"कार्तिकेय": अवतरणों में अंतर

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कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होने उस अमोघ वीर्य को गंगादेवी को सौंप दिया। जब देवी गंगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगादेवी ने उस दिव्य अंश को शरवण वन में लाकर स्थापित कर दिया
किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था। भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुंदर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ।
उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने शिव पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और उन्होने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षसदैत्य तारकासुर का संहार किया।
 
'''<u>दक्षिण भारत में कार्तिकेय का आगमन</u>विवाह'''
 
एक बार भगवान शंकर के पुत्र गणेश और कार्तिकेय विवाह योग्य हुए तब दोनों में विवाद हो गया कि कौन पहले विवाह करेगा इस विवाद में कार्तिकेय ने कहा कि "अनुज गणेश तुम मुझसे छोटे हो अत: मैं तुम से पहले विवाह करूँगा" | तब ये बात सुनकर गणेश बोले कि "नहीं भैया मैं आप से छोटा हूँ अत: मेरा विवाह पहले होगा " अपने पुत्रों में इस प्रकार विवाद देखकर भगवान शिव और माता पार्वती भी आ गए | तब कार्तिकेय और गणेश ने अपने माता पिता को ही निर्णय लेने को कहा | तब भगवान शिव ने घोषणा की कि " तुम में से जो भी पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करकर आएगा उसी का विवाह पहले किया जायेगा" | ये घोषणा सुनकर कार्तिकेय अपने वाहन मोर पर सवार होकर पृथ्वी पर रवाना होने के लिए निकल पड़े | [[गणेश]] ने अपने माता पिता को ही संसार मानकर उनकी परिक्रमा सात बार कर दी | तब गणेश का विवाह पहले हुआ जब कुछ दिनों बाद कार्तिकेय वापिस कैलाश पर्वत पर आए तब उन्हें दो सुन्दर युवतियां दिखी और उन्होंने उन्हें प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया तब कार्तिकेय सोच में पड़ गए कि ये दोनों युवतियां कौन हैं ? जब उन्होंने अपने पिता भगवान शंकर के पास जाकर पूछा तो भगवान शंकर ने उत्तर दिया कि ये गणेश की वधुएँ और [[विश्वकर्मा]] की पुत्री रिद्धि सिद्धि हैं | तब भगवान कार्तिकेय इस बात से नाराज हो गए और अपने माता पिता से कहा "कि गणेश ने तो पृथ्वी की परिक्रमा तो की ही नहीं तो अपने इसका विवाह कैसे किया ?" तब गणेश जी ने विनम्रता से उत्तर दिया "कि भैया माता पिता में ही सारा संसार और तीर्थ निहित होते हैं इसलिए मैंने माँ और पिताश्री की सात बार परिक्रमा कर दी " | भगवान कार्तिकेय ने ये बात छुककर स्वीकार कर ली और से प्रण लिया "कि मैं आजीवन अविवाहित ही रहूँगा" | इसके बाद कार्तिकेय दक्षिण भारत में चले गए तत्पश्चात भगवान शिव और माता पार्वती सोचने लगे "कि एक पुत्र का विवाह तो कर दिया किन्तु दूसरे का नहीं हुआ और ये उसके साथ ठीक नहीं हुआ उन्होंने पहले गणेश को भेजा किन्तु गणेश उनका प्रण खंडित करने में असमर्थ रहे तत्पश्चात भगवान [[शिव]] और माता [[पार्वती]] स्वयं कार्तिकेय के पास गए और उनका प्रण खंडित करने में सफ़ल हो गए | भगवान कार्तिकेय ने अपने माता पिता के सामने ये शर्त रखी कि "मैं विवाह करने के लिए तत्पर हूँ किन्तु मेरी पत्नी से संतान नहीं उत्त्पन होगी" इसके पश्चात् कार्तिकेय का विवाह [[इन्द्र|इन्द्रदेव]] की पुत्री [[देवसेना]] और एक आदिवासी राजा की पुत्री [[वल्ली]] से हुआ |
प्राचीन ग्रंथो के अनुसार एक बार ऋषि नारद मुनि एक फल लेकर कैलाश गए दोनों गणेश और कार्तिकेय मे फल को लेकर बहस हुई जिस कारण प्रतियोगिता (पृथ्वी के तीन चक्कर लगाने) आयोजित की गयी जिस अनुसार विजेता को फल मिलेगा । जहां मुरूगन ने अपने वाहन मयूर से यात्रा शुरू की वहीं गणेश जी ने अपने माँ और पिता के चक्कर लगाकर फल खा लिया जिस पर मुरूगन क्रोदित होकर कैलाश से दक्षिण भारत की ओर चले गए।
 
देव दानवअसुर युद्ध में देवो के सेनापति के रूप में। दक्षिण भारत में युवा और बाल्य रूप में पुजापूजा जाता है। रामायण, महाभारत, तमिल संगम में वर्णन।
'''वर्णन'''
 
देव दानव युद्ध में देवो के सेनापति के रूप में। दक्षिण भारत में युवा और बाल्य रूप में पुजा जाता है। रामायण, महाभारत, तमिल संगम में वर्णन।
 
'''वरदान'''
 
कार्तिकेय को देवताओ से सदेवसदैव युवा रहने का वरदान प्राप्त था।
 
विविध
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* तारकासुर के अत्याचार से पीड़ित देवताओं पर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने पार्वती जी का पाणिग्रहण किया। भगवान शंकर भोले बाबा ठहरे। उमा के प्रेम में वे एकान्तनिष्ठ हो गये। अग्निदेव सुरकार्य का स्मरण कराने वहाँ उज्ज्वल कपोत वेश से पहुँचे। उन अमोघ वीर्य का रेतस धारण कौन करे? भूमि, अग्नि, गंगादेवी सब क्रमश: उसे धारण करने में असमर्थ रहीं। अन्त में शरवण (कास-वन) में वह निक्षिप्त होकर तेजोमय बालक बना। कृत्तिकाओं ने उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बालक ने छ: मुख धारण कर छहों कृत्तिकाओं का स्तनपान किया। उसी से षण्मुख कार्तिकेय हुआ वह शम्भुपुत्र। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया।
* स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय (स्कन्द) ही हैं। समस्त भारतीय तीर्थों का उसमें माहात्म्य आ गया है। पुराणों में यह सबसे विशाल है।
* स्वामी कार्तिकेय सेनाधिप हैं। सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इनकी कृपा से सम्पन्न होता है। ये इस शक्ति के अधिदेव हैं। धनुर्वेद पद इनकी एक संहिता का नाम मिलता है, पर ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।
 
== कार्तिकेय के नाम ==