"वाक्यपदीय": अवतरणों में अंतर

संस्कृत मे
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तीसरे काण्ड में अन्य दार्शनिक रीतियों के विषयों, जैसे - जाति, द्रव्य, काल आदि की चर्चा की गयी है। इसमें भर्तृहरि यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि विविध मत, '''एक ही वस्तु''' के अलग-अलग आयामों को प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार वे सभी दर्शनों को अपने व्याकरण आधारित दर्शन द्वारा एकीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं।
 
== प्रथम काण्ड (ब्रह्मकाण्ड) == संस्कृत मे
 
मूल में व्याकरण शास्त्र एक प्रकार से आगम शास्त्र है। इसकी अभिव्यक्ति महेश्वर से है। आगम के अनुसार शब्द के चार स्वरूप हैं - "परा", "पश्यंती", "मध्यमा" तथा "वैखरी"। इनमें "परा" ही ब्रह्म है। इसीलिए वाक्यपदीय की प्रथम कारिका में ही शब्दतत्व को अनादि और अनंत तथा '''अक्षर ब्रह्म''' कहा है। इसी परारूप ब्रह्म से संसार के पदार्थों की उत्पत्ति तथा व्यवहार विवर्तरूप में माना गया है। प्रथम कांड में, शब्दतत्व के दार्शनिक रूप का विचार है, अतएव इसे "ब्रह्मकांड" नाम दिया गया है और साधारण रूप में इसका वाचकत्व सिद्ध किया गया है। वस्तुत: यह आगमिक कांड है। आगम की दृष्टि से लिखा गया है।