"नील": अवतरणों में अंतर
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नील का पौधा दो-तीन हाथ ऊँचा होता है। पत्तियाँ चमेली की तरह टहनी के दोनों ओर पंक्ति में लगती हैं पर छोटी छोटी होती हैं। फूल मंजरियों में लगते हैं। लंबी लंबी [[बबूल]] की तरह फलियाँ लगती हैं।
नील के पौधे की ३०० के लगभग जातियाँ होती हैं। पर जिनसे यहाँ रंग निकाला जाता है वे पौधे भारतवर्ष कै हैं और अरब मिस्र तथा अमेरिकां में भी बोए जाते हैं। भारतवर्ष हो नील का आदिस्थान हे और यहीं सबसे पहले रंग निकाला जाता था। ८० ईसवी में सिंध के किनारे के एक नगर से नील का बाहर भेजा जाना एक प्राचीन यूनानी लेखक्र ने लिखा है। पीछे के बहुत से विदेशियों ने यहाँ नील के बोए जाने का उल्लेख किया है। ईसा की पद्रहवीं शताब्दी में जब यहाँ से नील योरप के देशों में जाने लगा तब से वहाँ के निवासियों का ध्यान नील की और गया। सबसे पहले हालैंडवालों ने नील का काम शुरू किया और कुछ दिनों तक वे नील की रंगाई के लिये योरप भर में निपुण समझे जाते थे। नील के कारण जब वहाँ कई वस्तुओं के वाणिज्य को धक्का पहुचने लगा तब फ्रांस, जर्मनी आदि कानून द्वारा नील की आमद बद करने पर विवश हुए। कुछ दिनो तक (सन् १६६० तक) इगलैंड में भी लोग नील को विष कहते रहे जिससे इसका वहाँ जाना बद रहा। पीछे बेलजियम से नील का रंग बनानेवाले बुलाए गए जिन्होंने नील का काम सिखाया। पहले पहल गुजरात और उसके आस पास के देशों में से नील योरप जाता था; बिहार, बंगाल आदि से नहीं। [[ईस्ट इंडिय कंपनी]] ने जब नील के काम की और ध्यान दिया तब बंगाल बिहार में नील की बहुत सी कोठियाँ खुल गईं और नील की खेती में बहुत उन्नति हुई।
== खेती ==
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