"स्वस्तिक": अवतरणों में अंतर

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'''स्वस्तिक''' अत्यन्त प्राचीन काल से [[भारत|भारतीय]] संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक' शब्द की निरुक्ति है - 'स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।<ref>{{cite web|url=http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=806|title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक|access-date=[[२७ अप्रैल]] [[२००९]]|format=पीएचपी|publisher=मधुमती|language=}}{{Dead link|date=जून 2020 |bot=InternetArchiveBot }}</ref>
[[File:Swastik in Rakhi.jpg|thumb|[[राखी]] में स्वस्तिक ]]
स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक'-'卍' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। कई लोगों का यह मानना है कि [[जर्मनी]] के तानाशाह [[हिटलर]] के ध्वज में यही 'वामावर्त स्वास्तिकस्वस्तिक' अंकित था,था। [[ऋग्वेद]] की [[ऋचा]] में स्वस्तिक को [[सूर्य]] का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं जबकिकी यहउपमा धारणादी गलतगई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व [[File:Flagब्रह्माण्ड]] ofका theप्रतीक NSDAPचित्र (1920–1945).svg|thumbमाना गया है। उसके मध्य भाग को [[विष्णु]] की [[कमल]] नाभि और रेखाओं को [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] हिटलरके काचार ध्वजमुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं [[धर्म]], अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।<ref>{{cite web|url=http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&category=7&articleid=2343|title=सार्वभौम संस्कृति का प्रतीक चिह्न : स्वस्तिक|access-date=[[२७ अप्रैल]] [[२००९]]|format=|publisher=जागरण|language=|archive-url=https://web.archive.org/web/20100812153704/http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=2343&category=7|archive-date=12 अगस्त 2010|url-status=dead}}</ref>
[[ऋग्वेद]] की [[ऋचा]] में स्वास्तिक को [[सूर्य]] का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को [[विष्णु]] की [[कमल]] नाभि और रेखाओं को [[ब्रह्मा|ब्रह्माजी]] के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं [[धर्म]], अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।<ref>{{cite web|url=http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&category=7&articleid=2343|title=सार्वभौम संस्कृति का प्रतीक चिह्न : स्वस्तिक|access-date=[[२७ अप्रैल]] [[२००९]]|format=|publisher=जागरण|language=|archive-url=https://web.archive.org/web/20100812153704/http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=2343&category=7|archive-date=12 अगस्त 2010|url-status=dead}}</ref>
मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में
विलक्षण है। यह मांगलिक
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को ही अंकित
किया जाता है।
 
==स्वस्तिक का अर्थ==
भारतीय संस्कृति में
वैदिक काल से
ही स्वस्तिक
को विशेष महत्त्व प्रदान
किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग
इसे हिन्दू धर्म का एक
प्रतीक चिह्न
ही मानते हैं किन्तु
वे लोग ये
नहीं जानते
कि इसके पीछे
कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ
है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द
को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण
योग माना जाता है । यहाँ "सु"
का अर्थ है- शुभ और "अस्ति"
का- होना। संस्कृत व्याकरण
अनुसार "सु" एवं "अस्ति"
को जब संयुक्त किया जाता है
तो जो नया शब्द बनता है- वो है
"स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो",
"कल्याण हो"। स्वस्तिक शब्द
सु+अस+क से बना है। 'सु'
का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ
सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क'
का अर्थ है कर्ता या करने वाला।
इस प्रकार स्वस्तिक शब्द
का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल
करने वाला। इसलिए
देवता का तेज़ शुभ करनेवाला -
स्वस्तिक करने वाला है और
उसकी गति सिद्ध
चिह्न 'स्वस्तिक' कहा गया है।
स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं
कल्याण। कल्याण शब्द
का उपयोग तमाम सवालों के एक
जवाब के रूप में किया जाता है।
शायद इसलिए
भी यह निशान मानव
जीवन में
इतना महत्त्वपूर्ण स्थान
रखता है। संस्कृत में सु-अस
धातु से स्वस्तिक शब्द
बनता है। सु अर्थात् सुन्दर,
श्रेयस्कर, अस् अर्थात्
उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें
सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश
हो, वह स्वस्तिक है।
स्वस्तिक का सामान्य अर्थ
शुभ, मंगल एवं कल्याण करने
वाला है। स्वस्तिक शब्द
मूलभूत सु+अस धातु से
बना हुआ है। सु का अर्थ है
अच्छा,
कल्याणकारी,
मंगलमय और अस का अर्थ है
अस्तित्व, सत्ता अर्थात
कल्याण
की सत्ता और
उसका प्रतीक है
स्वस्तिक। यह
पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है।
देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले
आभामंडल का चिह्न
ही स्वस्तिक होने
के कारण वे देवताओं
की शक्ति का प्रतीक
होने के कारण इसे शास्त्रों में
शुभ एवं
कल्याणकारी माना गया है।
अमरकोश में स्वस्तिक का अर्थ
आशीर्वाद, मंगल
या पुण्यकार्य करना लिखा है,
अर्थात
सभी दिशाओं में
सबका कल्याण हो। इस प्रकार
स्वस्तिक में
किसी व्यक्ति या जाति विशेष
का नहीं, अपितु
सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या
वसुधैव कुटुम्बकम्
की भावना निहित है।
प्राचीनकाल में
हमारे यहाँ कोई
भी श्रेष्ठ कार्य
करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने
की परंपरा थी,
लेकिन आम
आदमी के लिए
मंगलाचरण लिखना सम्भव
नहीं था, इसलिए
ऋषियों ने स्वस्तिक चिह्न
की परिकल्पना की,
ताकि सभी के कार्य
सानन्द सम्पन्न हों।
 
==स्वस्तिक की आकृति==
==स्वास्तिक की आकृति== स्वास्तिक की आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वास्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वास्तिक में एक दूसरे को काटती हुई
दो सीधी रेखाएँ
होती हैं, जो आगे
चलकर मुड़
जाती हैं। इसके बाद
भी ये रेखाएँ अपने
सिरों पर थोड़ी और
आगे की तरफ
मुड़ी होती हैं।
( या स्वास्तिक बनाने के लिए धन
चिह्न बनाकर
उसकी चारों भुजाओं
के कोने से समकोण बनाने
वाली एक
रेखा दाहिनी ओर
खींचने से
स्वस्तिक बन जाता है। )
रेखा खींचने
का कार्य
ऊपरी भुजा से
प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें
दक्षिणवर्त्ती गति होती है।
मानक दर्शन अनुसार स्वास्तिक
की यह
आकृति दो प्रकार
की हो सकती है।
प्रथम स्वास्तिक, जिसमें रेखाएँ
आगे की ओर इंगित
करती हुई हमारे
दायीं ओर
मुड़ती (दक्षिणोन्मुख)
हैं। इसे दक्षिणावर्त
स्वास्तिक
(घडी की सूई
चलने की दिशा)
कहते हैं।
दूसरी आकृति में
रेखाएँ पीछे
की ओर संकेत
करती हुई हमारे
बायीं ओर
(वामोन्मुख)
मुडती हैं। इसे
वामावर्त स्वस्तिक (उसके
विपरीत) कहते हैं।
दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप
दो प्रकार के स्वस्तिक
स्त्री एवं पुरुष के
प्रतीक के रूप में
भी मान्य हैं ।
किन्तु जहाँ दाईं ओर
मुडी भुजा वाला स्वास्तिक
शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं,
वहीं उल्टा (वामावर्त)
स्वास्तिक को अमांगलिक,
हानिकारक माना गया है ।
ॐ एवं स्वास्तिक
का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक
ऊर्जा को शीघ्रता से
दूर करता है। स्वास्तिक चिह्न
की चार रेखाओं
को चार प्रकार के मंगल
की प्रतीक
माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-
मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल
और
केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल।
कुछ
विद्वानों की यह
मान्यता है कि यह ॐ
का ही विकृत रूप
है। इन रेखाओं को आचार्य
अभिनव गुप्त ने नाद ब्रह्म
अथवा अक्षर ब्रह्म
का परिचायक माना है। नाद के
पश्यंती,
मध्यमा तथा बैखरी-
तीन रूप हैं।
अत:स्वस्तिक ब्रह्म
का प्रतीक है।
श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन
तीनों का यह एक
सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने
वाले संगम के समान हैं। दिशाएँ
मुख्यत: चार हैं,
खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर
जो घन चिह्न (+) जैसा आकार
बनता है यह आकार चारों दिशाओं
का द्योतक सर्वत्र और सदैव
यही माना गया है।
प्राचीन काल में
राजा महाराज
द्वारा किलों का निर्माण स्वस्तिक
के आकार में किया जाता रहा है
ताकि क़िले
की सुरक्षा अभेद्य
बनी रहे।
प्राचीन पारम्परिक
तरीक़े से निर्मित
क़िलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर
ही सफलता अर्जित
करने के पश्चात सेना द्वारा क़िले
में प्रवेश कर उसके अधिकाँश
भाग अथवा सम्पूर्ण क़िले पर
अधिकार करने के बाद नर संहार
होता रहा है। परन्तु स्वास्तिक
नुमा द्वारों के निर्माण के कारण
शत्रु सेना को एक द्वार पर
यदि सफलता मिल
भी जाती थी तो बाकी के
तीनों द्वार सुरक्षित
रहते थे।
ऐसी मज़बूत एवं
दूरगामी व्यवस्थाओं
के कारण शत्रु के लिए क़िले के
सभी भागों को एक
साथ जीतना संभव
नहीं होता था।
यहाँ स्वास्तिक किला / दुर्ग
निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु
वास्तु" था।
 
==स्वस्तिक की ऊर्जा==
स्वस्तिक का आकृति सदैव
कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व
अष्टगंध से
ही अंकित
करना चाहिए। यदि आधुनिक
दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब
तो विज्ञान
भी स्वस्तिक,
इत्यादि माँगलिक
चिह्नों की महता स्वीकार
करने लगा है । आधुनिक
विज्ञान ने वातावरण
तथा किसी भी जीवित
वस्तु, पदार्थ इत्यादि के
ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न
उपकरणों का आविष्कार किया है
और इस ऊर्जा मापने
की इकाई को नाम
दिया है- बोविस । इस यंत्र
का आविष्कार जर्मन और फ्रांस
ने किया है। मृत मानव
शरीर का बोविस
शून्य माना गया है और मानव में
औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500
बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक
हार्टमेण्ट अनसर्ट ने
आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा
विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से
अंकित स्वस्तिक
की सकारात्मक
ऊर्जा को 100000 बोविस
यूनिट में नापा है। यदि इसे
उल्टा बना दिया जाए तो यह
प्रतिकूल
ऊर्जा को इसी अनुपात
में बढ़ाता है।
इसी स्वस्तिक
को थोड़ा टेड़ा बना देने पर
इसकी ऊर्जा मात्र
1,000 बोविस रह
जाती है।
ॐ (70000 बोविस)
चिह्न से भी अधिक
सकारात्मक ऊर्जा स्वस्तिक में
है। इसके साथ
ही विभिन्न धार्मिक
स्थलों यथा मन्दिर,
गुरुद्वारा इत्यादि का ऊर्जा स्तर
काफ़ी उंचा मापा गया है
जिसके चलते वहां जाने
वालों को शांति का अनुभव और
अपनी समस्याओं,
कष्टों से मुक्ति हेतु मन में
नवीन
आशा का संचार होता है।
यही नहीं हमारे
घरों, मन्दिरों, पूजा पाठ इत्यादि में
प्रयोग किए जाने वाले अन्य
मांगलिक चिह्नों यथा ॐ
इत्यादि में
भी इसी तरह
की ऊर्जा समाई है।
जिसका लाभ हमें जाने अनजाने में
मिलता ही रहता हैं।
 
==लाल रंग का स्वस्तिक==
भारतीय संस्कृति में
लाल रंग का सर्वाधिक महत्त्व
है और मांगलिक कार्यों में
इसका प्रयोग सिन्दूर ,
रोली या कुंकुम के
रूप में किया जाता है।
सभी देवताओं
की प्रतिमा पर
रोली का टीका लगाया जाता है।
लाल रंग शौर्य एवं विजय
का प्रतीक है। लाल
टीका तेजस्विता,
पराक्रम, गौरव और यश
का प्रतीक
माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच
व साहस को दर्शाता है। यह रंग
लोगों के शारीरिक व
मानसिक स्तर
को शीघ्र प्रभावित
करता है। यह रंग
शक्तिशाली व
मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह
का है जो स्वयं
ही साहस,
पराक्रम, बल व
शक्ति का प्रतीक
है। यह
सजीवता का प्रतीक
है और हमारे शरीर
में व्याप्त होकर प्राण
शक्ति का पोषक है। मूलतः यह
रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं
महत्त्वकांक्षा का प्रतीक
है। नारी के
जीवन में
इसका विशेष स्थान है और
उसके सुहाग चिह्न व शृंगार में
सर्वाधिक प्रयुक्त होता है।
स्त्राी के मांग
का सिन्दूर, माथे
की बिन्दी,
हाथों की चूड़ियां, पांव
का आलता, महावर, करवाचौथ
की साड़ी,
शादी का जोड़ा एवं
प्रेमिका को दिया लाल गुलाब
आदि सभी लाल रंग
की महत्ता है।
नाभि स्थित मणिपुर चक्र
का पर्याय भी लाल
रंग है। शरीर में
लाल रंग
की कमी से
अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
लाल रंग से
ही केसरिया,
गुलाबी, मैहरुन और
अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन
सब तथ्यों से प्रमाणित होता है
कि स्वस्तिक लाल रंग से
ही अंकित
किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए।
 
==भारतीय संस्कृति में स्वास्तिकस्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व==
वेदों में स्वास्तिक चिह्न के
बनावट
की व्याख्या विभिन्न
अर्थों में की गई
है। भारतीय
संस्कृति में स्वास्तिक चिह्न को
विष्णु , सूर्य , सृष्टिचक्र
तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
का प्रतीक
माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे
गणेश का प्रतीक
मानकर इसे प्रथम
वन्दनीय
भी माना है। धार्मिक
नज़रिए से स्वास्तिक भगवान
श्री गणेश
का साकार रूप है। स्वस्तिक में
बाएं भाग में
बीजमंत्र होता है,
जो भगवान
श्री गणेश
का स्थान माना जाता है।
इसकी आकृति में
चार बिन्दियां भी बनाई
जाती है। जिसमें
गौरी,
पृथ्वी , कूर्म
यानि कछुआ और अनन्त
देवताओं का वास माना जाता है।
शिव के वरदान स्वरूप हर
मांगलिक और शुभ कार्य पर
सबसे पहले
श्रीगणेश का पूजन
किया जाता है।
इसी वजह से
किसी भी प्रकार
का कोई भी मांगलिक
कार्य, शुभ कर्म या विवाह
आदि धर्म कर्म में स्वास्तिक
बनाना अनिवार्य है। गणेश
की प्रतिमा की स्वस्तिक
चिह्न के साथ संगति बैठ
जाती है।
गणपति की सूंड,
हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह
चित्रित किया जा सकता है, जिसमें
स्वस्तिक की चार
भुजाओं का ठीक
तरह समन्वय हो जाए।
ऋग्वेद की ऋचा में
स्वस्तिक को सूर्य
का प्रतीक
माना गया है और
उसकी चार भुजाओं
को चार दिशाओं
की उपमा दी गई
है। सूर्य को समस्त देव
शक्तियों का केंद्र और भूतल
तथा अन्तरिक्ष में
जीवनदाता माना गया है।
स्वस्तिक को सूर्य
की प्रतिमा मान कर
इन्हीं विशेषताओं
के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत
करने का उपक्रम किया जाता है।
ऋग्वेद में स्वस्तिक के
देवता सवृन्त का उल्लेख है।
सविन्त सूत्र के अनुसार इस
देवता को मनोवांछित
फलदाता सम्पूर्ण जगत
का कल्याण करने और देवताओं
को अमरत्व प्रदान करने
वाला कहा गया है।
पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का
सुदर्शन चक्र माना गया है।
उसमें शक्ति, प्रगति,
प्रेरणा और शोभा का समन्वय
है। इन्हीं के
समन्वय से यह
जीवन और संसार
समृद्ध बनता है। विष्णु
की चार भुजाओं
की संगति भी कहीं-
कहीं सुदर्शन
चक्र के साथ बिठाई गई है।
स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-
चक्र
का भी प्रतीक
माना गया है। सूर्य
का प्रतीक सदैव
विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे
शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर
मंडल हैं। वह भगवान विष्णु
का महान सुदर्शन चक्र है
जो समस्त लोक
की सृजनात्मक एवं
चालक सर्वोच्च सता है।
स्वस्तिक की चार
भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के
रूप में माना गया है जो विकास और
विनाश के बीच
संतुलन बनाकर
सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान
श्रीविष्णु अपने
चारों हाथों से दिशाओं का पालन
करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-
बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल,
यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-
स्थल। इससे सिद्ध होता है
कि स्वस्तिक सृजनात्मक है।
स्वस्तिक शास्त्रीय
दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।
वायवीय संहिता में
स्वस्तिक को आठ यौगिक
आसनों में एक बतलाया गया है।
यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म
का ही एक स्वरूप
माना है। कुछ विद्वान
इसकी चार भुजाओं
को हिन्दुओं के चार
वर्णों की एकता का प्रतीक
मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा
के चार मुख, चार हाथ और चार
वेदों के रूप में
भी स्वीकार
किया गया है। स्वस्तिक
की खडी रेखा को स्वयं
ज्योतिर्लिंग का सूचन
तथा आडी रेखा को विश्व
के विस्तार
का भी संकेत
माना जाता है। इन चारों भुजाओं
को चारों दिशाओं के कल्याण
की कामना के
प्रतीक के रूप में
भी स्वीकार
किया जाता है, जिन्हें बाद में
इसी भावना के साथ
रेडक्रॉस सोसायटी ने
भी अपनाया।
ॐ को स्वस्तिक के
रूप में लिया जा सकता है।
लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में
गोलाई के अक्षर
नहीं, रेखा के आधार
पर
उनकी रचना हुई
थी। ॐ
को लिपिबद्ध करने के आरंभिक
प्रयास में उसका स्वरूप
स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर
के नामों में
सर्वोपरि मान्यता ॐ
की है।
उसको उच्चारण से जब लिपि
लेखन में उतारा गया, तो सहज
ही उसकी आकृति स्वस्तिक
जैसी बन गई। जिस
प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति,
लय
तीनों शक्तियों का समावेश
होने के कारण इसे दिव्य गुणों से
युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक
माना गया है,
उसी प्रकार
स्वस्तिक में
भी इसी निराकार
परमात्मा का वास है, जिसमें
उत्पत्ति, स्थिति, लय
की शक्ति है।
अन्तर केवल
इतना ही है कि,
अंकित करने
की कला निम्न है।
देवताओं के चारों ओर घूमने वाले
आभा-मंडल का चिह्न
ही स्वस्तिक के
आकार का होने के कारण इसे
शास्त्रों में शुभ माना जाता है।
तर्क से भी इसे
सिद्ध किया जा सकता है और
यह
मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित
तथा युक्तिसंगत
भी दिखाई
देती है।
स्वस्तिक को इण्डो-
यूरोपीय
प्राचीन देवता , वायु
देवता , अग्नि पैदा करने का यंत्र
नारी और पुरुष
का मिलन, नारी,
गणपति एवं सूर्य
का प्रतीक
माना गया है। यास्क ने स्वस्तिक
को अविनाशी ब्रह्म
की संज्ञा दी है।
अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल,
क्षेम एवं
आशीर्वाद के अर्थ
में लिया है। सिद्धान्तसार ग्रन्थ
में उसे विश्व ब्रह्माणका प्रतीक चित्र
माना गया है। उसके मध्य भाग
को विष्णु की कमल
नाभि और रेखाओं
को ब्रह्माजी के
चार मुख, चार हाथ और चार
वेदों के रूप में निरूपित
किया गया है। अन्य ग्रन्थों में
चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम
एवं धर्म, अर्थ, काम और
मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त
करने वाली समाज
व्यवस्था एवं वैयक्तिक
आस्था को जीवन्त
रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक
में ओत-प्रोत बताया गया है। इस
प्रकार स्वस्तिक छोटा-
सा प्रतीक है, पर
उसमें विराट सम्भावनाएं समाई
हैं। हम उसका महत्त्व समझें
और उसे समुचित
श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए
अभीष्ट
प्रेरणा करें,
यही उचित है।
 
==स्वस्ति मंत्र==
{{मुख्य|स्वस्ति मंत्र}}
स्वस्तिक में भगवान गणेश का रुप होने का प्रमाण दुनिया के सबसे पुराने ग्रंथ माने जाने वाले वेदों में आए शांति पाठ से भी होती है, जो हर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों में बोला जाता है। स्वस्तिवाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है कि स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। किसी भी मंगल कार्य के प्रारम्भ में स्वस्ति मंत्र बोलकर कार्य की शुभ शुरुआत की जाती है। यह मंत्र है -
: ''ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।''
: '' स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।''
: '' स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।''
: '' स्वस्ति नो ब्रहस्पतिर्दधातु ॥''
: '' ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥'''
महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो, विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो। <br>
जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरुड़ भगवान हमारा मंगल करो। बृहस्पति हमारा मंगल करो।
इस मंत्र में चार बार स्वस्ति शब्द आता है। जिसका मतलब होता है कि इसमें भी चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री [[गणेश]] का ध्यान और आवाहन किया गया है। इसमें व्यावहारिक जीवन का पक्ष खोजें तो पाते हैं कि जहां शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं स्वस्तिक का वास होता है सरल शब्दों में जहां परिवार, समाज या रिश्तों में प्यार, सुख, श्री, उमंग, उल्लास, सद्भाव, सुंदरता और विश्वास का भाव हो। वहीं सुख और सौभाग्य होता है। इसे ही जीवन पर श्री गणेश की कृपा माना जाता है यानि श्री गणेश वहीं बसते हैं। इसलिए श्रीगणेश को मंगलकारी देवता माना गया है।
 
==स्वस्तिक की प्राचीनता==
स्वस्तिक आर्यत्व का चिह्न
माना जाता है। वैदिक साहित्य में
स्वस्तिक
की चर्चा नहीं हैं।
यह शब्द ई॰ सन्
की प्रारम्भिक
शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है
जबकि धार्मिक कला में
इसका प्रयोग शुभ माना जाता है।
किंतु ओरेल स्टाइन का मत है
कि यह प्रतीक
पहले पहल बलूचिस्तान स्थित
शाही टुम्प
की धूसर
भांडवाली संस्कृति में
मिलता है जिसे हड़प्पा से पहले
का माना जाता है और
जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान
की संस्कृति से
स्थापित किया जाता है।[3] स्टाइन
की दृष्टि से
स्वस्तिक
का प्रतीक
अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के
अनुसार यह सबसे पहले-पहल
एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान
में प्रकट होता है।[4] स्वस्तिक
वाले ठप्पे हड़प्पाई में और
अल्लीन-देपे में पाये
गये हैं।[5] और उनका समय
2300-2000 ई॰ पू॰ है।[5]
शाही टुम्प में
स्वस्तिक प्रतीक
का प्रयोग श्राद्ध वाले बरतनों पर
होता था, और 1200 ई॰ पू॰ के
लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में
जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें
क़ब्र की जगह पर
इस प्रकार का चिह्न मिलता है।
[6] `मैकेंजी' ने इस
समस्या का विषद् रूप से विवेचन
किया है और बताया है कि विभिन्न
देशों में स्वस्तिक अनेक
प्रतीकार्यों को निर्देशित
करता है। उन्होंने स्वस्तिक
को पजनन प्रतीक
उर्वरता का प्रतीक,
पुरातन व्यापारिक चिह्न
अलंकरण का चिह्न एवं
अलंकरण का चिह्न माना है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक
का महत्त्व भरा पड़ा है। मोहन
जोदड़ों , हड़प्पा संस्कृति, अशोक
के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश
पुराण , महाभारत आदि में
इसका अनेक बार उल्लेख
मिलता है। भारत में आज तक
लगभग
जितनी भी पुरातात्विक
खुदाइयाँ हुई हैं, उनसे प्राप्त
पुरावशेषों में स्वस्तिक का अंकन
बराबर मिलता है। सिन्धु
घाटी
सभ्यता की खुदाई
में प्राप्त बर्तन और मुद्राओं
पर हमें स्वस्तिक
की आकृतियाँ खुदी मिली हैं,
जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त
प्रमाण है तथा जिनसे यह
प्रमाणित हो जाता है कि लगभग
2-4 हज़ार वर्ष पूर्व में
भी मानव
सभ्यता अपने भवनों में इस
मंगलकारी चिह्न
का प्रयोग
करती थी।
सिन्धु-घाटी सभ्यता
के लोग सूर्य-पूजक थे और
स्वस्तिक चिह्व, सूर्य
का भी प्रतीक
माना जाता रहा है। मोहन-
जोदड़ो और
हड़प्पा की खुदाई
से ऐसी अनेक
मुहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर
स्वस्तिक अंकित है। मोहन-
जोदड़ों की एक
मुद्रा में हाथी
स्वस्तिक के सम्मुख
झुका हुआ दिखलाया गया है।
अशोक के शिला-लेखों में
स्वस्तिक का प्रयोग अधिकता से
हुआ है। पालि अभिलेखों में
भी इस
प्रतीक का अंकन
है। पश्चिम भारत के अनेक
गुहा-मंदिरों यथा- कुंडा, कार्ले,
जूनर और
शेलारवाड़ी में यह
प्रतीक विशेष
अवलोकनीय है।
साँची, भरहुत और
अमरावती के
स्तूपों में यह स्वतंत्र रूप से
अंकित नहीं है, पर
सांची स्तूप के
प्रवेश द्वार पर वृत्ताकार
चतुष्पथ के रूप में प्रदर्शित
है। ईसा से पूर्व प्रथम
शताब्दी की खण्डगिरि,
उदयगिरि
की रानी की गुफ़ा में
भी स्वस्तिक
चिह्न मिले हैं। मत्स्य पुराण में
मांगलिक प्रतीक के
रूप में स्वस्तिक
की चर्चा की गयी है।
पाणिनी
की व्याकरण में
भी स्वस्तिक
का उल्लेख है।
पाली भाषा में
स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से
पुकारा गया, जो बाद में
साखी या साकी कहलाये
जाने लगे। जैन परम्परा में
मांगलिक प्रतीक के
रूप में स्वीकृत
अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक
का स्थान सर्वोपरि है।
प्रागैतिहासिक मानव के मूल रूप
में गुफा भित्तियों पर चित्रकला के
जो बीज उकेरे थे
उनमें
`सीधी,
तिरछी या आड़ी रेखाएँ,
त्रिकोणात्मक
आकृतियाँ थीं।
यही आकृतियाँ उस
युग
की लिपि थी।
मेसोपोटेमिया में अस्त्र-शस्त्र
पर विजय प्राप्त करने हेतु
स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग
किया जाता था।
ईसा पूर्व में स्वास्तिक
आकृति के दायें और बायें पक्ष
से आदमी लापरवाह
थे। उस समय इस रहस्यमय
आकृति की गंभीरता से
लोग बेखबर थे। तब यह धार्मिक
रूप से दो सिद्धान्तों के विकास
और विनाश को दर्शाता था।
स्वस्तिक का महत्त्व समाज
और धर्म
दोनों ही स्थानों में
है। भारतवर्ष में एक विशाल
जनसमूह स्वस्तिक निशान
का उपयोग करता है। कोई इसे
सजाने के तौर पर तो कोई
इसका उपयोग धर्म और
आत्मा को जोड़कर करता है।
दक्षिण भारत में
जहां इसका उपयोग
दीवारों और
दरवाजों को सजाने में किया जाता है,
वहीं पूर्वोत्तर
राज्यों में इस आकृति को तंत्र-
मंत्र से जोड़कर देखा जाता है।
भारत के
पूर्वी क्षेत्रों में इस
आकृति को एक पवित्र धार्मिक
चिह्न के रूप में माना जाता है।
 
==विश्वव्यापी प्रभाव==
हमारे मांगलिक
प्रतीकों में
स्वस्तिक एक ऐसा चिह्न है,
जो अत्यन्त
प्राचीन काल से
लगभग
सभी धर्मों और
सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है।
भारत में
तो इसकी जड़ें
गहरायी से
पैठी हुई हैं
ही, विदेशों में
भी इसका काफ़ी अधिक
प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान
है कि व्यापारी और
पर्यटकों के माध्यम से
ही हमारा यह
मांगलिक प्रतीक
विदेशों में पहुँचा। भारत के समान
विदेशों में
भी स्वस्तिक
को शुभ और विजय
का प्रतीक चिह्न
माना गया। इसके नाम अवश्य
ही अलग-अलग
स्थानों में, समय-समय पर
अलग-अलग रहे। स्वस्तिक
संस्कृत का शब्द है। स्वस्तिक
शब्द स्वस्ति से बना है। यह
हम सभी जानते हैं
कि भारतीय
संस्कृति विश्व
की प्राचीनतम
संस्कृति है।
संभवत:यहीं से
विश्व के अनेक देशों में
स्वस्तिक का विस्तार हुआ होगा।
स्वस्तिक शब्द का प्रयोग
पश्चिमी देशों में
भी होता है। विभिन्न
देशों में इसका अर्थ भिन्न-भिन्न
है। स्वस्तिक चिह्न का डिजाइन
इजिप्सन क्रास,
चाइनीज ताउ,
रोसीक्रूसियंस और
क्रिश्चियन क्रास से
मिलता जुलता है। विभिन्न
आकृतिओं से मिलने वाला यह
चिह्न हर युग में अपना अलग-
अलग महत्त्व
भी रखता है।
सनातन धर्म और जैन धर्म
हो या बौद्ध धर्म , हर धर्म और
युग में
अपनी महत्ता के
साथ स्वस्तिक उपस्थित है।
स्वस्तिक को भारत में
ही नहीं,
अपितु विश्व के अन्य कई
देशों में विभिन्न स्वरूपों में
मान्यता प्राप्त है।
जर्मनी, यूनान,
फ्रांस, रोम, मिस्त्र, ब्रिटेन,
अमरीका,
स्कैण्डिनेविया,
सिसली, स्पेन,
सीरिया, तिब्बत,
चीन, साइप्रस और
जापान आदि देशों में
भी स्वस्तिक
का प्रचलन है। स्वस्तिक
की रेखाओं को कुछ
विद्वान अग्नि उत्पन्न करने
वाली अश्वत्थ तथा
पीपल
की दो लकड़ियाँ मानते
हैं। प्राचीन मिस्त्र
के लोग स्वस्तिक को निर्विवाद,
रूप से काष्ठ
दण्डों का प्रतीक
मानते हैं। यज्ञ में अग्नि मंथन
के कारण इसे प्रकाश
का भी प्रतीक
माना जाता है। अधिकांश
लोगों की मान्यता है
कि स्वस्तिक सूर्य
का प्रतीक है। जैन
धर्मावलम्बी अक्षत
पूजा के समय स्वस्तिक चिह्न
बनाकर तीन बिन्दु
बनाते हैं।
पारसी उसे चतुर्दिक
दिशाओं एवं चारों समय
की प्रार्थना का प्रतीक
मानते हैं।
व्यापारी वर्ग इसे
शुभ-लाभ
का प्रतीक मानते
हैं। बहीखातों में
ऊपर की ओर
'श्री' लिखा जाता है।
इसके नीचे
स्वस्तिक बनाया जाता है। इसमें
न और स अक्षर अंकित
किया जाता है
जो कि नौ निधियों तथा आठों सिद्धियों का प्रतीक
माना जाता है।
स्वस्तिक का प्रयोग अनेक
धर्म में किया जाता है। 'आर्य
धर्म' और
उसकी शाखा-
प्रशाखाओं में स्वस्तिक
का समान रूप से सम्मान है।
बौद्ध, जैन, सिख धर्मो में
उसकी समान
मान्यता है। बौद्ध और जैन
लेखों से सम्बन्धित
प्राचीन गुफाओं में
भी यह
प्रतीक मिलता है।
जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य
धर्मों में प्रायः लाल,
पीले एवं श्वेत रंग
से अंकित स्वस्तिक का प्रयोग
होता रहा है। महात्मा बुद्ध
की मूर्तियों पर और
उनके चित्रों पर
भी प्रायः स्वस्तिक
चिह्न मिलते हैं। बौद्ध धर्म में
स्वस्तिक का आकार गौतम बुद्ध
के हृदय स्थल पर
दिखाया गया है।
अमरावती के स्तूप
पर स्वस्तिक चिह्न हैं।
विदेशों में इस मंगल-
प्रतीक के प्रचार-
प्रसार में बौद्ध धर्म के
प्रचारकों का भी काफ़ी योगदान
रहा है। दूसरे देशों में स्वस्तिक
का प्रचार महात्मा बुद्ध
की चरण पूजा से
बढ़ा है। बौद्ध धर्म के प्रभाव
के कारण ही जापान
में प्राप्त महात्मा बुद्ध
की प्राचीन
मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्न
अंकित हुए मिले हैं।
जापानी लोग
स्वस्तिक को मन
जी कहते हैं और
धर्म-प्रतीकों में
उसका समावेश करते हैं। मध्य
एशिया के देशों में स्वस्तिक
चिह्न मांगलिक एवं सौभाग्य
सूचक माना जाता रहा है। नेपाल
में हेरंब तथा बर्मा में
महा पियेन्ने के नाम से पूजित हैं।
मिस्र में
सभी देवताओं के
पहले कुमकुम से क्रॉस
की आकृति बनाई
जाती है। वह
एक्टोन के नाम से पूजित है।
यूरोप और अमेरिका
की प्राचीन
सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग
होते रहने के प्रमाण मिलते हैं।
ईरान, यूनान, मिश्र,
मैक्सिको और साइप्रस में
की गई खुदाइयों में
जो मिट्टी के
प्राचीन बर्तन मिले
हैं, उनमें से अनेक पर
स्वस्तिक चिह्न हैं।
आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैण्ड
के
मावरी आदिवासियों द्वारा आदिकाल
से स्वस्तिक को मंगल
प्रतीक के रूप में
प्रयुक्त किया जाता रहा हैं।
ऑस्ट्रिया के
राष्ट्रीय संग्रहालय
में अपोलो देवता
की एक प्रतिमा है,
जिस पर स्वस्तिक चिह्न
बना हुआ है।
टर्की में ईसा से
2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-
दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्न
मिले हैं। एथेन्स में शत्रागार के
सामने यह चिह्न बना हुआ है।
स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड
में अनेक ऐसे
प्राचीन पत्थर मिले
हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्न
अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई
स्मारकों पर
भी स्वस्तिक
चिह्न देखे गये हैं। कुछ ईसाई
पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है
कि ईसाई धर्म के
प्रतीक क्रॉस
का भी प्राचीनतम
रूप स्वस्तिक
ही है।
छठी शताब्दी में
चीनी
राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के
प्रतीक के रूप में
मानने
की घोषणा की थी।
तिब्बती स्वस्तिक
को अपने शरीर पर
गुदवाते हैं तथा चीन
में इसे दीर्घायु एवं
कल्याण का प्रतीक
माना जाता है। विभिन्न
देशों की रीति-
रिवाज के अनुसार पूजा पद्धति में
परिवर्तन होता रहता है। सुख
समृद्धि एवं रक्षित
जीवन के लिए
ही स्वस्तिक
पूजा का विधान है।
बेल्जियम में नामूर संग्रहालय
में एक ऐसा उपकरण है
जो हड्डी से
बना हुआ है। उस पर क्रॉस के
कई चिह्न बने हुए हैं तथा उन
चिह्नों के बीच में
एक स्वस्तिक चिह्न
भी है।
इटली के अनेक
प्राचीन
अस्थि कलशों पर
भी स्वस्तिक
चिह्न हैं। इटली के
संग्रहालय में रखे एक भाले पर
भी स्वस्तिक
का चिह्न हैं। वहाँ के अनेक
प्राचीन
अस्थिकलशों पर
भी स्वस्तिक
चिह्न मिलते हैं। स्वस्तिक
को सुख और सौभाग्य
का प्रतीक मानते
हैं। वे आज भी इसे
अपने आभूषणों में धारण करते
हैं। जब जर्मनी में
नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व
का प्रतीक घोषित
किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व समाप्त
हो गया।
 
== सन्दर्भ ==