"प्रभाष जोशी": अवतरणों में अंतर

प्रभाष जोशी एक अद्बुत जीवन-अकारण विदा
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आलोक तोमर
 
 
कोई हरकत नहीं है पंडित। किसी बात को हवा में उड़ा देने के लिए हमारे प्रभाष जी का यह प्रिय वाक्य था। फिर कहते थे अपने को क्या फर्क पड़ता है। अभी एक डेढ़ महीने पहले तक इंटरनेट के बहुत सारे ब्लॉगों और आधी अधूरी वेबसाइटों पर प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, कर्मकांडी, रूढ़िवादी और कुल मिला कर पतित पत्रकार साबित करने की प्रतियोगिता चल रही थी। मैंने जितनी हैसियत थी उसका जवाब दिया और फिर उनके खिलाफ लिखे गए लेखों और अपने जवाब की प्रति उनको भेजी तो उन्होंने फोन कर के यही कहा था। अभी जब प्रभाष जी की काया उनके गांव बड़वानी जाने के पहले उनके घर में रखी थी तो उनकी बेटी और अपनी सबसे प्यारी दोस्तों में से एक सोनाल ने बड़ी बड़ी आंखों में आंसू भर कर कहा था कि मैंने पापा को बताया था कि तुम उनकी लड़ाई लड़ रहे थे और पापा ने कहा था कि आलोक तो बावला है, फोकट में टाइम खराब कर रहा है। लेकिन हमारे गुरू जी भी कम बावले नहीं थे। सही है कि 72 साल की उम्र में भी कमर नहीं झुकी थी, जवानों से ज्यादा तेजी से चलते थे, दो दिन में हजार किलोमीटर का सफर कर के, गोष्ठियां कर के, कार, जहाज, रेल जो मिल जाए उसमें चल के, पांच सितारा होटल छोड़ कर किसी दोस्त के घर जा कर ठहर के वापस आते थे और जाने के लिए आते थे। जिस रात वे दुनिया से गए, उसी शाम लखनऊ से वापस आए थे और अगली सुबह मणिपुर के लिए रवाना होना था। लौट कर एक दिन दिल्ली में बिताना था और फिर अहमदाबाद और बड़ौदरा चले जाना था। उनकी मां अभी जीवित है और कहती है कि मेरे बेटे के पांव में तो शनि है। कहीं टिकता ही नहीं। बाई पास सर्जरी करवा चुके और पेस मेकर के सहारे दिल की धड़कन को काबू में रखने वाले प्रभाष जी ने 17 साल तक अपना साप्ताहिक कॉलम कागद कारे लिखा और एक सप्ताह भी यह कॉलम रुका नहीं। और ऐसा भी नहीं कि यों हीं कलम घसीट दी हो। तथ्य, उन्हें प्रमाणित करने वाले तथ्य और यों हीं बना दिए गए तथ्यों की धमाके से पोल खोलते थे। बाई पास सर्जरी के बाद भी बांबे अस्पताल के इंटेसिव केयर यूनिट से निकल कर एक कॉलम मुझे बोल कर लिखवाया। क्रिकेट के प्रति दीवानगी थी लेकिन पागलपन नहीं। बहुत गहरे जा कर और बहुत जुड़ाव से क्रिकेट देखते थे और खेल इतना पता था कि अंपायर की उंगली उठे उसके पहले प्रभाष जी फैसला कर देते थे और आम तौर पर वह फैसला सही होता था। एक तरफ कुमार गंधर्व का संगीत, एक तरफ पिच पर चल रही लड़ाई, एक तरफ सर्वोदय, एक तरफ पत्रकारिता के शुद्वीकरण का अभियान और आखिरकार राजनीति के सांप्रदायिक होने को ले कर एक सचेत चिंता। प्रभाष जोशी ऑल इन वन थे। एक बार प्रभाष जी से कहा था कि क्या आपको लगता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी और माधव सप्रे अगर आज उपसंपादक बनने के लिए भी परीक्षा देते तो पास हो जाते? बहुत कोप भरी नजरों से उनने देखा था और फिर ठहरी हुई आवाज में कहा था कि ये लोग थे इसलिए हम लोग हैं। भाषा और उसका व्याकरण अपने समय के हिसाब से चलता है और भाषा तो सिर्फ एक सवारी है जिस पर आपका विचार लोगाें तक पहुंचता है। लोगों की भाषा बोलोगे तो लोग सुनेंगे। भाषा का यह नया व्याकरण उन्होंने जनसत्ता के जरिए समाज को दिया और समाज ने उसे हाथों हाथ लिया। क्रिकेट के प्रति मोह ऐसा कि थके हुए आए थे और अगले दिन दो हजार किलोमीटर की और यात्रा करनी थी मगर आधी रात तक भारत आस्ट्रेलिया मैच देखते रहे। सचिन के सत्रह हजार रन पूरे हुए तो बच्चों की तरह उछल पड़े और फिर जब आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर भारत मैच हार गया तो उन्होंने कहा कि ये लोग हारने में एक्सपर्ट है। जिस समय सचिन तेदुंलकर को मैन आफ द मैच का इनाम मिल रहा था, प्रभाष जी कार में अस्पताल के रास्ते में आखिरी सांसे ले रहे थे। सचिन तेदुंलकर ने फोन पर कहा कि मैं शुरू से प्रभाष जी का लिखा पढ़ कर अपनी गलतियां सुधारता रहा हूं और उन्होेंने मुझे बेटे की तरह प्यार दिया। सचिन का गला भरा हुआ था और उन्हाेंने कहा कि रिकॉर्ड बनाने की मेरी खुशी पर ग्रहण लग गया और अब जब अगर मैं रिकॉर्ड बना भी पाउंगा तो मेरे उल्लास में शामिल होने के लिए प्रभाष जी नहीं होंगे। प्रभाष जोशी बैरागी नहीं थे। वे धोती भी उसी ठाठ से बांधते थे जिस अदा से तीन पीस का सूट और टाई पहनते थे। कुमार गंधर्व जैसे महान शास्त्रीय गायक से उनकी निजता थी और कुमार जी के अचानक अवसान पर उन्होंने जो लेख लिखा था उसे पढ़ कर बड़े बड़े पत्थर दिल रो दिए थे। पत्रकारिता में मेरे बड़े भाई प्रदीप सिंह उनके घर के सामने ही रहते है और बताते है कि प्रभाष जी जब मौज में आते थे तो कुमार गंधर्व के निर्गुणी भजन पूरे वाल्यूम में बजा कर पूरी कॉलोनी को सुनवाते थे। इसी पर याद आता है कि कुमार गंधर्व का तेरह साल की उम्र में गाया हुआ एक राग इंटरनेट से डाउनलोड कर के फोन पर उन्हें सुनवाया था और पहेली के अंदाज में पूछा था कि पहचानिए कौन है? एक आलाप में बता दिया था कि कुमार जी हैं और यह भजन उन्होंने पुणे के गांधर्व संगीत समारोह में गाया था। सांप्रदायिकता और देश और विश्व के तमाम विषयों पर लिखते समय प्रभाष जी ऐसे ऐसे तथ्य लिखते थे कि पढ़ने वाला चौंधिया जाएं। एक बार टीवी कैमरे के सामने लोकसभा चुनाव नतीजों के अंदाज में उन्होंने भाजपा को चुनौती दी थी और वह भी मुगल ए आजम के एक हिट डायलॉग की शैली में- बाकायदा अभिनय कर के। उन्होंने कहा था- भाजपा वालो, कांग्रेस तुम्हे जीने नहीं देगी और संघ परिवार तुम्हे मरने नहीं देगा। हिंदू होने का धर्म पुस्तक में उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी को फर्जी हिंदू करार दिया था और इस पुस्तक की हजारों प्रतियां मध्य प्रदेश में उस समय भाजपा की सरकार चला रहे बाबू लाल गौर ने खरीद ली थी और आफत में पड़ गए थे। मगर गांधी शांति प्रतिष्ठान में प्रभाष जी को अंतिम नमन करने आडवाणी भी आए थे और उनकी आंखों में आंसू थे। अटल बिहारी वाजपेयी तो कहते ही रहे हैं कि प्रभाष जोशी हम सबसे बड़े हिंदू हैं इसलिए उनसे सध कर बात करनी पड़ती है। यहां विडंबना यह है कि अटल जी की ओर से जो श्रध्दांजलि का पत्र आया उसमें प्रभाष जी को अपना घनिष्ठ मित्र बताते हुए अटल जी ने उनका नाम प्रभात जोशी लिखा था। जाहिर है कि यह पत्र किसी अफसर ने तैयार किया होगा।
प्रभाष जोशी अकारण नहीं जिए। वे आखिरी सांस तक जिन सरोकारों से देश और समाज के चरित्र का वास्ता है, उनसे जुड़े रहे और आखिरकार बहुत खामोशी से अपनी पारी घोषित कर दी। कल दिन भर टीवी कैमरो के सामने और फिर अपने टीवी चैनल में कहता रहा हूं और फिर कह रहा हूं कि दूसरा प्रभाष जोशी फिलहाल दिखाई नहीं देता। प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। प्रार्थना कीजिए कि मेरी यह निराशा गलत साबित हो।
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आलोक तोमर
 
 
गुरुवार की रात और रातों जैसी नहीं थी। इस रात जो हुआ उसके बाद आने वाली कोई भी रात अब वैसे नहीं हो पाएगी। रात एक बजे के कुछ बाद फोन बजा और दूसरी ओर से एक मित्र ने कहा, बल्कि पूछा कि प्रभाष जी के बारे में पता है। आम तौर पर इस तरह के सवाल रात के इतनी देर में जिस मकसद से किए जाते हैं वह जाहिर होता है। मित्र ने कहा कि प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे। काफी देर तो यह बात मन में समाने में लग गई कि प्रभाष जी अतीत हो गए हैं। अभी तीन दिन पहले तो उन्हें स्टूडियो में बुलाने के लिए फोन किया था तो पता चला था कि वे पटना जा रहे हैं- जसवंत सिंह की किताब का उर्दू संस्करण लोकार्पित करने। पटना से वे कार से वाराणसी आए और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में रूके। वहां से हमारे मित्र और मूलत: वाराणसी वासी हेमंत शर्मा को फोन किया और कहा कि गेस्ट हाउस में अच्छा नहीं लग रहा। हेमंत ने गाड़ी भेज कर उन्हें घर बुला लिया। घर पर उन्हें इतना अच्छा लगा कि एक दिन और रूक गए। इसके बाद लखनऊ मे गोष्ठी थी। हिंद स्वराज को ले कर उसमें भी गोविंदाचार्य के साथ कार से गए। वहां से जहाज से दिल्ली लौटे थे और बहुत थके हुए थे। मेरे गुरु प्रभाष जोशी क्रिकेट के दीवाने थे। इतने दीवाने की क्रिकेट के महापंडित भी कहते थे कि अगर पेशेवर क्रिकेट खेलते तो भारत की टीम तक जरूर पहुंच जाते। क्रिकेट का कोई महत्वपूर्ण मैच चल रहा हो तो प्रभाष जोशी को फोन करना अपनी आफत बुलाने जैसा था। गुरुवार की रात भी क्रिकेट का मैच ही था और भारत आस्ट्रेलिया से सीरीज छीनने के लिए खेल रहा था। सचिन तेंदुलकर ने वनडे क्रिकेट में 17000 रन का रिकॉर्ड बना लिया था और प्रभाष जी उत्साहित थे मगर तभी विकेट गिरने शुरू हो गए और भारत हार की ओर बढ़ने लगा। प्रभाष जी बेचैन हुए। ब्लड प्रेशर की गोली खाई। टीम हार गई तो बेचैनी और बढ़ी और आखिरकार और दवाई लेने से भी लाभ नहीं हुआ तो बेटा संदीप उन्हें पास में गाजियाबाद के नरेंद्र देव अस्पताल में ले गया। मगर वहां तक पहुंचते पहुंचते काया शांत हो चुकी थी। प्रभाष जी के प्रिय कुमार गंधर्व के गाए निगुर्णी भजन से शब्द उधार लें तो हंस अकेला उड़ गया था। प्रभाष जी के सारे प्रिय जन एक एक कर के संसार से जा रहे थे और प्रभाष जी हर बार उन पर रूला देने वाला लेख लिखते थे। सिर्फ एक बार रामनाथ गोयनका के निधन पर उनका लेख नहीं आया और जब पूछा तो उन्होंने कहा कि मेरे मन में अब तक समाया नहीं हैं कि आरएमजी नहीं रहे। उनके हर लेख में एक तरह का आत्मधिक्कार होता था कि सब जा रहे हैं तो मैं क्यों जिंदा हूं। बार बार यह पढ़ कर जब आपत्ति का एक पत्र लिखा तो उन्होंने बाकायदा कागद कारे नाम के अपने कॉलम में इसका जवाब दिया और कहा कि राजेंद्र माथुर, राहुल बारपुते, शरद जोशी, कुमार गंधर्व और सगे छोटे भाई की मौत में मुझे अपना एक हिस्सा मरता दिखता है और जो प्रतीत होता है वही मैं लिखता हूं। प्रभाष जी के कई चेहरे थे। एक क्रिकेट को भीतर से बाहर से जानने वाला और कपिल देव को देवीलाल से पहली बार दो लाख रुपए का इनाम दिलवाने वाला, कपिल, सचिन, अजहर, गावस्कर, विशन सिंह बेदी से दोस्ती के बावजूद रणजी और काउंटी खेल चुके बेटे संदीप को भारत की टीम में शामिल करने की सिफारिश नहीं करने वाला, एक्सप्रेस समूह की प्रधान संपादकी ठुकरा कर जनसत्ता निकालने वाला, जनसत्ता को समकालीन पत्रकारिता का चमत्कार बना देने वाला, सरोकारों के लिए लड़ने वाला, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से दोस्ती के बावजूद उनकी धर्म ध्वजा छीनने वाला, कुमार गंधर्व के भजनो में डूबने वाला, अपने हाथ से दाल वाफले बना कर दावत देने वाला, पूरे देश में घूम कर पत्रकारिता में आई खोटों के खिलाफ अलख जगाने वाला, जय प्रकाश आंदोलन में शामिल होने वाला और उसके भी पहले बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन में घूम घूम कर रिपोर्टिंग करने वाला, हाई स्कूल के बाद पढ़ाई बंद करने के बावजूद लंदन के एक बड़े अखबार में काम करने वाला, धोती कुर्ता से ले कर तीन पीस का सूट पहन कर खाटी ब्रिटिश उच्चारण में अंग्रेजी और शुद्व संस्कृत में गीता के श्लोक समझाने वाला, प्रधान संपादक होते हुए डेस्क पर सब एडिटर बन कर बैठ जाने वाला, अनवरत यात्रा करने वाला, एक्सप्रेस समूह के मालिक को पत्रकारिता की आचार संहिता याद दिलाने वाला और सबसे अलग घर परिवार वाला एक चेहरा जिसमें यह भी शामिल है कि मेरे लिए लड़की मांगने लड़की वालाेंं के घर वे पत्नी के साथ मिठाई का डिब्बा ले कर खुद पहुंचे थे। प्रभाष जी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ खुद उन्होंने लिखा है। लेकिन आदि सत्य यह है कि हिंदी पत्रकारिता के ऋषि कुल के वे आखिरी संपादक थे। संपादक और सफल संपादक अब भी हैं मगर अब प्रभाष जोशी कोई नहीं है। प्रभाष जी की मां अभी हैं और कल्पना कर के कलेजा दहलता है कि अपने यशस्वी बेटे की देह को वे देखेंगी तो कैसा लगेगा? याद आता है कि कागद कारे कॉलम कभी स्थगित नहीं हुआ। याद यह भी आता है कि बांबे हास्पीटल में ऑपरेशन के बाद प्रभाष जी इंटेसिव केयर यूनिट से बाहर आए थे और डॉक्टरों के लाख विरोध के बावजूद बोल कर मुझसे अपना कॉलम लिखवाया था। उस कॉलम में उन्होंने निराला की पक्ति लिखवाई थी- अभी न होगा मेरा अंत। आज वह पक्तिं याद आ रही है। प्रभाष जी का जाना एक युग का अवसान है। एक ऐसा युग जहां सरोकार पहले आते थे और बाकी सब बाद में। उनके सिखाए पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी हैं और बड़े बड़े पदों पर बैठी है। उनमें से ज्यादातर को प्रभाष जी के दीक्षा में मिले संस्कार और सरोकार याद हैं। तिहत्तर साल की उम्र बहुत होती है लेकिन बहुत ज्यादा भी नहीं होती। प्रभाष जी कहते थे कि वे गांधीवाद पर एक किताब लिखना चाहते हैं और एक और किताब भारत की समकालीन राजनीति के विरोधाभासों पर लिखना चाहते हैं। काल ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया। लिखना प्रभाष जी का शौक नहीं था। शानदार हिंदी और शानदार अंग्रेजी लिखने वाले प्रभाष जी ने सरोकारो की पत्रकारिता की और कई बार ऐसा भी हुआ कि सरोकार आगे चले गए और पत्रकारिता पीछे रह गई। जनसत्ता के प्रभाव के कम होने की एक वजह यह भी थी कि प्रभाष जोशी का ज्यादातर समय विश्वनाथ प्रताप सिंह की तथाकथित गैर कांग्रेसी सरकार बनाने में लग रहा था और वे कभी देवीलाल तो कभी चंद्रशेखर तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी को साधने में जुटे हुए थे। प्रभाष जी जैसा अब कोई नहीं है। ईश्वर करे कि मेरा यह विश्वास गलत हो कि उन जैसा कोई और नहीं होगा। लेकिन प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। घर फूंक कर निकलने की हिम्मत चाहिए। जो सच है उस पर अड़े रहने की जिद चाहिए। इससे भी बड़ी बात यह है कि प्रभाष जी ने हिंदी पत्रकारिता को भाषा के जो संस्कार दिए, एक नया व्याकरण दिया और सबसे आगे बढ़ कर पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से कोई समझौता नहीं होने दिया। वैसा करने वाला फिलहाल कोई नजर नहीं आता। बहुत पहले प्रभाष जी के साठ साल पूरे होने पर राहुल देव और मैंने एक किताब संपादित की थी और उसके आखिरी वाक्य से यहां विराम देना चाहूंगा। मैंने लिखा था कि प्रभाष जी समुद्र थे और उन्होंने खुल कर रत्न बांटे मगर मैं ही अंजूरी बटोर कर उन्हें समेट नहीं पाया।