"गुर्जर-प्रतिहार राजवंश": अवतरणों में अंतर

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गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति इतिहासकारों के बीच बहस का विषय है। इस राजवंश के शासकों ने अपने लिए "प्रतिहार" का उपयोग किया जो उनके द्वारा स्वयं चुना हुआ पदनाम अथवा उपनाम था। इनका दावा है कि ये [[रामायण]] के सहनायक और [[राम]] के भाई [[लक्ष्मण]] के वंशज हैं, लक्ष्मण ने एक प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक की तरह राम की सेवा की, जिससे इस वंश का नाम "प्रतिहार" पड़ा।{{sfn|Tripathi|1959|p=223}}{{sfn|Puri|1957|p=7}} कुछ आधुनिक इतिहासकार यह व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि ये राष्ट्रकूटों के यहाँ सेना में रक्षक (प्रतिहार) थे जिससे यह शब्द निकला।<ref>{{cite book |last=अग्निहोत्री |first=वी. के. |year=2010 |title=इंडियन हिस्ट्री |volume=26 |page=B8 |quote=Modern historians believed that the name was derived from one of the kings of the line holding the office of Pratihara in the Rashtrakuta court}}</ref>
 
इस साम्राज्य के कई पड़ोसी राज्यों द्वारा अभिलेखों में उन्हें "गुर्जर" के रूप में वर्णित किया गया है।{{sfn|Puri|1957|p=9-13}} केवल एक मात्र अभिलेख एक सामंत मथनदेव का मिलता है जिसमें उसने स्वयं को "गुर्जर-प्रतिहार" के नाम से अभिहित किया है। कुछ अध्येताओं का मानना है कि "गुर्जर" एक क्षेत्र का नाम था ( देखें [[गुर्जरदेश]]) जो मूल रूप से गुर्जर प्रतिहारों द्वारा ही शासित था और बाद में यह शब्द इस क्षेत्र के लोगों के लिए भी प्रयोग में आ गया। दूसरे मत के समर्थक यह मानते हैं कि गुर्जर एक जन (ट्राइब)(जाति) और प्रतिहार इसी गुर्जर जन का एक क़बीला या गोत्र था।{{sfn|Majumdar|1981|pp=612-613}}
 
गुर्जरों को एक जन (ट्राइब) माने वालों में विवाद है कि ये भारत के मूल निवासी थे अथवा बाहरी।{{sfn|Puri|1957|p=1-2}} बाहरी क्षेत्र से आगमन के समर्थक यह दावा करते कि छठी सदी के आसपास, जब [[हूण]] भारत में आये, उसी समय ये भी बाहर से आये थे।{{sfn|Puri|1957|p=2}} जबकि इसके विपक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि ये स्थानीय संस्कृति के साथ पूरी तरह घुले-मिले थे; साथ ही यदि ये बाहरी आक्रांता के रूप में आये तो इन्होने [[सिंधु-गंगा का मैदान|सिंधु-गंगा के उपजाऊ मैदान]] को बसने के लिए चुनने की बजाय अर्द्धशुष्क इलाके को क्यों चुना।{{sfn|Puri|1957|pp=4-6}}
 
[[पृथ्वीराज रासो]] की परवर्ती पांडुलिपियों में वर्णित [[अग्निवंशी|अग्निवंश सिद्धांत]] के अनुसार प्रतिहार तथा तीन अन्य [[राजपूत]] राजवंशों की उत्पत्ति अर्बुद पर्वत (वर्तमान [[माउंट आबू]]) पर एक यज्ञ के अग्निकुंड से हुई थी। अध्येता इस कथा की व्याख्या इनके हिंदू वर्ण व्यवस्था में विभिन्न जातीय शासको यज्ञोपरांत शामिल होने के रूप में करते हैं।{{sfn|Yadava|1982|p=35}} वैसे भी यह कथा पृथ्वीराज रासो की पूर्ववर्ती प्रतियों में नहीं मिलती और माना जाता है कि यह मिथक एक परमार कथा पर आधारित है और इसका उद्देश्य मुगलों के विरुद्ध राजपूतों को एकजुट करना था, इस दौर में वे अपनी उत्पत्ति के लिए महिमामंडित वंशों का दावा कर रहे थे।{{sfn|Singh|1964|pp=17-18}}
 
== इतिहास ==
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७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक [[ध्रुव धारवर्ष]] (७८०-७९३) [[नर्मदा नदी]] को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।<ref>राधनपुर अभिलेख, श्लोक ८</ref> वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश [[धर्मपाल]] ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।<ref name=":0" />
[[File:VarahaVishnuAvatarPratiharaKings850-900CE.jpg|thumb|150px| गुर्जर प्रतिहार के सिक्कों मे [[वराह]] (विष्णु अवतार), ८५०–९०० ई० [[ब्रिटिश संग्रहालय]]।]]
वत्सराज के बाद उसका पुत्र [[नागभट्ट द्वितीय]] (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक [[गोविन्द तृतीय]] (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, [[विदर्भ]] और [[कलिंग]] के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर [[कन्नौज]] पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने [[धर्मपाल]] को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, [[वत्स]] और [[मत्स्य राज|मत्स्य]] के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड १८, पेज १०८-११२, श्लोक ८ से ११</ref> [[चौहान वंश|शाकम्भरी के चाहमानों]] ने कन्नोज के गुर्जरोगुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।<ref>बही० जिल्द २, पृ० १२१-२६</ref> उसने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे ​​पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः अरबो को रोक दिया। उसने गुजरात में [[सोमनाथ मन्दिर|सोमनाथ के महान शिव मंदिर]] को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
 
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद<ref>चन्द्रपभसूरि कृत प्रभावकचरित्र, पृ० १७७, ७२५वाँ श्लोक</ref>, उसका पुत्र [[रामभद्र]] या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे [[पाल साम्राज्य]] के [[देवपाल]] से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जरोगुर्जर प्रतीहारों से [[कलिंजर]] क्षेत्र लेने मे सफल रहा।
 
=== चरमोत्कर्ष ===
[[रामभद्र]] के बाद उसका पुत्र [[मिहिरभोज]] या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल <ref>{{cite book |editor1-first=एस.आर. |editor1-last=बक्शी |editor2-first=एस. |editor2-last=गजरानी |editor3-first=हरी |editor3-last=सिंग |title=प्रारंभिक आर्यों से स्वराज |url=https://books.google.com/books?id=Ldo1QtQigosC&pg=PA319 |pages=319–320 |location=नई दिल्ली |publisher=सरुप एंड संस |year=2005 |isbn=81-7625-537-8 |access-date=11 दिसंबर 2015 |archive-url=https://web.archive.org/web/20160603221722/https://books.google.com/books?id=Ldo1QtQigosC&pg=PA319 |archive-date=3 जून 2016 |url-status=live }}</ref><ref>{{cite book|title=राजस्थान की नई छवि|publisher=सार्वजनिक संबंध निदेशालय, सरकार राजस्थान|year=1966|page=2}}</ref> बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में [[सतलुज नदी|सतुलज]], उत्तर में [[तराई क्षेत्र|हिमालय की तराई]], पूर्व में [[पाल साम्राज्य]] कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में [[बुन्देलखण्ड]] और [[वत्स]] की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में [[सौराष्ट्र]], तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय [[पालवंश]] का शासक [[देवपाल]] भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल व गुर्जर -प्रतिहार संघर्षसंघर्स में भोज कि विजय हुई।
 
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय [[अमोघवर्ष नृपतुंग|अमोघवर्ष]] और [[कृष्ण द्वितीय]] राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच [[नर्मदा नदी]] के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।<ref>एपिक इण्डिया खण्ड़ १९, पृ० १७६ पं० ११-१२</ref> अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से [[महेन्द्रपाल प्रथम|महेन्द्रपाल द्वितीय]] के शासनकाल तक चलता रहा। [[मिहिर भोज]] के बाद उसका पुत्र [[महेन्द्रपाल प्रथम]] ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने [[राजशेखर]] को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "[[कर्पूरमंजरी]]" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।
 
=== पतन ===
महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही [[महियाल|महिपाल प्रथम]] (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर [[परमार वंश|मालवा के परमार]], [[चन्देल|बुंदेलखंड के चन्देल]], [[कलचुरी|महाकोशल का कलचुरि]], [[तोमर वंश|हरियाणा के तोमर]] और [[चौहान वंश|चौहान]] स्वतंत्र होने लगे। [[राष्ट्रकूट वंश]] के दक्षिणी भारतीय सम्राट [[इन्द्र ३|इंद्र तृतीय]] (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में [[पाल साम्राज्य]] की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने राजपूत सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।
 
== शासन प्रबन्ध ==
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== कला ==
=== मारू गुर्जर कला व गुर्जर स्थाप्त्य कला ===
गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में गुर्जर प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। मारू गुर्जर कला का शाब्दिक अर्थ है [[गुर्जरात्रा|गुर्जर को देशगुर्जरदेश]] की कला। मारू गुर्जर शैली तथ्य की उत्पत्ति है कि प्राचीन काल के दौरान, गुर्जरात्राा (वर्तमान राजस्थान और गुजरात) में समाज के जातीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं में समानता है। राजस्थान का प्राचीन नाम गुर्जरो का गुर्जर-देश, गुर्जरत्रा आदि नामो से जाना गया है <ref>ए. एम. टी. जैक्सन, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896</ref> तब निर्माण कार्यों की एक शैली भी साथ में आई, जिसे मारु गुर्जर शैली के रूप में जाना जाता है। गुजरात के मंदिर इसी शैली से बने हैं। <ref>https://दैनिक{{Dead link|date=जून 2020 |bot=InternetArchiveBot }} भास्कर | www.bhaskar.com/amp/news/GUJ-AHM-OMC-this-style-of-architecture-is-not-available-anywhere-except-the-ambaji-temple-5684022-PH.html</ref> मारु-गुर्जर वास्तुकला संरचनाओं की गहरी समझ और बीते युग के राजस्थानी शिल्पकारों के परिष्कृत कौशल को दर्शाते हैं। मारु-गुर्जर वास्तुकला में दो प्रमुख शैलियों महा-मारू और मारू-गुर्जर हैं। एमए ए ढकी के अनुसार, महा-मारू गुर्जर शैली मुख्य रूप से मारुससा, सपादलक्ष, सुरसेन और उपरमला के कुछ हिस्सों में विकसित की गई हैं, जबकि मारू-गुर्जर मेदपाटा, गुर्जरदेसा-अर्बुडा, गुर्जरेदेय -अनारता और गुजरात के कुछ क्षेत्रों में उत्पन्न हुई। विद्वान जॉर्ज माइकल, एम.ए. ढकी, माइकल डब्लू। मेस्टर और यू.एस. मोरर्टी का मानना है कि मारु-गुर्जर मंदिर वास्तुकला पूरी तरह से पश्चिमी भारतीय वास्तुकला है और यह उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला से काफी भिन्न है। मारु-गुर्जर आर्किटेक्चर और होयसाला मंदिर वास्तुकला के बीच एक संबंधक लिंक है। इन दोनों शैलियों में वास्तुकला को मूर्तिकला रूप से माना जाता है। गुर्जर स्थापत्य शैली मे सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में गुर्जर प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के [[मुरैना जिला|मुरैना जिले]] में [[बटेश्वर हिन्दू मंदिर, मध्य प्रदेश|बटेश्वर हिन्दू मंदिर]] इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।<ref>{{cite web |url=https://www.hindustantimes.com/india-news/asi-to-resume-restoration-of-bateshwar-temple-complex-in-chambal/story-kBaxGfcRWVsrNbw3Vw8dLN.html |title=ASI to resume restoration of Bateshwar temple complex in Chambal |date=21 May 2018 |website=[[Hindustan Times]] |access-date=31 अक्तूबर 2018 |archive-url=https://web.archive.org/web/20180805233809/https://www.hindustantimes.com/india-news/asi-to-resume-restoration-of-bateshwar-temple-complex-in-chambal/story-kBaxGfcRWVsrNbw3Vw8dLN.html |archive-date=5 अगस्त 2018 |url-status=live }}</ref> कालान्तर में गुर्जर स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, चालूक्या तथा अन्य गुर्जर राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें [[खजुराहो स्मारक समूह]] प्रशिद्ध हैहै।<ref>बहि० पृ० २०९</ref>
प्राचीन राजपूती कला की जडे गुर्जरकला से ही निकलती है।
<ref>बहि० पृ० २०९</ref>
 
==इन्हें भी देखें==