदिवासीहिन्द-आर्य भाषाभाषाएँ]]
[[श्रेणी:भारत की भाषाएँ]]