"मीरा बाई": अवतरणों में अंतर

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वे विरक्त हो गईं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को [[विष]] देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह [[द्वारका]] और [[वृन्दावन]] गई। वह जहाँ जाती थी, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हें देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल-पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध [[खानवा का युद्ध]] उसी समय हुआ था। इन सभी परिस्थितियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धति सर्वमान्य  बनी।
----मीराबाई के जीवन से :
 
हरि बिना रहो न जाय, गुरां बिना तरियो न जाय।
 
अर्थ: बिना प्रभु से मिले मैं जीवित नहीं रह सकती; परन्तु बिना सतगुरु के वह प्राप्त नहीं हो सकता।
 
 
नहिं मैं पीहर सासरे, नहिं पियाजी री साथ ।
 
मीराँ ने गोविन्द मिल्या जी, गुरु मिलिया रैदास ।।
 
अर्थ: न तो मैं अपने पीहर की हूँ, न ही ससुराल की । मुझे तो संत रविदास के रूप में गुरु की प्राप्ति हो गई है और उनके द्वारा प्रभु से मिलाप हो गया है।
 
 
संत रविदास की कृपा द्वारा ही मीराबाई को अपने आध्यात्मिक ध्येय की प्राप्ति हो सकी। एक कहती हैं:-
 
खोजत फिरूं भेद वा घर को, कोई न करत बखानी।।
 
रैदास सन्त मिले मोहि सतगुरु, दीन्हीं सुरत सहदानी।।
 
मैं मिली जाय पाय पिय अपना, तब मोरी पीर बुझानी।।
 
अर्थ : वे कहती हैं कि मैं प्रभु के धाम का पताखोजती हुई भटकती रही,परंतु कोई उसका भेद न दे सका। जब सतगुरु संत रविदास से मेरा मिलाप हुआ तो उन्होंने मेरी सुरत अथवा आत्मा को प्रभु की पहचान या निशानी प्रदान की,तब मेरी आत्मा रूहानी मण्डलों में जाकर अपने प्रियतम से मिल सकी और मेरी व्यथा की अग्नि बुझ सकी।
 
 
गुरु रैदास मिले मोहिं पूरे, धुर से कमल भिड़ी ।
 
सतगुरु सैन दई जब आ के, जोत में जोत रली ।।
 
अर्थ: मीराबाई कहती हैं कि जब मुझे अपने पूरे गुरू रैदास मिले तो धुर-धाम रूपी वृक्ष से निकली हुई कलम अथवा टहनी वापस जाकर अपने मूल से जुड़ गई। जब मेरे सतगुरु ने आकर मुझे रूहानी मार्ग का भेद प्रदान किया तो मेरी ज्योति उस परम ज्योति से मिलकर एक हो गई।
 
 
गोविन्द सूँ प्रीत करत, तबहि क्यों न हट की।
 
अब तो बात फैल परी, जैसे बीज बट की ।।
 
अर्थ: मीरा जी कहती है की जब शुरुआत में वे प्रभु के प्रेम के मार्ग पर चलीं तो किसी ने उन्हें नहीं रोका,अब उनका प्रेम विकसित हो उठा है जैसे वट या बरगद का छोटा-सा बीजसमय पाकर विशाल वृक्ष का रूप ले लेता हैं। अर्थात प्रेम की चिनगारी अब एक उज्ज्वल लौ के रूप में प्रज्वलित हो गई हैं।
 
 
मीराबाई के ऐसे कई पद हैं जिनसे पता चलता है कि राणा ने उन्हें अपने भक्ति-मार्ग से हटाने के लिए अनेक प्रयत्न किये। परन्तु राणा के कठोर वचनों और धमकियों का उत्तर वे सदा कोमलता और गम्भीरता के साथ  देती रहीं। एक पद में कहती हैं:-
 
भली बुरी तो मैं नहिं कीन्हीं, राणो क्यूँ है रिसायो।
 
थाने म्हाने देह दिवी है, ज्याँरो हरिगुण गायो।।
 
अर्थ: राणाजी, तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो? मैंने न कभी तुम्हारा अनिष्ट सोचा और न ही मैंने कोई बुरा कार्य किया है । प्रभु ने अपनी असीम कृपा से तुमको मनुष्य-जन्म  दिया है और मुझे भी, ताकि हम उसकी उपासना तथा भक्ति करें । इसलिए मैं उसकी भक्ति और उसी का गुणगान करती हूँ।
 
 
राणाँजी हो जाति रो कारण म्हारे को नहीं,
 
लागो म्हारो हरि भगताँ सूँ हेत ।।
 
गुरू प्रताप साधां री संगत सहजै ही तिर जास्याँ ।।
 
लोक लाज की काण न मानाँ, रामतणा गुण गास्याँ  ।।
 
नाँव अमोलिक अमृत पीकै,  सिरके साटे लास्या ।।
 
अर्थ: मीराबाई, राणाजी से कहती हैं की जाति और कुल की भावनाओं से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है,उन्हें तो केवल प्रभु के भक्तों की आराधना करनी हैँ। वे आगे कहती है की वो अपने गुरू के प्रताप और सन्तों की संगती से सहज ही भवसागर से पार हो जाएगी।
 
मैं नाम के अनमोल  अमृत का पान करूँगी,जिसे मैंने सिर देकर प्राप्त किया है।
 
राणाजी की कठोरता उनको विचलित न कर सकी और न ही लोक-निंदा उन्हें पथ से डिगा सकी।वह लोक-लाज के बंधनों को तोड़ चुकी थीं।अब उनके मन में कोई सांसारिक विचार न थे,परमात्मा का प्रेम उनके मन,हृदय और आत्मा पर पूर्णतया छा गया था।
 
 
जब तक गुरू रविदास चित्तौड़ में रहे, वे प्रतिदिन उनके दर्शन के लिए जाती रहीं। इस बात की पुष्टि मीराबाई के एक पद से होती है जिसमें ऊदाबाई उन पर आक्षेप लगाती हैं कि वे हर सुबह उठकर शहर से बाहर साधारण बस्ती में जाती हैं।
 
मीरां मान लीजी म्हांरी, हो जी, थाने सखियाँ बरजे सारी ।।
 
राणा बरजै, राणी बरजै, बरजैं सब परिवारी।
 
साधन के ढिंग बैठ-बैठ, लाज गमाई सारी।
 
नित प्रति उठि नीच घर जावो, कुल कूँ लगावो गारी।।
 
ऊदाबाई कहती हैं, " हे मीरा,अब कहना मान लो। तुम्हें तुम्हारी सखियाँ तक समझा रही हैं। राणा, रानियाँ और पूरा परिवार ही तुम्हें मना कर रहा है। सभी तुम्हें मना करते हैं फिर भी तुम सुनती नही। साध-संगती में बैठकर तुमने अपनी लाज और प्रतिष्ठा खो दी है।तुम नित्य प्रति सवेरे उठकर शहर से बाहर साधारण बस्ती में जाती हो, इस प्रकार तुमने अपने कुल पर कालिख लगायी है।
 
 
मीराबाई उत्तर देते हुए कहती हैं :
 
तारयो पीहर, सासरो तारयो, माय मोसाली तारी।
 
मीराँ ने सद्गुरू मिलिया जी, चरण कमल बलिहारी।।
 
 
परन्तु समझाने-बुझाने के बाद भी जब मीराबाई ने रविदास जी के दर्शन के लिए जाना बन्द न किया तो राणा जी ने महल पर सख्त पहरा बैठा दिया ताकि वे गुरू दर्शन को न जा सकें। इसका उल्लेख मीराबाई के कुछ पदों में मिलता है:-
 
 
पहरो भी राख्यो चोकी बिठाइयो, ताला दियो जुड़ाय ।।
 
 
म्हारे मिंदरी ए पधारौ जोऊँ थांरी बाट || टेक
 
धरण गिगन विच झोरी लागी उगैत परभात |
 
रसनाँ मेरी राम रटत है सतगुर जी रै परताप ||
 
दोई चोकी में सहजै छेकी नाम कवल कै घाट |
 
बंक-नाल पर मुरली बाजै सतगुरु मांरया थाट ।।
 
काया-नगर में रास रच्यो, है सुरत सुहागण नार |
 
जनम-जनम का टोटा भाग्या गुरु मिल्या दातार ||
 
इंगला पिंगला सुखमण नारी सहैज रच्यो घरवास |
 
मीरां ने गुरु गरवा मिलिया जब पायो बिसवास ||
 
 
अर्थ:  हे प्रभु, मेरे ह्रदय-मंदिर में पधारो, मैं आपकी राह देख रही हूँ | धरती और आकाश के बीच प्रभात के उज्ज्वल रंग मूसलाधार वर्षा की तरह फैल रहे हैं | अपने गुरु के प्रताप से मैं प्रभु के नाम का सुमिरन कर रहीं हूँ |अन्तर में दोनों मण्डलों के बीच नाम के कमल में मैं सुखपूर्वक स्थित हूँ | बंकनाल के पार मुरली की मधुर धुन अपने गुरु की कृपा से मुझे सुनायी देने लगी है | मेरी सुहागिन आत्मा इस शरीर रुपी शहर में आनन्द-मग्न है | अपने दयालु गुरू से मिलने पर मेरा जन्म-मरण का भय नष्ट हो गया है | दायें (गंगा/इंगला) और बायें (जमुना/ पिंगला) के बीच की गली (सुषुमना नाडी) में मेरी आत्मा निवास करने लगी है | मीरा बाई कहती हैं, जब से मुझे सब प्रकार से समर्थ गुरु मिलें हैं तब से मुझ में पूर्ण विश्वास और प्रतीति आ गयी है |
 
 
कई विद्वानों का विचार है कि परमात्मा ही मीराबाई के गुरु थे और कोई देहधारी गुरु उन्होंने धारण ही नहीं किया। इस नतीजे पर वे इसलिए पहुँचे कि उन्होंने सभी सन्तों की तरह गुरु और परमात्मा को एक-रूप अथवा एक-दूसरे से अभिन्न माना है।
 
 
सतगुरु मिलिया सुंज पिछाणी
 
सतगुरु मिलिया सुंज पिछाणी, ऐसा ब्रह्म मैं पाती।
 
सगुरा सूरा अमृत पीवे, निगुरा प्यासा जाती।
 
मगन भया मेरा मन सुख में, गोबिन्द का गुण गाती।
 
साहब पाया आदि अनादि, नातर भव में जाती।
 
अर्थ: मीराबाई अपने गुरु के वियोग में तीव्र वेदना तथा गहरी उत्कंठा का वर्णन करते हुए परमात्मा को भी प्रेम की उसी भावना से संबोधित करती हैं। उनके बहुत से पदों में गुरु और परमात्मा एक ही हैं, " मुझे सतगुरू मिल गये और उनके द्वारा मुझे सत्य का बोध हो गया। मैंने अनादि, अनंत, साहिब को पा लिया है। यदि मैं उन्हें न पाती तो संसार में जन्म-मरण के क्रम में भटकती रहती।"
 
मीराबाई एक गुजराती पद में लोगो के उनको पागल कहने पर कहती हैं, "पागल? हाँ  मैं पागल हूँ; परन्तु अपने इस पागलपन के द्वारा मैंने मनुष्य -जन्म के असली ध्येय को प्राप्त कर लिया है। प्रभु प्रेम का जो रस देवी -देवताओं को भी दुर्लभ है, उस रस का आनंद यह पागल निरंतर लेती है।
 
हे लोगो, तुम मुझे 'पागल, पागल ' क्या कहते हो, मुझ जैसे पागलों का सभी कार्य प्रभु स्वयं सम्पूर्ण करते हैं।"
 
 
राणा रतन सिंह के बाद मेवाड़ के नए शासक राणा विक्रमादित्य बने जिन्होंने अपने दरबारियों के बहकावे में आकर मीराबाई को विष देकर मार डालने का निर्णय किया।
 
दयाराम नामक एक व्यक्ति को सोने के कटोरे में विष ले जाकर उनको चरणामृत के नाम से देने के लिए भेजा गया।ऊदाबाई को इस षड्यंत्र की जानकारी हो गई और उन्होंने तुरंत मीराबाई को चेतावनी देते हुए उसे न पीने आग्रह किया। किंतु सब जानते हुए भी मीराबाई ने उस विष के प्याले को पीना स्वीकार किया।
 
कुछ समय बाद राणा ने अपने आदमियों को मीराबाई के मृत शरीर को वन में डाल आने का आदेश दिया। किंतु जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्होंने मीराबाई को आत्म-विस्मृत हो प्रभु के भजन गाते हुए पाया।
 
मीराबाई के अपने शब्दों में वह इस परीक्षा से ऐसे निकली जैसे सोना तपने के बाद निर्मल और शुद्ध निकलता है
 
 
जैसे कंचन दहत अगिन में, निकसत बाराबांणी ।।
 
 
वह कौन सी बात थी जिस के लिए राणा ने मीराबाई के प्राण लेने चाहे ? इतिहास, परम्परा तथा जनश्रुति तक इस का कोई उत्तर नहीं देती।
 
मीराबाई अपने एक पद में कहती हैं, " कुछ दुष्ट लोगों ने प्रतिदिन मुझे अपने गुरु के सत्संग में जाते देख लिया। मैं तो खुश हूँ क्योंकि परमात्मा ने अपने न्याय में मुझे सच्चा और दुनिया को झूठा पाया; अब कोई निन्दा करे या स्तुति,मैं तो अपनी ही राह चलूँगी"
 
 
साध संगत में नित उठ जाता, दुरजन लोकां दीठी।।
 
मैं म्हांरी गिरधर न्याव नवेरो,और दुनी सब झूठी ।।
 
भावै कोई निंदा भावे कोई बंदो, चलसी चाल अफूठी ।।
 
 
मीराबाई ने अपने कई पदों में इस घटना का उल्लेख किया है और विष को अमृत बना देने के लिए परमात्मा का आभार माना है।
 
 
मीराबाई की लोकप्रियता और ख्याति से राणा विक्रमादित्य का रोष और बढ़ गया। उन्होंने तथा उनके सलाहकारों ने उनके प्राणान्त का एक और प्रयत्न किया। इस बार उन्होंने एक अत्यंत विषैले नाग को आभूषणों के डिब्बे में रखकर भेजा और कहलाया कि यह राणा की ओर से एक बहुमूल्य हार की भेंट है।
 
इस घटना का मीराबाई ने अपने कुछ पदों में इस प्रकार उल्लेख किया है:
 
 
पेटयाँ बासक भेजियो जी, यो छै मोतीडाँ रो हार।
 
नाग गले में पहिरियो,  म्हारे महल भयो उजियार ।।
 
साँप टिपारो मोकल्यो, दो मीराँ के हाथ।
 
खोल टिपारो देखिया, हो गया नोसरहार ।।
 
विष देने की वार्ता के समान ही सर्प की घटना का भी उल्लेख केवल मीराबाई ने ही नहीं बल्कि बाद के कई भक्तों और कवियों ने भी किया है। इन घटनाओं द्वारा पता चलता है कि उनका पूरा जीवन ही दुख और दर्द की एक गाथा है। परन्तु उन्होंने बग़ैर किसी वैर-भाव या शिकायत के साहस और धीरज के साथ, सन्तों -सी सहिष्णुता के साथ, सबकुछ शान्तिपूर्वक सहा।
 
 
मीराबाई ने कभी यातना देनेवालों को न कभी कोसा या कटु वचन कहें। वे राणा से कहती हैं, " मैं अपने पीहर और ससुराल के परिजनों का अपने साथ उद्धार कर देती, परन्तु उन्होंने " म्हांरी नेक न मानी बात। "
 
वे अब एक ऐसी अवस्था में पहुँच चुकी थीं जिस में स्तुति और निन्दा, यश और अपयश उनके लिए समान थे। निर्विकार और अनासक्त होने के साथ ही उनके उदार ह्रदय में सबके प्रति प्रेम की भावना थी।
 
अपने एक पद में वे कहती हैं कि भक्त को एक वृक्ष की तरह हमेशा शान्त, विशाल ह्रदय और सहिष्णु होना चाहिए। यदि उसे कोई काटने आता है तो वह उससे वैर भाव नहीं रखता और यदि कोई सींचने आता है तो उससे मोह नहीं करता। अपने ऊपर पत्थर फेंकने वालों को भी वह मधुर फल ही देता है। आँधी और बरसात के वेग को वह बिना किसी शिकायत के शान्त भाव से सहता है
 
 
मना तू तो वृक्षन की लत लेइ रे, थारो कांइ करे डर भव रे।।
 
काटन वाला सूं बैर नहीं है, नहीं सींचन को सनेह रे।
 
जो कोई बावे कंकर पत्थर, उनको भी फल देइ रे।।
 
पवन चलावे, इन्द्र झकोले, दुख सुख आपहि सहि रे।
 
सीत गहाम तो शिर पर सहि है, पन्छिन को सुख देइ रे।।
 
 
राणा विक्रमादित्य और उनके सलाहकारों द्वारा मीराबाई को सताने में कोई कमी न आयी। उन्होंने भक्तों और साधुओं को उनके महल में जाने से रोकने के लिए उन्हें डराना-धमकाना शुरू कर दिया।अपनी भक्ति में इस प्रकार की बाधाओं से तंग आकर उन्होंनेआखिर चित्तौड़ छोड़ने का निश्चय कर लिया।
 
निश्चित रूप से यह मालूम नहीं कि मीराबाई कब चित्तौड़ छोड़कर गई पर विद्वानों का अनुमान है कि 1534 ई. के अन्त में गयी होंगी।
 
गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने एक विशाल सेना सहित 1535 ई. में आक्रमण किया।राणा विक्रमादित्य उससमय या तो छुप गए अथवा भाग खड़े हुए। इस समय रानी जवर बाई और कर्णवती ने दुर्ग की रक्षा का भार अपने हाथों में लिया। कुछ राज भक्त सामन्तों और योद्धाओं को इक्ट्ठा कर के उन्होंने कुछ समय जमकर युद्ध किया किन्तु वे आक्रमणकारियों की बड़ी सैन्य शक्ति का अपने सीमित साधनों द्वारा अधिक समय तक सामना न कर सकी। जवर बाई अपनी स्त्री सेना के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई। उनके युद्ध कौशल को ने सभी को चकित कर दिया। बहादुर शाह ने जब किले को चारो ओर से घेर लिया और अब चित्तौड़ की रक्षा असम्भव जान सम्पूर्ण षुरूषों ने केसरियाबाना पहना, शस्त्र उठाए और किले का द्वार खोल कर शत्रुओं पर टूट पड़े। इस युद्ध में सभी ने वीरगति प्राप्त की। चित्तौड़ की सभी महिलाओं ने रानी कर्णवती के नेतृत्व में जौहर के द्वारा प्राण त्याग दिए।
 
इस प्रसंग के यह पता चलता हैं कि इस समय मीराबाई यहाँ मौजूद नहीं थी। माना जाता हैं कि वह चित्तौड़ से अपने पीहर मेड़ता में राव वीरम देव के पास गई जिन्होंने उनका प्रेम से स्वागत किया। परन्तु मेड़ता में भी उन्हें रूढ़िवादियों का सामना करना पड़ा।  मीराबाई का बाहरमुखी क्रियाओं, उपवास, आदि का मीराबाई द्वारा स्पष्ट शब्दों में खण्डन उनकी परम्पराओं और कट्टरता की जड़ पर एक गहरा आघात था।
 
एक शब्द में वे कहती हैं कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए भजन करना चाहिए :
 
 
साधन करना चाही रे मनवा, भजन करना चाही।
 
प्रेम लगाना चाहे रे मनवा, प्रीत करना चाहि।।
 
तुलसी पूजें हरि मिलें तो पूजूँ तुलसी झाड़।
 
पत्थर पूजें  हरी मिलें, तो मैं पूजूँ पहाड़।।
 
दूध पीये ते हरि मिलें तो बहुत हैं भक्तिवाला।
 
मीरा कहे बिना प्रेम के नहीं मिलें नंदलाला।।
 
अर्थ: हे मित्र, परमेश्वर से प्रेम करना चाहिए। यदि नदियों- सरोवरों में स्नान करने से हरि मिल सकते तो मैं जल का जन्तु बनना पसंद करती। यदि फल, कंद आदि खाने से प्रभु का मिलाप हो सकता तो बंदर बनना क्या बुरा है जो वन में फलों पर निर्वाह करते हैं। यदि पत्तियों आदि खाने से परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है तो बकरियों की कोई कमी नहीं है, उन्हें प्रभु की प्राप्ति हो जानी चाहिए थी।यदि पत्थर कोपूजने से प्रभु का मिलाप हो सकता है तो मैं पहाड़ पूजने को तैयार हूँ,  परन्तु वे कहती हैं, बिना सच्चे प्रेम के प्रभु प्राप्ति नहीं हो सकती।
 
 
राव वीरम देव, मीराबाई को पुत्रीवत् चाहते थे और उन की पत्नि ने उन्हें शैशवकाल से पाला था तथा पूरे परिवार में वही एकमात्र कन्या संतान थीं। वीरम देव एक न्यायप्रिय शासक होने के साथ ही सामाजिक,पारिवारिक और धार्मिक परम्पराओं के पोषक भी थे। वे अपनी प्रिय भतीजी के मार्ग में बाधक नहीं होना चाहते थे, परन्तु वे अपने सामंतों और प्रमुख नागरिकों को अप्रसन्न भी नहीं करना चाहते थे।
 
मीराबाई को वीरम देव की परेशानी समझने में देर न लगी। एक दिन उन्होंने चुपचाप, बग़ैर शिकायत या कटुता के मेड़ता भी छोड़ दिया।
 
मेड़ता छोड़कर वे कहाँ गई इस विषय में इतिहास करीब- करीब मौन है और परम्परागत तथा मौखिक विवरण भिन्न -भिन्न हैं, फिर भी साधारणतया यह माना जाता है कि पहले वे वृंदावन गई और वहाँ जीव गोस्वामी से मिलने पहुँची जो प्रभु कृष्ण की गोपी -भाव से उपासना करते थे जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि में केवल कृष्ण ही एक पुरूष माने जाते हैं तथा उनके सभी भक्त उनको चाहनेवाली गोपियाँ मानी जाती हैं। माना जाता है कि वे कठोर संयम और त्याग पूर्ण जीवन बिताते थे तथा स्त्रियों का मुख तक नहीं देखते थे।
 
मीराबाई से भी उन्होंने मिलने से इंकार कर दिया ,तबमीराबाई ने उनकी गोपी -भावना का आधार लेकर कहलवाया कि वे समझती थीं कि वृंदावन में सिर्फ श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरूष हैं, परन्तु उन्हे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यहाँ एक और पुरूष भी मौजूद है।
 
जीवन में पहली बार किसी ने इस आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया था। गोस्वामी की  आँखों से भ्रम का पर्दा हटा, और उन्होंने आदरपूर्वक मीराबाई का स्वागत किया।
 
कहा जाता हैं कि मीराबाई वृंदावन अधिक समय तक नहीं रुकी और यात्रा करते हुए गुजरात पहुँची। गुजरात में रहते हुए उन्होंने अनेक पदों की रचना की।
 
चित्तौड़ के पतन के बाद सामतों ने राणा विक्रमादित्य को फिर राजगद्दी पर बिठाया किंतु उस के चचेरे भाई बनबीर ने उसे मार डाला। 1537 में बनबीर ने अपने को राणा घोषित किया जिसको 1540 में राणा साँगा के सबसे छोटे पुत्र और मीराबाई के छोटे देवर उदय सिंह ने मार भगाया और वह स्वयं राणा बना। किन्तु चित्तौड़ का कभी दुबारा पुराना वैभव नलौटा सका। चित्तौड़ के निवासी इस दुर्भाग्य का कारण मीराबाई पर हुए अत्याचारों का फल मानने लगे। लोगों के मन मे यही विचार था कि इस अन्याय का प्रायश्चित तभी होगा जब राणा व नागरिक उनसे क्षमा  मांगेंगे।
 
राणा ने सभी की भावनाओं का आदर करते हुए कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को वापसले आने के लिए द्वारका भेजा।
 
मीराबाई अपने भाग्य से संतुष्ट थी, वह अपने परमात्मा की भक्ति में प्रसन्न थी, इसलिए उन्होंने वापस लौटने से इंकार कर दिया। वे फिर से सोने के पिंजरे में कैद नहीं होना चाहती थी। किन्तु ब्राह्मणों ने घोषणा की कि जब तक मीराबाई वापस जाने को तैयारनहीं होंगी वे अन्न- जल ग्रहण नहीं करेंगे। जब 3-4 दिन बीत गए और ब्राह्मणों की दशा खराब होती देख उनका दिल पसीज गया और विवश होकर उनके साथ लौटने की स्वीकृति दे दी।
 
कहा जाता है कि उस शाम को वे द्वारकाधीश के मन्दिर में प्रार्थना करने के लिए गई। दूसरे दिन सुबह जब पुजारियों ने मन्दिर के द्वार खोले तो मीराबाई वहाँ नहीं थीं। केवल उनकी ओढ़नी मूर्ति के हाथ में लटक रही थी।
 
पंडितों और पुजारियों ने यह मान लिया कि वे कृष्ण की मूर्ति में समा गयी हैं।
 
राजस्थान में मीराबाई की भक्ति की गाथा हर जगह फैल गई। उनकी भक्ति के इस रूप ने उनकी महिमा और किर्ति को और फैलाया। यद्यपि विद्वानों ने भाटों की बहियों से मीराबाई की मृत्यु का विवरण प्राप्त करने की कोशिश की है किंतु सभी विभिन्न तारीखें बताते हैं।
 
मीराबाई की गाथा का आधार मूलतः परम्परा, जनश्रुति और मौखिक विवरण है।
 
 
 
 
 
 
== इन्हें भी देखें==