"दारुल उलूम देवबन्द": अवतरणों में अंतर

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==इतिहास==
== भारत की आज़ादीस्वतन्त्रता में दारुल उलूम देवबंददेवबन्द की काभूमिका किरदार==
इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है, जो अंधविश्वास, कूरीतियों व अडम्बरोंकाफ़िरों के विरूद्धविरुद्ध इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”[[देवबन्दी]] “ कहा जाता है।
 
देवबन्द उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादीजनसंख्या के लिहाज़हिसाब से तो एक लाख से कुछ ज़्यादाअधिक आबादीजनसंख्या का एक छोटा सा नगर है। लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व सम्मानजनक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द, [[धर्मनिरपेक्षता]] एवं देशप्रेम का एक विशिष्ट नमूना प्रस्तुत करता है।
 
आज देवबन्द इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है। भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबन्द दारुल उलूम को जाता है। यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्रकेन्द्र बिन्दु है। दारुल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध वइस्लामी सहित्य के संबंधसम्बन्ध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज व पर्यावरण में इस्लामिकइस्लामी सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है।
 
दारुल उलूम देवबन्द की आधारशिला '''30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी'''। वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ोंअंग्रेजो के विरूद्ध लड़े गये [[प्रथम स्वतंत्रता संग्राम]] (1857 ई.ई॰) की असफलता के बादल छंटछट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमनचक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी। अंग्रेजों ने अपनी संपूर्णसम्पूर्ण शक्ति से स्वतंत्रतास्वतन्त्रता आंदोलनआन्दोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था। अधिकांश आंदोलनकारीआन्दोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबन्द जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रतास्वतन्त्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे। चारो ओर खलबली मची हुई थी। एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये। उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिमजालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबलेमुकाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देश भक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये। इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें।
 
इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्तिइस्लाम का पाठ पढ़ाया उनमें '''दारुल उलूम देवबन्द''' के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। स्वर्गीयेस्वर्गीय मौलाना [[महमूद अल-हसन]] (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबन्द) उन सैनानियों में से एक थे जिनके क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शैखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभूषित किया गया था, उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों ([[अफ़ग़ानिस्तान|अफ़गानिस्तान]] , [[ईरान]] , [[तुर्की]] , [[सउदी अरब|सऊदी अरब]] व [[मिश्र]] ) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेज़ीअंग्रेजी शासक वर्ग की मुख़ालफत की। बल्कि शेखुल हिन्द ने अफ़ग़ानिस्तान व इरान की हकूमतों को [[भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन|भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई। उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान व इरान को इसविरुद्ध बात पर राज़ी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो ज़मीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे।की।
 
शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रिम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से [[अंग्रेज़]] के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आंदोलनआन्दोलन में शामिल कर दिया। इनके प्रमुख शिष्य [[हुसैन अहमद मदनी|मौलाना हुसैन अहमद मदनी]] , [[मौलाना उबैदुल्ला सिंधी]] थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे और अपने देशप्रेमीइस्लामी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के [[मुसलमान]] स्वतंत्रतास्वतन्त्रता सेनानियों व आंदोलनकारियोंआन्दोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं।
 
सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधीसिन्धी ने अफ़गानिस्तानअफगानिस्तान जाकर अंग्रेज़ोंअंग्रेजो के विरूद्धविरुद्ध अभियान चलाया और [[काबुल]] में रहते हुए भारत की स्र्वप्रथम स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया। यहीं पर रहकर उन्होंने [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|इंडियन नेशनल कांग्रेस]] की एक शाख क़ायमकायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी। शेखुल हिन्द 1915 ई. में [[हिजाज़]] (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहांवहाँ रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्कसम्पर्क बना कर सैनिक सहायता की मांगमाँग की।
 
सन 1916 ई. में इसी संबंधसम्बन्ध में शेखुल हिन्द [[इस्तांबुल|इस्तानबुल]] जाना चहते थे। [[मदीने]] में उस समय तुर्की का गवर्नर [[ग़ालिब पाशा]] तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तमबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री [[अनवर पाशा]] हिजाज़ पहुंच गये। शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया। अनवर पाशा ने भातियों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की। हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा। यह गुप्त सिलसिला ”'''तहरीक ए रेशमी रूमाल'''“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। इसके सम्बंध में [[सर रोलेट]] ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“।
 
सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया। हिजाज़ से उन्हें [[मिश्र]] लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, [[मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत]] , [[मौलाना वहीद अहमद]] सहित जेल में डाल दिया था। इन सबको चार वर्ष की बामुशक्कत सजा दी गयी। सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई।
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[[ओडिशा|उड़ीसा]] के गवर्नर [[श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे]] ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द [[भारत]] के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें [[दिल्ली]] , [[दीनापुर]] , [[अमरोत]] , [[कराची]] , [[खेड़ा]] और [[चकवाल]] में स्थापित थी। भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”[[यागि़स्तान]] “ भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था।
 
इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारुल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाठ पढ़ता रहा है जैसे सन 1947 ई. में भारत को आज़ादी तो मिली, परन्तु साथ-साथ नफरतें आबादियों का स्थानांतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया,हैं। परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई। इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण दिया।किया। आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्णसम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है।
 
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ीअंग्रेजी, हिन्दी में [[कंप्यूटर|कम्प्यूटर]] तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
 
दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1424) सन 2002 तक लगभग 95 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं। दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ी, हिन्दी में [[कंप्यूटर|कम्प्यूटर]] तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है। दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है। प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है। दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है।
==सन्दर्भ==
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