"रस (काव्य शास्त्र)": अवतरणों में अंतर

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:''मेरी विभूति है जो, उसको भवभूति क्यों कहे कोई? ([[मैथिलीशरण गुप्त]])<ref>‘साकेत’, 9</ref>
 
== रौद्र❤रौद्र रस==
काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी है, यथा-‘तेषामुत्पत्तिहेतवच्क्षत्वारो रसा: शृंगारो रौद्रो वीरो वीभत्स इति’। रौद्र से करुण रस की उत्पत्ति बताते हुए भरत कहते हैं कि ‘रौद्रस्यैव च यत्कर्म स शेय: करुणो रस:’। रौद्र रस का कर्म ही करुण रस का जनक होता है। रौद्र रस का 'स्थायी भाव' 'क्रोध' है तथा इसका वर्ण रक्त एवं [[देवता]] रुद्र है। <ref>6:38 नाट्य शास्त्र भरतमुनि</ref><ref>6:39-41नाट्य शास्त्र भरतमुनि</ref> [[केशवदास]] की ‘रामचन्द्रिका’ से रौद्र रस का उदाहरण पहले ही अंकित किया जा चुका है। [[भूषण]] की रचनाओं में भी रौद्र रस के उदाहरण मिल जाते हैं। वर्तमान काल में [[श्यामनारायण पाण्डेय]] तथा ‘[[दिनकर]]’ की रचनाओं में रौद्र रस की प्रभावकारी व्यंजना हुई है। [[संस्कृत]] के ग्रन्थों में ‘[[महाभारत]]’ तथा ‘वीरचरित’, ‘वेणीसंहार’ इत्यादि नाटकों में रौद्र रस की प्रभूत अभिव्यक्ति हुई है। <ref>धीरेंद्र वर्मा,हिन्दी साहित्यकोश, भाग-1, मई 2007 (हिन्दी), वाराणसी: ज्ञानमण्डल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या-581।</ref> उदाहरण -
:''बोरौ सवै रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहि।